✍ दिलीप बेतकेकर
एक चार बच्चे के माँ-पिताजी मिलने आए। चेहरे पर चिंता थी। कुर्सी पर बैठते ही पिताजी बोले – ‘हमारा अभिमन्यु अध्ययन के लिए बैठता ही है कि सब शत्रु उसे घेर लेते हैं।‘ ‘हो तो!’ माता जी संभाषण का सूत्र अपने हाथ लेते हुए बोली।
“एक तो पढ़ाई करने बैठने की इच्छा ही नहीं होती उसे। बैठता है तो उबासी लेता रहता है। कैसा आलसी हो गया है? हम जरा इधर उधर हुए नहीं कि मोबाइल में ‘गेम्स’ शुरू! अब दिनभर क्या उसकी ही रखवाली करते बैठें? हमें भी तो अपने व्यवसाय, नौकरी-धंधे देखना है ना? हम घर से बाहर जाते हैं तो टीवी चलाकर देखता रहता है।”
“और, ये क्रिकेट ने तो कहर बरपा दिया है।” पिताजी ने पुष्टि करते हुए कहा। “हम घर में नहीं है ये पता चलते ही क्रिकेट के मित्र आकर इसे ले जाते हैं।” प्रत्येक घर में बच्चों को शत्रुओं ने घेर रखा है, ऐसा ध्यान में आता है। मोबाइल, टीवी, आलस्य, क्रिकेट का आकर्षण यह दिखाई देने वाले शत्रु हैं। परन्तु ना दिखाई देने वाले शत्रुओं की संख्या अधिक है। हम उन शत्रुओं की एक सूची तैयार करते हैं जिससे उनसे लड़ना आसान होगा।
१. भय – भय कई प्रकार का हो सकता है। परन्तु पराभव अथवा अपयश का भय, हमारी कुछ गलती तो नहीं होगी, इस बात का भय, और एक अन्य भय यह भी है कि लोग क्या कहेंगे, लोग हंसेगे, लोग मजाक उड़ाएंगे; कक्षा में शिक्षक प्रश्न पूछते है, फलक पर बुलाकर कोई प्रश्न को हल करने को कहते हैं, तब क्या होता है? कितने विद्यार्थी स्वयं प्रेरित होकर उत्तर देने के लिए फलक पर उत्साह से आकर प्रश्न हल करते हैं? अनेक बार तो उत्तर मालूम होते हुए भी उसे बोलने में भय लगता है, कहीं गलत हो गया तो? फिर कक्षा हंसेगी, मजाक उड़ाएगी, फजीहत होगी, इससे अच्छा है चुप रहें यही धारणा है!
शिक्षक पढ़ाते समय बीच में ही दो प्रश्न सहसा पूछते हैं। देश के किसी भी शाला में देखें तो यह प्रश्न शिक्षक द्वारा साधारणतः पूछे जाते हैं। प्रथम प्रश्न है समझे क्या? और बच्चों का सामूहिक उत्तर होता है- हां सर! फिर शिक्षक का दूसरा प्रश्न होता है- कुछ कठिन है क्या? फिर सामूहिक उत्तर – नहीं सर! वास्तव में समझे क्या का सही उत्तर होना चाहिए था नहीं और दूसरे प्रश्न – कुछ कठिन है क्या? का प्रामाणिक उत्तर हां में होना चाहिए था। अनेक बार सब कुछ ही कठिन लगता है फिर भी उत्तर नहीं होता है। फिर बच्चे सच क्यों नहीं कहते उस समय? उत्तर आसान है इसका – भय के कारण।
चीनी भाषा में एक कहावत है – आपने अगर प्रश्न पूछ लिया तो लोग हंसेगे, मूर्ख कहेंगे, परन्तु केवल यह पांच मिनट के लिए होगा, परन्तु प्रश्न न पूछा जाए तो जीवनभर मुर्ख रहेंगे, उत्तर न आने के कारण। अतः जीवनभर मुर्ख, अज्ञानी, रहने की अपेक्षा पांच मिनट रहना बेहतर है।
और इसी प्रकार कई बातों में भय के कारण हम स्वयं का ही नुकसान करते हैं। भित्या मागे ब्रह्मराक्षस अर्थात Cowards die hundred deaths.
ऐसा भी हम कई बार सुनते रहते हैं। इस भय को मिटाना होगा, नष्ट करना होगा!
स्वामी विवेकानंद के जीवन का एक प्रसंग ज्ञात ही होगा –
एक बार स्वामी जी काशी में एक सकरी गली से जा रहे थे। एक बंदर उनके पीछे पड़ गया। स्वामी जी घबराकर भागने का प्रयास करने लगे। बंदर अधिक जोश से पीछे पड़ गया। यह दृश्य देखकर एक स्थानिक द्वारा उन्हें सलाह दी गई कि भागे नहीं, वहीं रुककर, पीछे मुड़कर बंदर की ओर उसकी आंख से आंख मिलाकर देखे। दूसरा कोई पर्याय स्वामी जी के पास न था। अतः उस स्थानिक की सलाह पर स्वामी जी ने पीछे मुड़कर बंदर की आंखों में अपनी आंखे गड़ाकर देखने लगे। परिणास्वरूप बंदर भाग गया। स्वामी जी अपने व्याख्यान में इस प्रसंग का उल्लेख करते थे।
शत्रु से संकट आने पर भागो नहीं, दृढ़ता पूर्वक उनका सामना करो।
२. इच्छा शक्ति की कमी – जहां चाह वहां राह। जहां चाह वहां राह यह कई बार सुनते आ रहे हैं। कुछ सीखने की, कुछ करके दिखाने की इच्छा न हो तो कोई सहायता नहीं कर सकता। कठिन इच्छा शक्ति यह एक बड़ी जमापूंजी है। दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते मार्क इंगलिश, दोनों पैर न होते हुए भी, कृत्रिम पैर के आधार से, एवरेस्ट शिखर पर जा सके। अभिनन्दन जैसा व्यक्ति पाकिस्तान के कब्जे में रहकर भी हताश नहीं हुआ। इच्छाशक्ति के बलबूते, विपरीत परिस्थिति का सामना करते हुए, संघर्ष करते हुए, अपनी शिक्षा पूर्ण की। उद्योग, व्यवसाय स्थापित कर सुयश प्राप्त किया। कला, क्रीड़ा क्षेत्र में भी अपना विशेष योगदान भी दशनि वाले अनेक व्यक्ति हैं। हाथ में जिनके ‘शून्य’ था उन्होंने शून्य से विश्व निर्माण किया। जिनके पास इच्छाशक्ति का अभाव हो उन्हें कोई सहायता नहीं कर सकता। और यह भी सत्य है कि जिनके पास इच्छाशक्ति है उनको सहसा किसी की सहायता की भी आवश्यकता नहीं होती। और यदि आवश्यक हो भी जाए तो सहायता करने के लिए सैकड़ों हाथ आगे बढ़ते हैं। घोड़े को पानी तक ले जाया जा सकता है, पानी पीना अथवा नहीं यह घोड़े की इच्छा पर निर्भर करता है। अध्ययन के लिए एक सुंदर प्रभावी, अनुकूल वातावरण, सकारात्मक वातावरण, घर पर माता-पिता और शाला में शिक्षक, निर्मित कर सकते हैं। परन्तु अन्य कोई भी अपने मन को ‘इच्छा शक्ति’ का इंजेक्शन नहीं दे सकता।
“We don’t walk on our legs, but on our will.” “हम अपने पैरों पर नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से चलते हैं।”
बुद्धिमत्ता है, ताकत है परन्तु इच्छाशक्ति ही न हो तो?
“Skill is nill without will.” “इच्छाशक्ति के बिना कौशल शून्य है।”
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।
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