✍ गोपाल माहेश्वरी
वैदिक अपने विद्यालय की एटीएल यानी अटल टिंकरिंग लेब से निकलते हुए किसी गहरे विचार में इतना डूबा हुआ था कि अपने सहपाठियों के समूह से पीछे रह गया। उसको सबसे पीछे अकेला चलते देख पीछे आ रही उसकी विज्ञान शिक्षिका चेतना ने धीरे से उसके कांधे पर हाथ रखा तो जैसे वह नींद से जागा हो “ अं …हाँ… कुछ नहीं। मैं बस जा रहा था।”
चेतना जोर से हँस पड़ीं “मैंने तो कुछ पूछा ही नहीं। मैं देख रही हूँ तुम जा रहे हो……”फिर एक पल का अंतराल लेकर अपना वाक्य बढ़ाया “…… एक रोबोट की तरह।”
“रोबोट की तरह!” वैदिक चौंका।
“और क्या? अच्छा छोड़ो यह सब तो। बताओ किस विचार में डूबे हो?” चेतना जानती थीं वैदिक एक होनहार विद्यार्थी है।
वैदिक अब थोडा़ सहज था । चेतना उसकी शिक्षिका थीं पर अपने विद्यार्थियों की जिज्ञासा जानने समझने और हल करने में एक बहुत अच्छी मित्र बनकर उनमें घुल-मिल जाती थीं। उनका किराए के दो कमरों वाला घर विद्यालय के परिसर में ही था जिसके एक कमरा केवल पुस्तकों से भरा हुआ था। दरवाजा छोड़कर चारों दीवारें पुस्तकों की खुली अलमारियों से छुपी हुई थीं। किसी भी विद्यार्थी के लिए ये पुस्तकें कभी भी उपलब्ध थीं पर आशा और अपेक्षा के विपरीत यहां आते गिने-चुने ही बच्चे थे।
“आओ वैदिक! थोड़ी बातें करेंगे।” यह वाक्य आदेश, आग्रह, अनुरोध, आमंत्रण, अवसर क्या था कहना सरल नहीं, पर इसे अस्वीकार करना असंभव था। वैदिक चेतना के घर में प्रवेश कर गया। देखा ऋचा वहाँ पहले ही उपस्थित थी। चेतना के द्वार पर कभी ताला नहीं लगता था और विद्यालय बंद रहने पर भी यह स्वाध्याय मंदिर खुला ही रहता था। “अच्छा ,चेतना है” स्नेहमय स्वागतीय स्वर में चेतना ने कहा “मिला ऋचा जो चाहिए था तुम्हें?”
“अभी तो नहीं, पर मिलेगा अवश्य। यहीं कहीं है वह पुस्तक जिसमें वह हो सकता है।” ऋचा ने विश्वासपूर्वक कहा।
“लगी रहो, वैज्ञानिक वही होता है जो अपनी खोज निरंतर रखता है।” चेतना ने कहा।
तभी द्वार पर किसी के आने की आहट से सबका ध्यान उधर गया। अगले ही क्षण आगंतुक की छवि स्पष्ट होते ही पहले चेतना फिर वैदिक व ऋचा ने भी उनके चरण स्पर्श किए। प्रौढ़ अवस्था के आगंतुक सज्जन ने धोती-कुर्ता पहना हुआ था सप्तक पर चंदन का टीका आँखों पर ऐनक, शांत मुखमंडल पर मंद हँसी। वे चेतना के पिताजी थे। आयुर्वेद के विशेषज्ञ चिकित्सक, लेकिन किसी चिकित्सालय की अपेक्षा अपना समय नई पुरानी औषधियों की खोज में डूबे रहते। अपने क्षेत्र के पत्ते-पत्ते के गुणों से परिचित, जड़ी जड़ी के जानकार।
“पिताजी! ये मेरे सहपाठी विद्यार्थी हैं यह है वैदिक और यह है ऋचा है।” चेतना ने परिचय करवाया। वैदिक चौंका “सहपाठी!? हम तो आपके विद्यार्थी हैं और आप हमारी शिक्षिका।”
चेतना ने मुस्कुराते हुए पिताजी का परिचय देकर बच्चों के आश्चर्य को और गहरा दिया। वह बोली “और यह हैं मेरे एक और सहपाठी श्रीमान् अश्विनी कुमार जी।”
लेकिन ये तो आपके पिताजी हैं न! गतवर्ष भी तो मिले थे शरद पूर्णिमा के आसपास, कुछ दिन रुके थे। हमने दीपावली के दो दिन पहले धन्वंतरि पूजा की थी।” ऋचा ने अपनी तेज स्मरण शक्ति का परिचय दिया।
“हाँ, ऋचा ये कुछ वर्षों से यहाँ इसी समय आते हैं।” चेतना ने बताया। वह देख रही थी वैदिक अपनी सहपाठी वाली जिज्ञासा का उत्तर न मिलने से आतुर था। बिना समझे आगे बढ़ना न चेतना के विद्यार्थी जानते थे, न बच्चों के किसी प्रश्न को टाल जाना चेतना का स्वभाव था। लेकिन वह कभी-कभी तुरंत उत्तर न देकर बच्चों की जिज्ञासा को पकाती थीं, इससे बच्चों की स्वयं सोचने की प्रक्रिया भी तेज होती थी।
“इस क्षेत्र में इन्हें कुछ विशेष वनस्पतियां दिखाई दीं बस तभी से उनका अध्ययन करने आते हैं।” चेतना ने कहा।
“ओह! क्षमा करें मैं समझा अपनी बेटी के साथ दीपावली मनाने आते हैं।” वैदिक ने कहा तो चेतना के साथ अश्विनी कुमार जी भी हँस पड़े।
“बिलकुल ठीक कह रहे हो वैदिक! मनाने तो दीपावली ही आता हूँ पर जरा अलग प्रकार से। जानना चाहोगे कैसे?” वे बोले तो दोनों बच्चे उनके आसपास जम गए।
“बताइये न दादाजी!” दोनों एक साथ बोले। चेतना सबके लिए अल्पाहार ले आई।
अश्विनी कुमार जी ने बताना आरंभ किया। “देखो दीपावली होती है कार्तिक माह की अमावस्या को यानि इस समय ठंडी काली रात होती है लेकिन हम भारतीयों को यह स्वीकार नहीं इसलिये वे प्रकाश के लिए दीपक जलाते हैं और अंधेरी अमावस्या को बना लेते हैं आलोक का त्यौहार। वैसे ही हमारे राष्ट्र की ज्ञान परंपरा के आकाश से परतंत्रता और प्रमाद के कारण प्रकाश खो गया बस कुछ तारे टिमटिमा रहे हैं जैसे।”
“परतंत्रता तो समझ आया पर प्रमाद क्या?” ऋचा ने टोका।
“हाँ, प्रमाद क्या?” वैदिक ने भी जोड़ा।
“प्रमाद यानी आलस्य, किसी काम को टालते रहना, उपेक्षा करना।” वे भाव स्पष्ट कर रहे थे।
“परतंत्रता तो बाहर से आती है पर प्रमाद तो हमारे अंदर ही बैठा होता है।” चेतना कह रही थी।
“परतंत्रता का घाव तो सन् 1947 में भर गया पर उसकी चोंट की पीड़ा पूरी मिटी नहीं। और हमारा प्रमाद वह तो अधिकांश लोगों में स्वभाव में पैर पसारे जमा ही रहा। अपना ज्ञान भूले परायों की प्रगति पर ललचाते रहे। भारतीय ज्ञान विज्ञान की परंपरा क्षीण होती गईं ।” उनके स्वर में वेदना थी। “बस सनातन ज्ञान के स्वाभिमानी साधक के नाते उसी खोये हुए प्रकाश की खोज में अनुसंधान करते नन्हे नन्हे दीप जलाकर दीपावली मनाते हैं हम। अपनी बात कहूँ तो दीपावली के पहले विजयादशमी के बाद आने वाली शरद पूर्णिमा तक वर्षा ऋतु में ऊंगली वनस्पतियां पकने लगती हैं फिर धीरे-धीरे की अपना जीवन चक्र पूरा कर लुप्त भी होने लगती हैं। बस अपनी सहपाठी के साथ उन्हीं की खोज करने मैं इधर चला आता हूँ।”
अश्विनी कुमार जी की बात में सहपाठी शब्द आते ही वैदिक बिना चूके बोल पड़ा।” सहपाठी कौन? आप तो अकेले हैं।”
“ये चेतना है न मेरी सहपाठी।” वे हँसे।
“साथ-साथ अध्ययन करने वाले सहपाठी ही होते हैं न? जैसे मैं और तुम दोनों।” चेतना ने भी मुस्कुराकर कहा।
“अच्छा! सहनाववतु सह नो भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै। आपने समझाया था एक बार हम गुरु-शिष्य एक दूसरे की रक्षा करें, साथ-साथ उपभोग करें और साथ साथ ही अध्ययनकार्य करें। यही बताना चाह रहीं हैं न आप?” वैदिक कुछ याद करते हुए बोला।
विज्ञान के विद्यार्थी के मुख से वैदिक मंत्र सुनकर आनंदित होते हुए चेतना ने कहा “हाँ, अनुसंधान के क्षेत्रों में तो यह और भी आवश्यक है। कहते हैं न भगीरथ सातवीं पीढ़ी के रूप में गंगा को धरती पर ला सके इसका मतलब सात पीढ़ी अपनी खोज अपने प्रयत्न अपनी खोजें अपनी अगली पीढ़ियों को देती रहीं समझाती रहीं और अगली पीढ़ियों ने उसे आगे बढ़ाया। इसीलिए ज्ञान के साथ शब्द परंपरा पर बल दिया गया है सनातन काल से अत्याधुनिक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक।”
“बस एक बात और” ऋचा ने पूछा।
“पूछो पूछो” चेतना व अश्विनी कुमार जी के मुख से एक साथ निकला।
“ये दादाजी वनस्पति विज्ञान के या यों कहें कि चिकित्सा वैज्ञानिक आपका प्रिय विषय रसायन विज्ञान रहा, आपने ही बताया था। मैं भौतिकी अधिक पढ़ती हूँ और अथर्व रोबोटिक्स में रुचि रखता है। जब हमारे विषय अलग-अलग हैं तो हम सहपाठी कैसे हो सकते हैं?” ऋचा गंभीरतापूर्वक बोली।
अश्विनी कुमार जी ने समझाया “अच्छा यह बताओ ये सब विषय क्या हैं?”
“विज्ञान की शाखाएं?” वैदिक बोला।
“उत्तर यहीं छुपा है। ये शाखाएं हैं तो पेड़ हुआ क्या?”
“विज्ञान।”
“और जीवित पेड़ की जड़ें आवश्यक होती हैं। जड़ से फल तक पेड़ एक ही है। जैसे जड़, तना, शाखाएं, पत्ते, फूल, फल, बीज एक-दूसरे से भिन्न दिखकर भी भिन्न नहीं वैसे ही ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्येताओं को परस्पर समन्वय सम्बन्ध बनाकर ही काम करना होता है। अपने विषय में विशेषज्ञता के लिए उस पर एकाग्रता आवश्यक है, पर समग्रता के लिए अन्य विषयों की समझ भी अनिवार्य है। कोई आविष्कार या अनुसंधान आपसी तालमेल के अभाव में परिपूर्ण फल नहीं दे सकता।”
चर्चा चल ही रही थी कि एक वनवासी युवक आता दिखाई दिया जिसे देखकर वे पिता-पुत्री उठ खड़े हुए। चेतना ने कहा “लो ये आ गए रामाजी भाई। बच्चों हमें इन्हीं के साथ जाना है कुछ वनस्पतियों को देखने समझने।”
“वनस्पतियों को खोजने?” वैदिक ने उत्सुकता से पूछा।
“हाँ, अनुसंधान न किए प्रयोग न किए तो वे औषधी के रूप में कैसे जानी जाएगी? तुम्हारी तरह उनमें भी तो कई गुण छुपे हैं। ये रामाजी भाई वनवासी हैं ये हमारे बहुत सहायक सिद्ध होंगे।” चेतना ने समझाया।
पिता-पुत्री कहीं जाने लगे तो ऋचा और वैदिक बोल पड़े “नए सहपाठियों को छोड़कर कहाँ चले?”
“तो चलो न। स्वागत है सहपाठियों!” ऋचा ने कहा। अश्वनी कुमार जी के हाथ वैदिक व ऋचा की पीठ पर थे। एक ही रास्ते पर तीन पीढ़ियां सहपाठी बनी जंगल में खोने चल पड़ीं कुछ खोजने के लिए। आगे आगे रामाजी पगडंडियों पर चले जा रहे थे। दीपावली अब शीघ्र ही आने वाली थी।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
और पढ़ें : समरसता की सुधा