✍ वासुदेव प्रजापति
भारत में समाजव्यवस्था की मूल इकाई व्यक्ति नहीं, परिवार है। परिवार एकात्म संकल्पना का सामाजिक रूप है। व्यक्ति परिवार का अंग बनकर ही अपना व्यावहारिक जीवन व्यतीत कर सकता है। परिवार की रचना के साथ-साथ परिवार भावना की समाज में बहुत प्रतिष्ठा है। भारत में परिवार भावना और परिवार आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक बुद्धि का अनुपम आविष्कार है।
पश्चिमी शिक्षा ने व्यक्ति केन्द्री समाज रचना की और उसे शिक्षा के माध्यम से भारतीयों के मन-मस्तिष्क में प्रस्थापित किया। ऐसा करने से हमारी परिवार भावना दूषित हुई। परिणामस्वरूप परिवार रचना छिन्न-भिन्न हुई, जिससे हमारी सामाज व्यवस्था का विघटन हुआ। अब हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा, आज के आधुनिक परिवार को पुनः भारतीय परिवार बनाकर ही कर सकते हैं। इस दृष्टि से परिवार को भारतीयता में कैसे ढ़ालना चाहिए, इसके कुछ प्रमुख बिन्दु यहाँ दिए जा रहे हैं।
परिवार को सामाजिक इकाई बनाना
हमारे यहाँ समाज की सबसे प्रथम इकाई परिवार है। जब परिवार के सभी सदस्य मिलकर एक-साथ रहते हैं, तब परिवार की इकाई बनती है। अतः परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वयं को परिवार से स्वतन्त्र न मानकर उस परिवार का अभिन्न अंग मानें। जिस प्रकार हाथ, पैर, मस्तक, हृदय और फेफड़े आदि अंगों के अलग-अलग कार्य होते हैं, फिर भी वे शरीर से अलग नहीं होते। शरीर से स्वतन्त्र उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। उसी प्रकार परिवार के प्रत्येक सदस्य का परिवार से अटूट सम्बन्ध होता है।
भारत में विवाह को तथा संतान के जन्म को सांस्कृतिक स्वरूप देना आवश्यक है। पाश्चात्य विचार में विवाह एक करार है, जबकि भारतीय विचार में विवाह एक संस्कार है। इस सूत्र को आग्रहपूर्वक व्यवहार में लाना चाहिए। अन्यथा आज तो स्थिति यह बन गई है कि जहाँ भारत में तलाक शब्द ही नहीं था और विवाह सात जन्मों का संस्कार था, वहीं पर उसे करार मान लेने से एक ही जन्म में सात-सात बार विवाह हो रहे हैं। इसलिए विवाह को करार न मानकर संस्कार मानना ही श्रेयस्कर है।
स्त्री-पुरुष समानता लाना
आजकल पुत्र और पुत्री समान हैं, स्त्री व पुरुष समान हैं। यह नारा बहुत जोर-शोर से चल पड़ा है। स्त्री-पुरुष समानता का यह सूत्र अच्छा व सही है, परन्तु इसका अर्थ सही नहीं जानते। वे पुत्री को पुत्र जैसा और स्त्री को पुरुष जैसा बनाना चाहते हैं। इसका यह अर्थ भी निकलता है कि समाज को पुरुष ही चाहिए और परिवार को पुत्र ही चाहिए। जब पुत्री पुत्र जैसी और स्त्री पुरुष जैसी होगी, तभी स्त्री व पुरुष में समानता होगी। इस प्रकार सही सूत्र का गलत अर्थ लगाया जाता है। हमें इस गलत अर्थ से बचना चाहिए।
समानता के इस सूत्र का सही अर्थ समझना चाहिए। परिवार तथा समाज में स्त्री व पुरुष दोनों चाहिए, किसी एक के न होने से अव्यवस्था फैल जाएगी। स्त्री व पुरुष दोनों की अपनी अलग-अलग भूमिका निर्धारित हैं, उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। जब स्त्री पुरुष के कार्य करने लगेगी तो स्त्री के कार्य बाधित होंगे। इसलिए होना यह चाहिए कि पुत्री, पुत्री ही बनी रहकर और स्त्री, स्त्री ही बनी रहकर पुरुष के समान ही सम्मान की अधिकारी हो। अतः प्रत्येक परिवार में पुत्री को अच्छी पुत्री और पुत्र को अच्छा पुत्र बनाने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए।
गृहस्थाश्रमी का धर्म निभाना
एक गृहस्थी होने के नाते घर में भारतीय वेश पहनना, भारतीय साज-सज्जा करना, भारतीय भाषा बोलना जैसे कार्यों को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। घर में आए अतिथि को घर के सदस्यों से अधिक अच्छी सुविधाएँ दी जानी चाहिए। घर के मुखिया को उसके साथ भोजन करना चाहिए। घर में कोई भी आए, उसका स्वागत प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए। उसे यथायोग्य खिला-पिलाकर और विश्रांति करवाकर ही वापस भेजना चाहिए। कभी भी आगन्तुक को खाली हाथ विदा नहीं करना चाहिए।
प्रत्येक घर का एक कुल देवता या कुलदेवी होती है। इसी प्रकार घर का एक सम्प्रदाय भी होता है। कुल देवी या देवता का पूजन-अर्चन करना, सम्प्रदाय के आचारों का पालन करना और नई पीढ़ी को पूजन, अर्चन और आचार सिखाना माता-पिता का कर्तव्य है। इस विषय में माता-पिता का कोई विकल्प नहीं है।
सुदृढ़ परिवार बनाना
परिवार में रहना प्रत्येक सदस्य का जन्मजात अधिकार है। परिवार में कोई किसी का स्वामी नहीं, कोई किसी का आश्रित नहीं होता। कोई किसी पर उपकार नहीं करता, कोई किसी का ऋणी नहीं होता। एक सुदृढ़ परिवार में कभी हिसाब किताब नहीं होता, परिवार में तो अपनापन होता है, आत्मीयता होती है। सभी सदस्यों को मिलकर इस प्रकार का परिवार बनाना, उसे सुदृढ़ करना सभी सदस्यों का सम्मिलित कर्तव्य है।
परिवार सुदृढ़ बनाने हेतु पति-पत्नी का सम्बन्ध एकात्म होना आवश्यक है। इस एकात्मता का विस्तार माता-पिता और सन्तानों के तथा भाई -बहन के सम्बन्धों में होता है। पति-पत्नी ही एकात्म सम्बन्ध विकसित होने की प्रक्रिया के संरक्षक होते हैं। परिवार में खूब काम करो, खूब कमाओ, खूब उपभोग करो और उससे भी ज्यादा दान करो। जिस परिवार में इस सूत्र का पालन होता है, उस परिवार में कभी वैभव का नाश नहीं होता।
परिवार में संतान को जन्म देना एक ओर संस्कृति के प्रवाह को अखण्डित रखना है तो दूसरी और समाज को एक उत्तम व्यक्ति देना भी है। संतान को जन्म देना परिवार की संस्कृति सेवा और समाज सेवा है। इस सेवा के फलस्वरूप सृष्टिचक्र अबाधित हो निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार परिवार के किसी सदस्य की उपलब्धि व्यक्तिगत नहीं होती, पूरे परिवार की उपलब्धि मानी जाती है। ऐसे अवसरों पर ईर्ष्या, द्वेष आदि भावों को पनपने नहीं देना चाहिए। घर के समझदार व्यक्तियों को सावधानीपूर्वक बिना बोले ऐसे भावों को आने ही नहीं देना चाहिए।
घर को पवित्र बनाना
हमारे यहाँ कहा गया है – ‘घर एक मंदिर है।’ जैसे मंदिर में पवित्रता होती है, वैसी ही पवित्रता घर में भी होनी चाहिए। घर का मुख्य भाग रसोई होता है।
इसलिए जिस घर में रसोई को पवित्र स्थान माना जाता हो, गृहिणी को अन्नपूर्णा माना जाता हो, आहार शुद्धि को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता हो, भोजन को यज्ञ माना जाता हो और भोजन बनाने वाले का सबसे अधिक सम्मान होता हो, ऐसे घर में संस्कारों की कभी कमी नहीं रहती।
घर में आँगन हो, उसमें पशु-पक्षी आवें, वहाँ उन्हें दाना-पानी मिले, भिक्षुक व संन्यासी आवें, वहाँ उन्हें भिक्षा मिले, वे दो घड़ी बैठकर विश्राम करें, आँगन में पेड़-पौधे हों, जिनकी आत्मीयतापूर्वक देखभाल होती रहे, घर में गौमाता हो, जिसकी सेवा सब करते हों, ऐसा पवित्र घर भाग्यवानों को ही मिलता है।
घर के सम्बन्ध रक्त से बनते हैं, परन्तु भावना में विकसित होते हैं। भावात्मक सम्बन्धों का विस्तार रक्त सम्बन्धों को लांघकर सम्पूर्ण वसुधा तक फैलता है। परन्तु व्यवहार के क्षेत्र में रक्त सम्बन्ध ही मूल में होते हैं। पति-पत्नी एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं होते, ऐसी आवश्यकता भी नहीं होती। जब स्वतन्त्रता ही नहीं तो आश्रितता भी नहीं होती। एक स्वामी है तो दूसरी स्वामिनी है। एक प्राण दो देह हैं। दोनों मिलकर एक हैं।
परिवार को संस्कृति वाहक बनाना
संस्कृति समाज के माध्यम से व्यक्त रूप धारण करती है। संस्कृति परम्परा के रूप में काल के प्रवाह में जीवित रहती है। परम्परा को बनाए रखना परिवार का प्रमुख कार्य है और परम्परा को खण्डित न होने देना परिवार का दायित्व है। जीवन अखण्ड है, निरन्तर चलता रहता है, इस निरन्तरता को बनाए रखने के लिए संस्कृति प्रयासरत होती है। इस रूप में परिवार को आध्यात्मिक दायित्व मिला है।
भारतीय संस्कृति में त्याग की महिमा अधिक है। जब सभी परिजन एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तभी परिवार में सुख व शान्ति आते हैं। इसलिए अपनी संतानों को त्याग करना सिखाना चाहिए। स्वयं त्याग करना और दूसरे व्यक्ति ने हमारे लिए त्याग किया है तो उसे सदैव याद रखना और उसके प्रति आदर का भाव रखना चाहिए।
आजकल शयनकक्ष (बेडरूम) की संख्या के आधार पर घर का वैभव आँका जाता है। अर्थात घर में बेडरूम कल्चर के स्थान पर लिविंग रूम कल्चर अपनाने की आवश्यकता है। घर की रसोई बड़ी बने, उसका कोठार बड़ा बने। घर के व्यक्तियों के साथ बाहर का कोई न कोई व्यक्ति भोजन हेतु नित्य साथ रहे। घर में अतिथियों का आना-जाना नित्य बना रहे। घर का काम सब मिलकर करें। घर में सबके लिए अलग-अलग कक्ष की व्यवस्था न हो अर्थात एकान्त (प्राइवेसी) कम से कम हो। घर में सारे दिन बिस्तर बिछे हुए न रहें। घर में खुला स्थान अधिक हो ताकि काम करने की जगह अधिकाधिक मिले।
पारिवारिक विघटन के कारण दूर करना
अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करना, बड़ी आयु में विवाह करना, एक ही सन्तान होना आदि सांस्कृतिक दूषण हैं। ये दूषण ही पारिवारिक विघटन के कारण बनते हैं। पारिवारिक विघटन आगे जाकर सामाजिक विशृंखलता और देशभक्ति के अभाव में परिणत होता है। विचारपूर्वक और साहसपूर्वक इन दूषणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। साधु-सन्तों द्वारा इस विषय में प्रबोधन होते रहने चाहिए।
स्त्रियों को नीचा समझना, उनकी अवमानना करना, उनको दबाना, उन्हें विकास के अवसर न देना आदि बातों का प्रचलन विगत एक सौ वर्षों के कालखण्ड में हुआ है। पारिवारिक विघटन के अनेक कारणों में यह भी एक कारण है। इस दृष्टि से लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। घर में बड़ों को तथा साधु-सन्तों को यह काम करना चाहिए। इसे स्त्री दाक्षिण्य की शिक्षा कहते हैं।
परिवारों में विवाह विषयक संकट बढ़ गए हैं, उन पर उचित पद्धति से पुनर्विचार की आवश्यकता है। बड़ी आयु में विवाह होना व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में अस्थिरता और असन्तुलन पैदा करती है। बड़ी आयु में विवाह होने के परिणामस्वरूप सन्तान होने में संकट उपस्थित होता तथा असन्तोष व असन्तुलन के कारण विवाह विच्छेद की संख्या में वृद्धि होना आम बात हो गई है। हमें इस विषय को सामाजिक स्तर पर विचार कर समाधान निकालना चाहिए।
परिवार को स्वायत्त बनाना
आज अर्थार्जन का प्रचलित साधन नौकरी है। बड़े-बड़े उद्योगों में उत्पादन का केन्द्रीकरण हो गया है। मनुष्य और प्रकृति के स्वास्थ्य की चिन्ता किसी को नहीं है। भ्रष्टाचार आम बात है। मनुष्य स्वतन्त्रता और स्वमान खो चुका है। समाज दरिद्र बन रहा है।आर्थिक और सांस्कृतिक अध:पतन के इस काल में परिवार को स्वायत्त बनने की पहल करनी होगी।
हमें ऐसा व्यवसाय नहीं करना चाहिए, जिससे अन्य लोगों की रोजी-रोटी छिन जाय। ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिए, जिससे व्यक्ति एवं प्रकृति दोनों के स्वास्थ्य की हानि हो। जिस व्यवसाय से संस्कारों की हानि होती हो, ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिए। प्लास्टिक, बनी-बनाई (रेडीमेड) वस्तुएँ, होटेलिंग आदि व्यवसाय सांस्कृतिक अनिष्ट हैं। इनका प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। हमें इनसे पूर्णरूपेण बचना चाहिए।
मन के सद्गुण व सदाचारों से सम्बन्धित बातें घर में ही सिखाई जाती है तो वे संस्कार बनती हैं। भोजन और शिशु का लालन-पालन, ये दो ऐसे काम हैं जो घर में ही होने चाहिए। इन कामों में बाजार का प्रवेश होते ही संस्कारों का ह्रास होने लगता है। घर धर्मशाला नहीं है, होटल नहीं है और सदाव्रत भी नहीं है। हम घर की कर्मयुक्त सेवाकर ही घर को एक सुसंस्कृत घर बना सकते हैं। यह भाव सिखाना भी माता-पिता का ही दायित्व है।
अगले अध्याय में ‘परिवार शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है’ इस बिन्दु को समझेंगे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)