आजादी का उत्सव मनाने का अपराध

✍ गोपाल माहेश्वरी

धरा से मान पृथक अपना अस्तित्व बुदबुदे बहते हैं।

अलगाव भाव को भ्रम से वे अपनी आजादी कहते हैं।।

यज्ञ कुण्ड में सब अपनी-अपनी आहुतियाँ देते हैं पर यज्ञ पूरा तब ही होता है जब उसकी पूर्णाहुति हो। पूर्णाहुति में एक ही सामूहिक आहुति डाली जाती है। हमारा स्वातन्त्रय समर भी ऐसा ही महायज्ञ था। 15 अगस्त 1947 को इसी पूर्णाहुति के लिए सबको एकत्र होना आवश्यक था। स्वतंत्रता के पूर्व 562 छोटी बड़ी रियासतों में बंटा था हमारा देश। हर कोई अपनी-अपनी शक्ति-भक्ति के अनुसार स्वातन्त्रय महायज्ञ में आहुति डाल रहा था पर स्वतंत्रता की देवी से वर पाने के लिए पूर्णाहुति अनिवार्य थी। इस हेतु इन रियासतों के विलीनीकरण अर्थात् देशी राज्यों को राष्ट्रीय बनाने का कार्य किया लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने। लेकिन कुछ ऐसे स्वार्थी राजा भी थे जो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखने की अदूरदर्शी जिद पर अड़े थे। हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान का नाम ऐसे लोगों में सबसे पहले लिखा जाएगा।

यह घटना भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस की ही है। राष्ट्र स्वतंत्रता के उल्लास में पूरी तरह डूबा हुआ था। अनगिनत बलिदानी स्वर्ग से अपनी आँखों से आनंद के अश्रु बहाते यह दृश्य देख रहे थे। उसी समय हैदराबाद (वर्तमान तेलंगाना) के नलगोंडा जिले के वल्लाल गाँव में भी कुछ देशभक्त युवकों की टोली तिरंगा फहरा कर स्वतंत्रता का उत्सव मना रही थी। वास्तव में इसकी योजना बनाई थी एक चौदह वर्ष के राष्ट्रभक्त बालक अनुमला श्रीहरि ने। हैदराबाद का निजाम बहुत अहंकारी और क्रूर था। उसे अंग्रेजों की शह मिली हुई थी। अपनी प्रजा पर मनमाने कर लगाना, अत्याचार करना और भारत की स्वतंत्रता की बात करने को अपने विरुद्ध बगावत मान कर निर्ममता से कुचलना उसका शौक बन गया था। कुछ लोग होते हैं जो देश में रहते हैं पर देश के नहीं होते। साथ ही ऐसे लोग भी कम नहीं, जिन्हें देश अपने प्राणों से अधिक प्रिय होता है। इस बालक अनुमला श्रीहरि के पिता वैंकैया प्रखर राष्ट्रभक्त थे। वे अपने पुत्र अनु को बचपन से ही राष्ट्र के वीर नायकों लाला लाजपत राय, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बसु और भगत सिंह आदि के जीवन प्रसंग सुनाया करते थे। परिणामस्वरूप बालक अनुमला ने बालपन की अवस्था में ही राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन लगा देने का दृढ़ संकल्प कर लिया था।

अपने राज्य की निरीह जनता, निरपराध युवकों, अबोध बालकों और महिलाओं पर निजाम के कारिंदों के अत्याचारों से आहत वह सोचता, “देश तो आजाद हो जाएगा पर क्या निजाम से भी आजादी मिलेगी?” वह पिता से कहता “मैं बड़ा होकर इस निजाम को भी भगा दूँगा। मैं उससे लडूँगा जैसे सुभाष बाबू अंग्रेजों से लड़ कर उन्हें भगा रहे हैं।”

आज वही अनुमला श्रीहरि कुछ अपने से बड़ी आयु के युवकों के साथ पहला स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। झण्डा फहरा। झण्डा गान गाया गया और वन्देमातरम् के साथ-साथ एक और नारा गूंजा ‘भारत संघ में विलय-भारत माता की जय’। निजामशाही में यह बगावत असह्य थी। हैदराबाद रियासत अभी भी अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए अड़ी थी और भारत की आजादी उसके लिए अपना उत्सव न था। निजाम के सिपाही इस टोली पर टूट पड़े। भगदड़ में गिरे एक साथी को उठाते अनु जैसे ही झुका, उसकी पीठ पर ताबड़-तोड़ इतनी लाठियाँ बरस गईं कि उसने वहीं प्राण त्याग दिए। सारे गाँव में शोक छा गया। घरों में चूल्हे न जले। बल्लाल गाँव के इस शहीद को अंतिम विदा देने आसपास के अनेक गाँवों से लोग दौड़े आए। इस बाल शहीद की चिताग्नि को साक्षी मान निजाम से मुक्ति और रियासत के भारत में विलय का संकल्प हर मन में दृढ़ हो चुका था।

अन्ततः सरदार पटेल के असाधारण साहस ने यह संकल्प पूरा कर दिखाया जब 18 सितम्बर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद में घुस कर उसे राष्ट्र का अभिन्न अंग बना लिया।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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