समरसता की सुधा

✍ गोपाल माहेश्वरी

सुधांशु पाठक सायं चार बजे अपना कुर्ता पायजामा पहने कांधे पर झोला लटकाए अकेले निकल पड़ते अपने विद्या मंदिर की गोद ली सेवाबस्ती के संस्कार केंद्र तक। वैसे तो यहां के बच्चों को पढ़ाने सिखाने समझाने एक नई दीदी  नियुक्त थीं पर सुधांशु जी अपनी सबको प्रिय लगने वाली अनौपचारिक उपस्थिति अवश्य देते थे। कभी खेलते बच्चों का झगड़ा सुलझाते, कभी उनके धूलसने कपड़े झाड़ते तो कभी उनके बनाए विचित्र चित्रों या उनकी लिखावट की प्रशंसा करते। उनका कांधे पर रखा गमछा न जाने कितनी बार बच्चों का पसीना और कभी-कभी बात-बे-बात निकल पड़ने वाले ऑंसू या सर्दियों में बह रही नाक तक पोंछ देता था।

एक दिन संस्कार केन्द्र की इस नई शिक्षिका माधुरी ने सहज ही पूछ लिया था “दादाजी! अब तो आप सेवानिवृत्त हो चुके हैं फिर प्रतिदिन क्यों आते हैं?” “क्यों ,तुम्हें अच्छा नहीं लगता?” वे मुस्कुराते हुए बोले। भावुकता से माधुरी की ऑंखें छलछला उठीं “दादाजी! आप ऐसा सोचिए भी मत कि मुझे बुरा लगेगा।” उसके हाथ सहज ही जुड़े गए थे। “मुझे तो अभी यहाँ आए कुछ दिन ही हुए हैं। आपसे परिचय नहीं पर आप बिल्कुल मेरे आचार्य जी जैसे लगते हैं।” पलभर मौन हो उसने कहा बस आपकी अवस्था देखकर पूछ लिया था, वैसे मुझे ऐसे नहीं पूछना चाहिए था…।” जैसे वह अपने आप से कह रही थी।

सुधांशु जी ठहाका लगाकर हॅंस पड़े।

“ओ हो ! तुमने कहा मैं तुम्हारे आचार्य जी जैसा लगता हूँ इसका अर्थ है तुम सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ी हो ,है न?”

“आप भी शिशु मंदिर से हैं?” माधुरी के स्वर में सुखद आश्चर्य भर उठा था। “तभी मुझे लगा आप मेरे आचार्य जी जैसे हैं” वह चरण-स्पर्श करने झुकी।

थोड़ी देर पहले का अपरिचय अब एक अनजानी गहराई वाली आत्मीयता का अनुभव कर रहा था, लेकिन बच्चों के कोलाहल में बात आगे न बढ़ी‌।

“अपने शिशु मंदिर की रीति है, परिचय पक्का नहीं होता जब तक घर पर जाकर संपर्क न हो। है न? मैं पास ही रहता हूँ। संस्कार कुटीर, कोने पर नीम के नीचे वाला घर। कल दुपहर को आ सकती हो अपने दादाजी के घर?”

“जी अवश्य आऊॅंगी।” माधुरी ने झुककर प्रणाम किया।

अगले दिन सुधांशु जी अपनी बगिया के ताजे नींबू से बना शरबत लिए प्रतीक्षा ही कर रहे थे जब माधुरी आई।

“आओ बेटी! पीछे बगिया में बैठेंगे।” वे बगिया में जामुन के घने वृक्ष की छाया में डली कुर्सियों पर बैठे ही थे कि किसी ने द्वार खटखटाया।

माधुरी उठने लगी “मैं खोलती हूँ दरवाजा।”

“ना, वह खुला ही है। शौचालय की सफाई करने कमला आई है।” सुधांशु जी ने विश्वासपूर्वक बताते हुए बाहर को ओर मुँह करके तनिक ऊॅंचे स्वर में कहा “आ बेटी! सौ बार समझा चुका हूँ, तुझे दरवाजा खटखटा कर आने की क्या आवश्यकता  है?”

आने वाली कमला के गहरे काले मुखड़े पर झक् सफेद बत्तीसी ऐसे खिल उठी जैसे अमावस्या की रात में अचानक अष्टमी का चंद्रमा निकल पड़ा हो।

सुधांशु जी से राम-राम करते हुए वह शौचालय की ओर बढ़ी तो सुधांशु जी ने बनावटी क्रोध दिखाते हुए कहा “घर में मेरी बेटी पहली बार आई है और तुझे शौचालय झाड़ने की पड़ी है। पहले इधर आ।” उनके स्वर में आत्मीयता का अधिकार था।

कमला सीकों वाली झाड़ू रखकर साबुन से हाथ धोए और अपने ऑंचल से पोंछने ही वाली थी कि फिर डाट पड़ी “गमछा रखा है साथ पौंछने के लिए।” कमला ने कान पकड़कर त्रुटि सुधारी फिर हाथ पौंछकर प्रश्नात्मक दृष्टि से पास आ गई।

“नींबू का शरबत तो मैंने बना लिया है, अब इसी से काम चलाना है या तेरे पास समय है थोड़ा-सा?”

“दो घर और जाना है।” कहते-कहते कमला सीधे रसोई में जा घुसी तो माधुरी को बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसा लगा ही नहीं कि कमला उस रसोई से अपरिचित थी।

“पांच मिनिट बैठो बेटी! उसे भी दो घर और जाना है, उसकी थोड़ी सहायता कर दूं।”

माधुरी ने कहा “मैं करवाती हूँ न?”

वह रसोई की ओर बढ़ी तो सुधांशु जी ने टोका “उधर नहीं। उधर वह सम्हाल लेगी।” वे शौचालय की ओर बढ़ चुके थे।

कमला की झाड़ू उठाई और स्वच्छता आरंभ। पलभर ठिठकी माधुरी ठाकुर, हाँ यही था उसका पूरा नाम। फिर उससे रहा न गया और वह सुधांशु  जी के हाथों शौचालय में फिरती झाड़ू के पीछे-पीछे पानी डालने लगी।

“देखना ठीक से हो जाए नहीं तो भाभी जी पहचान लेंगी।” कमला का स्वर रसोई से फूटा था। भाभी जी वह सुधांशु जी की पुत्र वधु को कहती थी।

वैसे तो शौचालय सुधांशु जी स्वयं भी स्वच्छ करने में कोई हिचकिचाहट नहीं रखते थे लेकिन कमला की आर्थिक स्थिति ठीक न थी। इसकी माँ सुधांशु जी के विद्यालय में ही स्वच्छता का दायित्व सम्हालती थी। पर बुरी आदतों का शिकार कमला का पिता कमला की माँ के अचानक स्वर्गवासी हो जाने पर अपने जीते जी ही उसे अनाथ-सा रखने लगा। दसवीं की परीक्षा का अंतिम प्रश्नपत्र शेष ही था जब कमला की माँ उसे अकेली बना गई। कमला पूरक परीक्षा देकर ही उत्तीर्ण हो सकी थी। तब इसे स्वावलंबी बनाने के लिए पाठक जी ने आवश्यकता न होते हुए भी काम पर रख लिया था। अकेले एक घर काम करके काम नहीं चल रहा था तो सुधांशु जी ने एक दो परिचित घरों में और बात की। लेकिन वहां उसे परंपरागत स्वच्छता के अतिरिक्त काम न मिला। सुधांशु जी उन गृहस्वामियों को तो नहीं समझा पाए पर अपने घर में कभी भी उसे मात्र स्वच्छताकर्मी जैसा न लगने दिया। सब उसे कमली-कमली या कोई-कोई काली कहकर बुलाते पर सुधांशु जी इस बात का विरोध करते कहते “किसी का नाम मत बिगाड़िए वह कमला है उसे कमला ही बुलाइए।”

“आपने सुना कि नहीं?” सुधांशु जी प्रत्युत्तर न पाकर कमला ने ही हॅंसते हुए छेड़ा।

“तू अपना ध्यान पकौड़ों पर ही दे ले नहीं तो तेरी भाभी जी पहचान लेंगी।” सुधांशु जी ने वैसा ही उत्तर दिया तो माधुरी अपने पिता से होने वाले संवादों की ऐसी ही नोंक-झोंक वाली शैली यादकर मुस्कुरा पड़ी।

बगिया में मेज पर दो प्लेटों गर्मागर्म पकौडे़ आ चुके थे। हाथ-पैर धोकर माधुरी और सुधांशु जी कुर्सियों पर बैठ गए।

दो ही प्लेट देखकर माधुरी ने संकोचमय आश्चर्य से कमला की ओर देखकर पूछा “आप, मेरा मतलब है तुम नहीं खाओगी?” कभी किसी और कारण से किन्हीं कमलाओं को तुम कहने वाली माधुरी आज किसी और ही कारण से आप न कह कर उसे तुम कह बैठी थी। यह सब सोचकर नहीं होता सहज ही होता है उसे एक अलग ही अनुभव हुआ। इस तुम में तिरस्कार कहाँ? अपनत्व ही अपनत्व छलक रहा था।

“यह भी खाएगी तो इसकी प्लेट क्या मैं साफ करूंगा?”सुधांशु जी के मुख से यह सुनकर माधुरी अवाक् रह गई, लेकिन यह आश्चर्य तुरंत फुर्र भी हो गया जब सुधांशु जी के हाथों में पकड़ा मिर्च का पकौड़ा उनके मुंह में जाने से पहले ही झपटा जाकर कमला के दांतों ने कुतर लिया। मिर्च तीखी थी वह तुरंत सी-सी करने लगी माधुरी ने अपना शरबत का ग्लास उसकी और बढा़ दिया।

कमला ने एक घूंट पिया फिर हॅंस कर बोली “पकौड़ों के साथ चाय पीते हैं शरबत नहीं।” चार पकौड़े हाथ में उठाए “अच्छा राम-राम, मुझे बहुत काम है। मैं तो चली।” कहते-कहते वह चिरैया-सी उड़ चुकी थी। जैसे हवा का एक झौंका सबको महकाते हुए गुजर गया हो।

“पकौड़ों के साथ शरबत” सुधांशु जी हॅंसते हुए बुदबुदाए।

माधुरी उठी “मैं बना लेती हूँ चाय।”

“नहीं, आज शरबत ही पी लो, इस पेड़ को जिसके नींबू का रस पड़ा है इसमें, उसे दुःख होगा। वह देखो वह हमारी ओर ही देख रहा है।” वे सामने लगे नींबू के पेड़ की ओर संकेत करके बोले।

माधुरी भी हिन्दी साहित्य और समाजशास्त्र की छात्रा रही है उसने कई कविताऍं पढ़ीं थीं, समाजशास्त्र के अनेक सिद्धांत भी रटे थे, पर आज वह समाजशास्त्र की अलग ही कविता अनुभव कर रही थी।

उसने कलाई पर बंधी घड़ी देखी तो सुधांशु जी उठते हुए बोले “संस्कार केन्द्र का समय हो रहा है न? चलो बाकी बातें चलते-चलते।” दोनों उठ खड़े हुए। माधुरी ने खाली प्लेट व ग्लास रसोई में लगी सिंक में रखे। संस्कार केन्द्र जाते हुए बातों का तारतम्य अबाध ही रहा।

लौटते समय कमला का झुग्गी जैसा कच्चा घर पड़ता था। वे वहां से गुजर ही रहे थे कि अचानक दरवाजे से फुदक कर कमला बाहर आकर उनके बहुत पास से बोली “भौं” फिर खिलखिला कर बोली “क्यों? डर गए न दोनों?”

सबकी हंसी थमते ही वह बोली “चाय तो पी नहीं होगी? नहीं पी न? झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे साॅंप है।” सब फिर हॅंस पड़े।

सुधांशु जी ने केवल सिर हिला कर उत्तर दिया कि चाय पी तो नहीं। कमला दोनों को हाथ पकड़ कर अंदर ले गई।

बिना दूध की कालीचाय पीते हुए माधुरी सोच रही थी उसे लगा वह एक जीवित संस्कार केन्द्र के साथ बैठी है। जाते हुए वह कमला से ऐसे लिपट पड़ी जैसे बरसों बाद सगी बहनें मिल रही हों।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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