✍ गोपाल माहेश्वरी
होता नहीं शस्त्र कोई भी जो साहस पर भारी हो।
उम्र कहाँ बाध बनती है जब मन की तैयारी हो।।
भक्ति भगवान की हो या राष्ट्र की सच्ची लगन जाग जाए, तो आयु कभी बाध नहीं बनती। जिन्हें कुछ कर गुजरना होता है वे बड़े होने की प्रतीक्षा में नहीं बैठे रहते। यह घटना ऐसे ही एक वीर बालक की है जिसकी वय थी मात्र सात वर्ष, पर उसने वह कर दिखाया जो कायर लोग सात जन्मों में भी नहीं कर पाते हैं।
महाराष्ट्र का महानगर मुंबई। दिनांक 22 फरवरी सन् 1946 समय रात्रि के लगभग बारह बजे। सात वर्षीय बालक रघुनाथ को नींद नहीं आ रही थी। दो दिन हो गए थे पिता से मिले। वे देर रात घर आते और बड़े सवेरे पौ फटने के पहले ही फिर चले जाते। बच्चा जान चुका था, वे पैसा कमाने नहीं देश की आजादी कमाने जाते हैं।
यह वह समय था जब आजाद हिन्द सेना के बड़े अधिकारियों पर अंग्रेजी शासक मुकद्दमे चलाकर न्याय का ढोंग कर रहे थे। इधर आजाद हिन्द फौज की क्रान्ति की ज्वालाएँ भारतीय नौसैनिकों के हृदय धधका चुकी थीं। आजादी के रणबाँकुरों आजाद हिन्द फौजियों पर से मुकद्दमें वापस लेने का प्रचण्ड आग्रह नौसैनिकों की हड़ताल के रूप में प्रकट हो रहा था। मुम्बई से उठी यह गूंज कोचीन, कराची, विशाखापट्टनम, मद्रास और कोलकाता तक शंखनाद बन फैल चुकी थी। सामान्य जनता भी अपने सैनिकों के साथ आ खड़ी हुई थी। सैनिकों का समर्थन गली-बाजारों में क्रुद्ध नागरिकों की भारी भीड़ के रूप में निकल पड़ा था। गोलियाँ बरस रहीं थी पर उन्हें लगता था मानो फूल बरस रहे हैं।
अंग्रेजी घेराबंदी में अपने सैनिक भूखे न रहें इसलिए आसपास के व्यापारी खाने-पीने का सामान ग्राहकों को न बेच कर बिना पैसा लिए सैनिकों तक पहुँचा रहे थे। बालक रघुनाथ के पिता श्रीदेव पाण्डुरंग भी इसी कार्य में जुटे थे।
“आप हर दिन देश की आजादी के लिए लड़ रहे सैनिकों की सहायता के लिए जाते हैं न?” उसने आधी रात घर लौटे पिता से पूछा। “हाँ। लेकिन तुम सोए क्यों नही अभी तक?”
“माँ बताती है कि देश की आजादी के लिए तो सबको सहायता करनी चाहिए। सही है न?”
“हाँ सही कहती है वह।”
“तो कल मैं भी आपके साथ चलूँगा, आजादी का काम करने।”
देशभक्त पिता इसका क्या उत्तर दे सकते थे! बालक को सोने को कहकर बात को टालना चाहा। वे जानते थे इतना छोटा बच्चा क्या सहायता करेगा। अगले दिन वे बड़े सवेरे चुपचाप घर से निकल गए। आज जिस जुलूस की योजना थी उसमें बड़ी संख्या में छात्र शक्ति भी सम्मिलित थी। जुलूस चिंचपोकली ब्रिज की ओर किसी से न रुकने वाली बाढ़ की तरह बढ़ रहा था। आजादी के नारे मानो आसमान को भेद रहे थे।
श्रीदेव को छात्रों की उस टोली में रघुनाथ भी दिखा। वे सुखद आश्चर्य में डूब गए। इतना तो जानते थे कि आजादी की आग एक बार जग जाए तो बुझती नहीं। वह उनके पुत्र के मन में भी जग चुकी है, यह तो उन्हें प्रसन्न ही कर रहा था। उनका संकोच था तो बस उसकी छोटी सी अवस्था को लेकर।
रघुनाथ छोटा था पर संभवतः पिता के मन को रात को ही पढ़ चुका था कि वे उसे शायद ही साथ ले जाएँगे। सोने का तो नाटक किया था। पिता के घर से निकलते ही वह उनके पीछे चल पड़ा था और आ मिला था इन स्वतंत्रता के दीवाने छात्रों की टोली में।
धंय-धंय-धंय। ब्रिज पर जुलूस का स्वागत अंग्रेजों की बन्दूकों ने किया। कुछ वहीं प्राण गँवा कर अमर हो गए। एक गोली रघुनाथ के पेट में जा धंसी। इतना रक्त बह चुका था कि चिकित्सक भी उसे बचा न सके। 25 फरवरी 1946 को सात साल का यह नन्हा सपूत स्वतंत्रता की देवी के चरणों में सदा के लिए सो गया।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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