✍ नारायण उपाध्याय
प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप भारतीय स्वातंन्न्य के तात्विक प्रतीक है। स्वदेश व स्वधर्म की रक्षार्थ सीमित संसाधनों के बावजूद उस समय के एक शक्तिशाली मुगल सम्राट से टकराये, उन्होंने अधीनता के बजाय स्वातंत्र्य को चुना। वे चाहते तो अधीनता स्वीकार कर अन्य राजाओं की भांति एक वैभवशाली जीवन जी सकते थे, यह अवसर उन्हें उपलब्ध था। 4-4 संधि प्रस्ताव ठुकरा कर उन्होंने स्वातंत्र्य की रक्षार्थ संघर्ष का मार्ग चुना। तृणचर कहेंगे लोग पर अनुचर कहलाएंगे ना।
अकबर की मजहबी व साम्राज्यवादी लिप्सा के चलते मेवाड़ की स्वाधीनता उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा था, साथ में गुजरात व गुजरात के समुद्री तट तक निर्बाध वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए मेवाड़ का उसके साम्राज्य में होना नितान्त आवश्यक था। इसलिए साम, दाम, दण्ड व भेद हर उपाय से वह मेवाड़ को अधीन करना चाहते थे, इसलिए 1572 से 1576 जून तक 4 संधि प्रस्ताव भेजे गए, पर प्रताप को अपने प्राण प्रिय मेवाड़ की अधीनता किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं थी, इसकी निष्पति था- 18 जून 1576 का हल्दी घाटी युद्ध।
हल्दी घाटी युद्ध, हमारे प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप के संघर्ष का विजय शाली व कीर्तिदायक प्रारम्भ था, यह संघर्ष लगातार 7 वर्ष चला, एवं संघर्ष को निर्णायक स्थिति दिवेर के युद्ध में मिली। हल्दी घाटी युद्ध प्रताप ने अपनी शर्तों पर लड़ा, संघर्ष का प्रारम्भ प्रताप ने नहीं किया, बेरहम गर्मी के मौसम का इंतजार किया। मुगलों को घाटी तक बुलाया। प्रथम प्रचण्ड प्रहार इतना भीषण था कि मुगल सेना के पांव उखड़ गए, शत्रु सेना 6 कोस दूर तक भागी। मुगल सेना नायक मेहतर खान ने नगाड़े बजाकर यह झूठा ऐलान किया कि बादशाह स्वयं आ गया तब जाकर मुगल सेना के पांव टिके, हां उसके बाद का भीषण संघर्ष खमनोर के रक्त तलाई मैदान में हुआ, रक्त तलाई के इस भीषण संघर्ष में प्रताप का अद्भूत पराक्रम दिखा। मुगल सेनापति मानसिंह ने अपने हाथी के होदे बने छिप कर अपनी जान बचाई, प्रताप भी मुगलों से गिर गए, झाला मान ने अपने प्राणों की आहुति दे, उसकी जान बचाई, प्रताप को सुरक्षित चेतक उन्हें युद्ध मैदान से बाहर ले गया, चेतक ने अपना बलिदान दिया। रक्त तलाई में दिनभर चले संघर्ष में मुगलों के साथ-साथ मेवाड़ की भी बड़ी क्षति हुई, राजपूतों की एक पूरी पीढ़ी यहां खप गई, ग्वालियर वालों की तीन पीढ़ियों ने एक साथ बलिदान दिया, भीलों सहित हर वर्ग का बलिदान हुआ। दिनभर के इस अनिर्णीत युद्ध के बाद, प्रताप की सेना कोल्यारी पहुंची तो मुगल सैनिकों ने आज जो बादशाही बाग कहलाता है पड़ाव किया। तात्कालिक रूप से यह युद्ध अनिर्णीत ही समाप्त हुआ था। प्रथम मोर्चें पर मेवाड़ी सेना भारी पड़ी तो दूसरे दौर में मुगल भारी पड़े।
हल्दी घाटी युद्ध एक मूल्यांकन – यदि मुगलों के हल्दी घाटी अभियान की व्याख्या की जाए तो हल्दी घाटी युद्ध उनकी विफलताओं का स्मारक है, आइए, आइए इसका आकंलन करते हैं।
- लेने आए थे प्रताप का सिर लेकर गए एक हाथी – अकबर का युद्ध अभियान अपने उद्देश्य में विफल रहा। अकबर प्रताप को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार चाहते थे, वे प्रताप को अधीन व गिरफ्तार करने में विफल रहे, हाँ एक रामप्रसाद हाथी को कैद करने में जरूर सफल रहे, हाथी को फतहपुर सिकरी अकबर को ले जाकर भेंट किया, उसका नाम वहां राम प्रसाद से पीर प्रसाद किया। कहा तो यहां तक जाता है कि वह भी प्रताप का इतना स्वामी भक्त था कि उसने अन्न जल तक का परित्याग कर दिया, अपने प्राण त्याग दिए।
- प्रताप के लिए हल्दी घाटी युद्ध एक स्वातंत्र्य समर था, लेकिन मुगलों के लिए वो एक मजहबी युद्ध था। हल्दी घाटी युद्ध में मुगल इतिहास लेखक बदयुनी साथ था, वह अपने सेनापति आसिफ खान से पूछता है, दोनों तरफ राजपूत सैनिक एक वेशभूषा में हैं, पहचान नहीं हो रही किस पर तीर चलाएं। आसिफ खान कहता है कि तुम तो तीर चलाए जाओ, कोई भी मरे, जीत तो दीन की ही होगी।
- हल्दी घाटी युद्ध के बाद मुगल सेना की दुर्दशा – हल्दी घाटी युद्ध उपरान्त छिपते-छिपाते मुगल सेना गोगुन्दा पहुंची तो वह प्रताप से इतनी भयभीत थी कि पहले तो अपनी सुरक्षा के लिए गोगुन्दा दुर्ग के चारों ओर प्रहरी गहरी खाई खुदवा दी, फिर ऊंची ऊंची दिवार चुनवा दी। सेना उसमें कैदियों की भांति अपना गुजारा करने लगी। अपना गुजारा कैसे करे तो पहले उस क्षेत्र में बहुतायत से उपलब्ध आम खाए। कच्चे आम खाने से सैनिकों को पेचिश हो गई। काफी सैनिक पेचिश से मरे। आम खत्म होने पर क्या खाए तो अपने घोड़े मारकर खाए। घोड़ों का सड़ा मांस भी खाया। उसने सैना हैजे का शिकार हो गई, उससे भी काफी सैनिक मारे गए। जितने सैनिक हल्दी घाटी प्रत्यक्ष युद्ध में मारे गए, उससे भी ज्यादा पेचिश व हैजे का शिकार होकर मरे।
- जब ये जान बचा कर सितम्बर माह में फतहपुर शिकरी की तरफ बढ़ रहे थे तो बदायुनी लिखता है कि जब ये लोग कह रहे थे कि हमने प्रताप को हरा दिया तो एक भी व्यक्ति इनकी बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं होता था, कि प्रताप हार भी सकते हैं।
- मानसिंह व आसिफ खान की डयोढ़ी बन्द करना – जब सेनापित मानसिंह व आसिफ खान फतहपुर सिकरी पहुंचे तो उनकी विफलता पर अकबर इतना कुपित हुआ कि 6 माह तक इनका दरबार में प्रवेश वर्जित कर दिया।
- अकबर का स्वयं मेवाड़ अभियान पर आना – हल्दी घाटी युद्ध की विफलता एक और प्रमाण यह है कि स्वयं अकबर को अक्तूबर- नवम्बर 1576 में प्रताप के विरूद्ध अभियान पर आना पड़ा।
- हल्दी घाटी युद्ध के बाद भी सम्पूर्ण मेवाड़ में शासन प्रताप का ही था, हल्दी घाटी युद्ध उपरान्त जमीनों के पट्टे, परवाने, ताम्र पत्र सब प्रताप के नाम से ही जारी होते रहे।
- खरसान मंदिर व जगदीश मंदिर पर स्थित शिलालेखों में हल्दी घाटी युद्ध में प्रताप को विजेता माना है।
हल्दी घाटी युद्ध हमारे प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप के मुगलों के विरूद्ध संघर्ष का एक कीर्तिदायक प्रारम्भ था, उन्होंगे आगे चलकर मुगलों के विरूद्ध लगभग छोटे-बड़े 40 युद्ध लड़ें, जिसमें गोगुन्दा, मोही, कुम्भलगढ़, डूंगरपुर के युद्ध उल्लेखनीय है, इस संघर्ष की अन्तिम परिणति विजेता के रूप में दिवेर युद्ध में हुई। इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा का कथन उद्धृत कर इस लेख को समाप्त करता हूँ।
“हल्दीघाटी युद्ध प्रताप के संघर्ष का विजयशाली प्रारम्भ है तो इसको उत्कर्ष दिवेर के युद्ध में मिला।”
(लेखक महाराणा प्रताप विजय स्मारक संस्थान, दिवेर (मैराथन ऑफ मेवाड़) के संस्थापक महामंत्री है।)
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