भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 106 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – व्यक्तिगत जीवन में करणीय प्रयास-2)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने हेतु स्वदेशी दृष्टिकोण होना आवश्यक है। हमारे व्यक्तिगत जीवन में उपयोगी सभी वस्तुएँ स्वदेशी होनी चाहिए, परन्तु आज स्थिति इसके विपरीत है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में सबका दृष्टिकोण बदलना अत्यन्त कठिन कार्य होते हुए भी अनिवार्य है। स्वदेशी दृष्टिकोण के अन्तर्गत सारा सामान स्वदेशी संस्थानों द्वारा उत्पादित होना चाहिए। इतना ही नहीं आगे चलकर वह स्वदेशी सिद्धान्तों से उत्पादित हों, यह भी आवश्यक है।

व्यक्तिगत जीवन में सत्य, अहिंसा, संयम, सदाचार, शुचिता, पवित्रता आदि गुणों का होना शिक्षा का अनिवार्य अंग है। जब हम इनका व्यक्तिगत आचरण करेंगे तभी  समाज व्यवस्था, संस्कृति रक्षा और ज्ञान प्रतिष्ठा रूपी राष्ट्र भवन खड़ा होता है। दया, करुणा, अनुकम्पा, क्षमाशीलता, उदारता व सहायता आदि गुण अन्य लोगों के साथ हमारे व्यवहार के आधारभूत सिद्धान्त हैं। व्यक्तिगत स्तर पर इनका आचरण अन्त:करण की उदारता के स्रोत से आता है। परीक्षा में नकल नहीं करना, असत्य भाषण नहीं करना, कपट नहीं करना आदि में व्यक्ति का स्वाभाविक आचरण होना चाहिए। शिष्ट व्यवहार सामाजिकता का मुख्य लक्षण है। शिष्ट भाषा-भूषा, शिष्ट देह बोली, शिष्ट मनोरंजन ही शिक्षित मनुष्य की पहचान है।

शील की रक्षा करना

भारत में शील रक्षा जितना व्यक्तिगत विषय है उतना ही सामाजिक महत्त्व का विषय भी है। यह स्त्री व पुरुष दोनों के लिए समान महत्त्व रखता है। आजकल ऐसा माना जाने लगा है कि शील स्त्रियों का ही होता है। इसलिए शील रक्षा केवल स्त्रियों की समस्या है। परन्तु यह सोच ठीक नहीं है। पुरुषों का भी शील होता है, उन्हें भी अपने शील की रक्षा करनी चाहिए। शील रक्षा के लिए जहाँ जौहर करने वाली क्षत्राणियों के उदाहरण विश्व प्रसिद्ध हैं, वहीं छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा कल्याण की विजित पुत्रवधु को माता सम्बोधन देकर ससम्मान लौटाने जैसे उदाहरण भी केवल हमारे इतिहास में ही मिलते हैं। ये दोनों उदाहरण सिद्ध करते हैं कि शील रक्षा स्त्री व पुरुष दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण विषय है।

एक पुरुष को अपने पुरुषत्व की रक्षा करनी चाहिए और एक स्त्री को अपने स्त्रीत्व की रक्षा करनी चाहिए। यह शील रक्षा दोनों के जीवन प्रवाह की स्वस्थ एवं निरन्तरता की दृष्टि से आवश्यक है। आज इस बात की घोर उपेक्षा की जा रही है। इसलिए भी शील रक्षा के विषय की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। बिना शील रक्षा के कोई भी समाज सभ्य व सुसंस्कृत नहीं कहलाता। यह शील ही व्यक्ति को पशु से भिन्न बनाता है। एक शीलवान समाज में ही स्त्रियों के शील की रक्षा सम्भव है। अन्यथा पशु समान स्वैराचार तो बहुत बढ़ रहा है, जिसे रोकने की प्रबल आवश्यकता है।

अन्यों के गुण-अवगुण जानना

अन्य लोगों के गुणों को जानना, उनकी प्रशंसा करना भी आना चाहिए। परन्तु यह प्रशंसा बिना किसी हेतु के होनी चाहिए। किसी भी प्रकार के स्वार्थ से प्रेरित होकर की गई प्रशंसा तो अनिष्टकारी होती है। इसी प्रकार अन्यों के अवगुण जानना भी आवश्यक है। परन्तु उन अवगुणों को सर्वत्र बताना भी अच्छी बात नहीं है। उनका लाभ उठाना तो निश्चय ही अनुचित कर्म है।

हमें केवल दुर्बलों, दीनों या अनाथों की ही रक्षा करनी चाहिए, यह सोच भी ठीक नहीं है। सज्जनों व सन्तों की रक्षा भी करनी चाहिए। एक की दया भाव से और दूसरे की पूज्य भाव से रक्षा करनी चाहिए। इस हेतु से सदैव तत्पर रहना हमारा कर्तव्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है – ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’। दूसरे लोगों के साथ हमारे व्यवहार का यह सार सूत्र है। इस सूत्र के अनुसार व्यवहार करना हमसे अपेक्षित है।

अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करना

अर्थ प्राप्त करने के लिए नौकरी न करनी पड़े, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। जीवन के किसी मोड़ पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक ओर उस अनिवार्यता को समाप्त करना चाहिए तथा दूसरी ओर नौकरी को सेवा में ढालना चाहिए। यद्यपि यह बहुत कठिन कार्य है, परन्तु दिशा तो यही है। वैसे तो यह आचरण व्यक्तिगत है, परन्तु इसका प्रभाव सार्वत्रिक है। अर्थार्जन हेतु नौकरी न करने का संकल्प यदि शिक्षकों व माता-पिता के द्वारा दी गई शिक्षा से नहीं बना है तो जब से हमारा स्वतन्त्र विचार शुरु हुआ है, तबसे बनना चाहिए। अर्थार्जन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि व शक्ति का विनियोग होना चाहिए।

किसी व्यक्ति का विचार और तत्त्व में निष्ठा, श्रद्धा आदि गुणों का विकास होना चाहिए। उसमें ये गुण कितने दृढ़ हैं, इसकी परीक्षा भी करनी चाहिए। इसी प्रकार उसके जीवन में स्वमान, स्वगौरव, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता का आग्रह भी होना चाहिए। यह भी उसके ध्यान में रहना चाहिए कि यदि इनकी समझ सही नहीं रही तो ये विकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं और सामाजिकता का नाश करते हैं।

शास्त्र ग्रन्थों को प्रमाण मानना

भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करने हैतु बुद्धिमानों को भारतीय शास्त्र ग्रन्थों को प्रमाण मानने की निष्ठा विकसित करनी चाहिए। जिन्हें शास्त्रों की समझ नहीं है, उन्हें शास्त्र जानने वालों को आप्त पुरुष अर्थात श्रद्धा के पात्र मानना चाहिए। आप्त पुरुषों का चयन बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिए। यदि ऐसा चयन नहीं कर सकते तो सन्तों की शरण में जाना चाहिए। हमारी बुद्धि यदि निस्वार्थी है तो शास्त्रज्ञ, सज्जन और सन्तों को पहचानना सरल हो जाता है।

बुद्धिमान लोगों को सत्य, न्याय, ज्ञान एवं धर्म की रक्षा करने हेतु कुछ भी करना पड़े तो करेंगे, कुछ भी छोड़ना पड़े तो छोड़ेंगे, कुछ भी सहना पड़े तो सहेंगे, ऐसी सबकी मानसिकता बनानी चाहिए। उच्च व निम्न श्रेणी केवल व्यावहारिक व्यवस्थाओं के लिए होती हैं। सज्जनता, सद्गुण, चरित्र, ईश्वर साक्षात्कार तथा मोक्ष आदि के लिए इनकी कोई श्रेष्ठता और निष्ठा नहीं होती।

समाज व्यवस्था में अपनी भूमिका

सम्पूर्ण समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न काम करने होते हैं। इन कामों के विभिन्न स्तर व प्रकार होते हैं। व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि वह जो काम कर रहा है अथवा जो करना चाहता है, उसका समाज व्यवस्था में क्या स्थान है। उस स्थान के अनुसार अपनी मनोभूमिका बनानी चाहिए। मनोभूमिका बनने पर ही वह सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर पाता है।

मनुष्य द्वारा उत्पादित वस्तुएँ यथा – जूता, कपड़ा व दैनिक उपयोग की वस्तुएँ आदि में उसका स्वामित्व बाधित न होता हो, ऐसी व्यवस्था खड़ी करनी चाहिए। उदाहरण के लिए दर्जी द्वारा सिले हुए कपड़े पहनना चाहिए, परन्तु ऐसे कारखाने में बने कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जिसमें दर्जी नौकर है। मोची द्वारा बनाए जूते पहनना चाहिए, परन्तु मोची जहाँ यंत्र चलाने वाला नौकर हो ऐसे कारखाने में बने जूते नहीं पहनना चाहिए।

स्वकेन्द्री बनकर विचार नहीं करना

महात्मा विदुर ने सभा में बैठने के नियम बताएँ हैं। इन नियमों का पालन करने से व्यक्ति राजा की सभा में बैठने योग्य बन जाता हैं, वह सभ्य व्यक्ति कहलाता है और सभ्यता ही शिष्टता है। परन्तु इस बात का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए कि रसिकता कहीं अश्लीलता में न बदल जाय। एक सभ्य व्यक्ति में प्राप्त क्षमता और प्राप्त अधिकार का पूर्ण उपयोग करने की क्षमता और वृत्ति होनी चाहिए। प्रमाद, आलस्य, उदासीनता आदि का त्याग करना चाहिए।

गरीबी, असुन्दरता, क्षमताओं का अभाव आदि बातों से लज्जित नहीं होना चाहिए, परन्तु चरित्र के अभाव से अवश्य लज्जित होना चाहिए। अर्थात किस बात की वरीयता कितनी है, इसे ध्यान में रखना चाहिए। सादगी, सेवा और तप ये व्यक्तिगत जीवन के अंग बनने चाहिए। इनके साथ सौन्दर्य बोध, रसिकता और उच्च रहन-सहन अपेक्षित हैं। ये सभी एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, परस्पर पूरक हैं।

विदेशी भाषा, विदेशी रहन-सहन और विदेशी वस्तुओं के मोह में फँसना नहीं चाहिए। विदेशों में हमारी पहचान एक सच्चे भारतीय के नाते कैसी बने, इसकी स्पष्ट कल्पना होनी चाहिए। एक व्यक्ति के नाते स्वकेन्द्री बनकर दुनिया का विचार नहीं करना चाहिए। दुनिया मेरे लिए कितनी उपयोगी हो सकती है, यह पाश्चात्य विचार है। मैं दुनिया के लिए कितना उपयोगी बन सकता हूँ, यह भारतीय विचार है। अपने व्यक्तिगत जीवन की रचना इस सूत्र पर आधारित होनी चाहिए।

सम्प्रदाय विषयक सम्यक ज्ञान हो

सम्प्रदाय की बात करते ही साम्प्रदायिकता का हो-हल्ला शुरु कर दिया जाता है। जबकि सम्प्रदाय गलत नहीं है, साम्प्रदायिकता गलत है। हमारा कोई न कोई एक सम्प्रदाय अवश्य होना चाहिए। उस सम्प्रदाय के आचारों का पालन शुद्धता, कौशल व निष्ठापूर्वक करना आना चाहिए। सम्प्रदाय के सम्बन्ध में पूरा व शुद्ध ज्ञान होना चाहिए। जात-पात का भेद नहीं रखना चाहिए। हमें सभी जातियों का सम्मान करना चाहिए।

सम्प्रदायनिष्ठा सदैव धर्म की अविरोधी होनी चाहिए। आज अनेक लोग सम्प्रदाय को धर्म मानते हैं। जबकि सम्प्रदाय तो धर्म का एक आयाम है। उस व्यापक धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा होनी चाहिए। उस धर्म के प्रकाश में सम्प्रदाय को देखना चाहिए। अपने सम्प्रदाय के नैतिक आचरण के साथ ही अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर का भाव और आचरण होना चाहिए। भिन्नता को स्वीकारते हुए उसका आदर करना ही विकसित अन्त:करण का लक्षण है। इन सबके साथ-साथ अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए। और दूसरों की स्वतन्त्रता कभी नहीं छीननी चाहिए। अपितु दुर्बलों की स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उनकी सहायता करनी चाहिए।

परिवार व समाज में हमारी भूमिका

हम परिवार के अभिन्न अंग हैं। परिवार हमारा है और हम परिवार के हैं। परिवार का कुछ भी कार्य करना सेवा नहीं है। वह हमारा ही काम है, हम उसे स्वाभाविक रूप से करते हैं। इसलिए वह हमारा कर्तव्य है। कर्तव्य या सेवा के रूप में किये गए काम का हिसाब नहीं रखा जाता। उसकी किसी भी रूप से कभी कीमत चुकाई जानी चाहिए, ऐसी अपेक्षा करना भी अपने सेवाभाव को बेचना और क्षीण करना है। बुद्धि, रूप, धन, कुशलता आदि का अहंकार करने और दूसरों के समक्ष बढ़ा-चढ़ा कर बताने से हमारा सामर्थ्य और प्रभाव कम हो जाता है। इसलिए इनसे सदैव बचना चाहिए।

परिवार व समाज में हमारी विशिष्ट भूमिका होती है। उस भूमिका के अनुरूप हमारा व्यवहार हो, इस दृष्टि से स्वयं को बहुत कुछ सीखना होता है। हम स्वयं अपने शिक्षक बनकर सीखें और सिखाएँ। हम वैसे ही होते हैं, जैसा भगवान ने हमें बनाया है। हम वैसे भी होते हैं, जैसा लोग हमें जानते हैं, और हम वैसे भी होते हैं, जैसा हम अपने आपको मानते हैं। इन तीनों प्रकारों में अन्तर जितना कम होगा, उतना हमारा विकास हुआ है, ऐसा मानना चाहिए।

हम सीखते जाते हैं और अनुभव प्राप्त करते जाते हैं। हम अपने चरित्र और व्यवहार से अनेक लोगों को अनेक बातें सिखाते हैं। जिससे उनका हित होता है। यह करते-करते एक समय ऐसा आता है कि हमारी सिखाने की इच्छा भी नहीं रहती और हम प्रयास भी नहीं करते, तब भी लोग हमसे सीखते रहते हैं।

अपने मन को साधना

हमारा यह शरीर अच्छा आज्ञाकारी चाकर है, एक कुशल यन्त्र है। इसे हम मन का चाकर बनाते हैं या बुद्धि का, यह समझना आवश्यक है। यदि हमारा शरीर मन का चाकर है तो उसे वहाँ से हटाकर बुद्धि का चाकर बनाना चाहिए। मन केवल शरीर को ही नहीं अपितु बुद्धि को भी चाकर बनाना चाहता है। हमें पता ही नहीं चलता कि कब उसने बुद्धि को अपना चाकर बना लिया है। यह स्थिति अत्यन्त अनर्थकारी है। अतः हमें सावधानी रखते हुए मन को ही बुद्धि के अधीन रखना चाहिए। यही हमारा सामर्थ्य है।

शरीर को गुणवान चाकर मानकर उसका रक्षण व पोषण करना चाहिए। मन को अपना मित्र मानकर उसे सज्जन बनाना चाहिए और अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना चाहिए। ऐसा करना ही भारतीय शिक्षा प्राप्त करना है। जो दूसरों के अनुभवों से नहीं सीखता वह अज्ञानी है। जो स्वयं के अनुभवों से नहीं सीखता वह मूर्ख है और जो बार-बार न तो दूसरों के अनुभवों से और न स्वयं के अनुभवों से कुछ भी नहीं सीखता वह तो महामूर्ख है। ये सभी व्यक्तिगत स्तर पर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा के हेतु करणीय प्रयास हैं।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 105 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – व्यक्तिगत जीवन में करणीय प्रयास-1)

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