✍ गोपाल माहेश्वरी
गुरु की सच्ची पूजा उनके आदर्शों पर चल दिखलाना।
अवसर हो यदि बलिदानों का हँस कर जीवन पुष्प चढ़ाना।।
बचपन ही तो संस्कारों को बोने की सर्वोत्तम ऋतु होती है। जब आवश्यकता राष्ट्र की हो तो कोई सच्चा शिक्षक कैसे अपने छात्रों को देशभक्ति के पाठ पढ़ाने से चूके? स्वतंत्रता के समर में ऐसे योग भी कम न थे जो नई पीढ़ी को राष्ट्रीयता के पाठ सिखाने के हर संभव उपायों में लगे थे। यह कार्य स्वयं बलिदान होने से भी अधिक महत्त्व का है क्योंकि देशभक्तों की नई पीढ़ियाँ तैयार करने का प्रयत्न होता है। अंग्रेज तो शिक्षा को भी अपनी कूटनीति का एक शस्त्र बनाकर उपयोग करते थे पर उस समय भी ऐसे शिक्षकों की कमी न थी जो शत्रु को उसी की पद्धति से परास्त करना जानते थे। यही कारण था कि ऐसी पाठशालाएँ भी अंग्रेजी कुशासन का कोपभाजन बनती थीं।
राजस्थान के डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव की यह भी एक ऐसी ही प्राथमिक पाठशाला थी। पास ही वनवासी भीलों की छोटी बस्ती थी। अचानक शांतिपूर्वक चल रही पाठशाला के प्रांगण में पुलिस जीप के धड़धड़ाते हुए घुसने और ब्रेक लगाने की कर्कश आवाज सुन कर सब चौकन्ने हुए। यह आवाजें आम भारतीयों के लिए ‘अब अत्याचार होने वाले हैं’ की सूचना होती थी। अंग्रेजों को अत्याचार करना हो तो अपराध होना आवश्यक नहीं, वह तो वे कहीं से भी ढूंढ सकते हैं।
प्रधानाध्यापक अपने साथी शिक्षक नाना भाई और सैंगा भाई के साथ आशंकित मन से बाहर आए तो जिला मजिस्ट्रेट को जीप से उतरते पाया। कुछ पूछते-समझते, उसके पूर्व ही “कल से यह शाला बन्द” का आदेश सुना दिया गया। कारण बताया गया कि शाला में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध भड़काने वाली बातें सिखाई जाती हैं। वस्तुतः नाना भाई और सैंगा भाई द्वारा अपनी कक्षा में स्वतंत्रता की चेतना जगाने वाली बातों से बच्चों को संस्कारित करने की शिकायत किसी अंग्रेज भक्त ने पहुँचाई थी। बस इतना बहाना बहुत था शाला बन्द करने के लिए।
सैंगा भाई समझाने के लिए बोले “हम तो शाला के मालिक नहीं, नौकरी करते हैं। हम इसे बन्द करने का निर्णय कैसे ले लें?”
“तुम हमें सिखाओगे?” मजिस्ट्रेट क्रोध में जल रहा था, “बांध दो इस मास्टर को जीप के पीछे।” सिपाही आगे बढ़ते, तभी नाना भाई सामने आ गए “खबरदार जो इन्हें हाथ भी लगाया…” अभी बात भी पूरी न हो पायी थी कि बन्दूकों की मूठें उनके सिर पर धड़ाधड़ पड़ती गईं। वे अचेत हो गए।
सैंगा भाई को जीप के पीछे बांध जाने लगा। सारी पाठशाला सहमी हुई भय से काँप रही थी। तभी छात्रों में से तेरह बरस की काली बाई तीर की तेजी से जीप के आगे आ खड़ी हो गई। “इन्हें छोड़ो। मेरे जीते जी मैं अपने मास्टर जी को न ले जाने दूँगी।” साहस की पुतली इस नन्ही बालिका को सिपाही ने थप्पड़ मार कर हटा दिया। कालीबाई तो जैसे साक्षात् कालीमाता बन गई थी। दौड़कर शाला के आँगन से घास काटने की दरांती लेकर मास्टर जी की रस्सी काट डाली। मजिस्ट्रेट अपना आपा खोकर खीज उठा। उसने पिस्तौल की एक ही गोली से काली बाई को गिरा दिया। नन्ही बच्ची अपने रक्त से अपनी मातृभूमि को अर्घ्य चढ़ा कर सदा के लिए अमर हो गई थी। अपने शिक्षक के सिखाए पाठ को उसने चरितार्थ कर दिखाया था।
बलिदान व्यर्थ नहीं जाता। इस घटना का समाचार जंगल की आग की तरह चारों ओर फैला तो मजिस्ट्रेट ने अपने सिपाहियों सहित स्वयं को उग्र भीड़ से घिरते देखा। वहाँ से दुम दबाए भाग जाने के अतिरिक्त उसे अपनी प्राण रक्षा का कोई उपाय न सूझा।
‘अंग्रेजी हुकूमत मुर्दाबाद’, ‘कालीबाई जिन्दाबाद’, ‘भारत माता की जय’ कालीबाई की शवयात्रा में अपार जनसमूह के उद्घोष आसमान भेदते प्रतीत हो रहे थे। कालीबाई का बलिदान जागृति की नई लहर उठा गया।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
और पढ़ें : सात बरस का रघुनाथ भी