✍ गोपाल माहेश्वरी
दिन के दस बज रहे थे। उद्यान में सुबह घूमने आने वाले लगभग सभी लोग जा चुके थे। दक्ष का अपने मित्रों के साथ यहीं मिलना तय था पर अभी तक कोई नहीं पहुंचा था। अकेला दक्ष को प्रतीक्षा करते-करते आधा घंटा बीत चुका था “जाने यह मनोज और गुंजन कहाँ रह गए।” बड़बड़ाते हुए वह वहीं घास पर टहलने लगा। तभी अचानक अमलतास के पेड़ से एक सूखी टहनी का छोटा टुकड़ा उसके ठीक सामने गिरा, खीज कर दक्ष ने उसे उठाया और क्यारियों की ओर ऐसे फैंका मानो कोई अस्त्र चलाया हो। गुलाब के कुछ फूल जो पलभर पहले मुस्करा कर पौधे पर झूल रहे थे इस प्रहार से पंखुड़ी-पंखुड़ी होकर बिखर गए। दक्ष ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। तभी एक गिलहरी दक्ष के पैरों को अपनी झबरीली पूंछ से छूते हुए निकल गई। विचित्र सी गुदगुदी ने उसे ऐसे चौंका दिया जैसे कोई सांप छू गया हो। दक्ष और चिढ़ गया। गिलहरी को इससे क्या अंतर पड़ने वाला था? वह दूसरी ओर की क्यारी में पौधे सींचने के लिए छोड़े गए पानी से अपनी प्यास बुझाने रुक गई। उस पर अनावश्यक ही गुस्सा दिखाते हुए दक्ष ने अपना जूता निकाला और उस पर मार दिया। वह तो फुर्ती से बच गई पर जूता गीली मिट्टी में सन गया। दक्ष ने अपने बाल नोच लिए। अब एक जूते से तो काम चलता नहीं इसलिए मिट्टी सना जूता उठाया और इधर उधर देखने लगा थोड़ी दूर एक कोने पर एक नल था उसी से पानी बहकर क्यारी में आ रहा था। दक्ष ने उसमें अपना जूता धोने की उतावली में उसको पूरा खोल दिया। नल घरेलू उपयोग के लिए तो था नहीं। अधिक खुलते ही पानी की मोटी धार से दक्ष पूरा भीग गया। उसने क्रोध से तिलमिला कर नल के नीचे रखा एक पत्थर उठाया और नल पर दे मारा। नल टूट गया। पानी तेजी से बहता रहा। दक्ष दनदनाता हुआ धूप में रखी एक बैंच पर बैठकर कपड़े सुखाने लगा। तभी मनोज और गुंजन क्यारियां फलांगते हुए पौधे कुचलते उसके सामने प्रकट हुए। वे दक्ष की दशा देखकर उसे चिढ़ाते हुए हँसने लगे।
“ये क्या हाल बना रखा है भाई! माली के पास काम सीख रहे थे क्या?” दक्ष को गुंजन का यह व्यंग्य चुभ गया उसने पलटवार किया “मेरी छोड़ो अपनी दशा देखो कहीं भीख मांगने निकले थे या किसी गैराज में काम करने गए थे?” सचमुच गुंजन के हाथ ग्रीस में सने थे और मनोज की शर्ट पेंट कुहनी व घुटनों पर फट चुकी थी। वे खिसिया गए। दक्ष ने उलाहना देते हुए पूछा “अच्छा पहले यह बताओ अभी तक थे कहाँ उड़ते पंछियों!”
“अब क्या बताएं तुझे?” मनोज ने कहना आरंभ किया। “घर से निकल ही रहा था कि आते-आते माँ ने कचरे की दो थैलियां थमा दीं बोलीं ‘गीला और सूखा अलग अलग-अलग हैं बाहर कचरा पेटी में अलग-अलग डालते जाना।’ घर से कचरा उठाने वाले काका आज जाने क्यों आए नहीं थे। मुझे तो देरी हो रही थी। मैंने सोचा कौन देखता है बस गली के नुक्कड़ पर दूर से ही दोनों थैलियां उछाल दीं। निशाना चूक गया और कचरा बाहर ही बिखर गया। गुंजन को लेकर मैं आंबेडकर चौराहा भी पार न कर पाया था कि पिताजी का फोन आ गया ‘अभी के अभी घर लौटो, इमरजेंसी है।’ इतना कहकर फोन कट। मैं घबराकर लौटा, रांग साइड थी पर मैंने बाइक तेज स्पीड से दौड़ा दी। सामने से एक बूढ़े पति-पत्नी आ रहे थे। मैंने हार्न बजाया तो वे घबरा गए बूढ़ी दादी का पैर एकदम से नाली में चला गया और वे गिर पड़ीं। खैर, मैंने ध्यान ही नहीं दिया और घर पहुँचा तो वहाँ अलग ही तमाशा दिखा। मेरे फेंके कचरे की थैली में रात को आनलाइन मंगवाए सामान का रेपर भी था जिससे मेरे घर का पता ढूंढते हुए नगर-निगम कर्मचारी मेरे घर चालान लेकर पहुंच गया था। “लो बेटा! अपनी करनी का दण्ड तुम ही भरकर आना नगर निगम अभी के अभी, समझें?।” पिताजी क्रोध में उबल रहे थे। चालान पर्ची लेकर नगर निगम पहुंचा। वहाँ लंबी कतार लगी थी। पार्किंग वाला निश्चित स्थान पर गाड़ी लगाने के लिए पुकारता रहा मैंने तो गुंजन को गाड़ी थमाई और आगे बढ़ गया। चाबी अभ्यास के अनुसार मेरे हाथ में ही रही और बीच में खड़ी बाईक को लेकर यह गुंजन पार्किंग वाले से उलझता रहा। तभी देखा कतार में सतीश आगे लगा था। उससे बात की और मैं उसके पीछे लग गया। मुझे बीच में घुसते देख दूसरे लोग चिल्ला चोंट करने लगे, पर तब तक मैं अपना हाथ खिड़की में घुसा चुका था। चालान भरकर वहाँ से खिसक लिया। लौटा तो गांधी चौराहे पर लालबत्ती थी। सोचा देर हो रही है निकल जाता हूँ। चौराहा पार भी नहीं हुआ था कि यातायात पुलिस की सीटी बज उठी। मेरे पास तो ड्रायविंग लायसेंस भी न था। आज चालान बना तो बड़ा फटका लगना था। मैंने बाइक दीनदयाल तिराहे की ओर मोड़ कर तेजी से भगाई कि सामने से आती दूसरी बाइक से टकराकर चारों खाने चित। कपड़े फट गए। वह तो ट्राफिक पुलिस का जवान तुरंत आ पहुंचा नहीं तो वह बाइक वाला पीटता अवश्य। चालान बनना ही था पर गुंजन ने कहा “अलग ले जाकर समझ लें अंकल से।” पुलिस वाले को देने के लिए दो सौ का नोट निकाला पर वह पैर पकड़ने पर भी पांच सौ लेकर ही माना।
यह बात चल ही रही थी कि बगीचे का माली वहाँ आ धमकता। उसके हाथ में कुचले हुए पौधे थे।” यह तुम्हारा काम है?” ” न…नहीं तो” गुंजन की आवाज लड़खड़ा रही थी।” अपने सेंडिल देखो तुम्हारी चुगली कर रहे हैं।” पौधे की एक दो पत्तियां चिपकी थीं सेंडिल पर।” और वह नल तुमने तोड़ा?” माली दक्ष से पूछ रहा था। “वह पहले से वैसा ही था।” एक कमजोर सा बचाव किया दक्ष ने पर यह काम न आ या।” जानते हो कितना पानी व्यर्थ बह गया? पूरे मोहल्ले की एक दिन की प्यास बुझ सकती है इतने पानी से।” माली ने कहा। “अब भाषण तो झाड़ो मत, पानी कोई तुम्हारे घर का न था सरकारी था समझे?” दक्ष बोला तो मनोज ने भी उसका साथ देते हुए कहा “और यहाँ कोई मोहल्ला नहीं है जिसकी प्यास बुझाते समझ गए? सार्वजनिक स्थान है यह।” माली ने परेशान होकर कहा “मोहल्ला नहीं है मेरे पौधे तो हैं? कितने पौधों को पिलाता वह पानी सारी टंकी खाली हो गई। अब कहाँ से पानी लाऊँ?” गुंजन ने ढीटपन दिखाया और कहा “एक बोरिंग करवा लो नगर-निगम से कहकर। फिर चाहे जितना पानी ले लो।” “एक नहीं तीन बोरिंग हैं बगीचे में पर उन्हें धरती माता ने पानी उगलने से मना कर दिया है, सूख चुके हैं अभी से। पर तुम लोग नहीं समझोगे यह सब।” माली बड़बड़ाते हुए चला गया। तीनों हँसते रहे।
“ला, नोट्स लाया नागरिक शास्त्र के परसों अर्धवार्षिक परीक्षा है अपनी।” गुंजन ने दक्ष से पूछा। “हाँ, ये रहे।” उसने पेंट में शर्ट के नीचे खोंसे कागज निकाले लेकिन वे सब गीले होकर खराब हो चुके थे। “अरे! सारी मेहनत पर पानी फिर गया। अब तो नागरिक शास्त्र में फेल होना निश्चित ही है।” दक्ष ने निराशा भरे स्वर में कहा।
तभी वहाँ दक्ष के प्राथमिक विद्यालय के आचार्य जी आ गए। वे उद्यान में शांति से बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करते थे। बच्चों का ध्यान न था पर वे क्यारी के पीछे पीपल के चबूतरे पर बैठे आज की इनकी सारी बातें सुन चुके थे। “बेटा! अब क्या फेल होओगे। नागरिक शास्त्र में तो तुम फेल हो ही चुके हो?” दक्ष उन्हें पहचान गया उसने नमस्ते की। मनोज और गुंजन दूसरे विद्यालय में पढ़े थे, उनसे अपरिचित थे। “अभी तो हमारी परीक्षा भी नहीं हुई है, हम फेल कैसे हो सकते हैं?” मनोज के स्वर में तीखापन था। दक्ष को लगा वह कोई अशिष्टता न कर बैठे इसलिए बीच में बोला “ये मेरे आचार्य जी हैं मनोज! हमें सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ाते थे। बाद में मुझे कान्वेंट में डाल दिया गया।” “ठीक है पर हम फेल कैसे हुए?” इस बार मनोज चुप रहा तो गुंजन बोल पड़ा। “बेटा! नागरिक शास्त्र केवल रटने, परीक्षा देने और पास होने का विषय तो नहीं है। बल्कि इसकी परीक्षा तो तब तक चलती रहती है जब तक हम किसी सभ्य समाज के अंग हैं, किसी देश के देशभक्त नागरिक हैं। सामाजिक शिष्टाचार से लेकर राष्ट्रीय हितों पर प्रभावकारी सारे व्यवहार, नीति-नियमों का पालन करना हमारा नागरिक कर्तव्य है। जिसका आरंभ व्यक्तिगत आचरण से आरंभ होता है और प्रतिफल अन्तरराष्ट्रीय प्रभावों तक प्रतिबिंबित हो सकता है।” आचार्य जी समझा रहे थे। मनोज ने प्रश्न किया “नागरिक एक व्यक्ति होता है, सरकार उससे टेक्स वसूलती है, बदले में सारी सुविधाएं देना सरकार का काम है और प्राप्त करना हमारा अधिकार। इसमें समाज, राष्ट्र और विश्व कहाँ घुसाए दे रहे हैं मास्टर जी!” आचार्य जी शांत स्वर में बोले “देखो बेटा! किसी के अधिकार तब तक ही सुरक्षित हैं जब तक बाकी लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। इसलिए हमारा आचरण, कार्य व्यवहार अधिकार आधारित नहीं कर्तव्य केंद्रित होना चाहिए। अन्यथा अधिकारों के लिए संघर्ष, सार्वजनिक व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर, सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट कर प्रकट होता है तो समाज पीड़ित और राष्ट्र आहत होता है। और भटके हुए नागरिकों को भ्रमित कर, भड़काकर अनेक बार राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में झोंक दिया जाता है, जो अपने ही व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक और सामाजिक जीवन ही नहीं सारे राष्ट्र के लिए भी घातक आतंकी बन जाते हैं और कई बार तो शेष विश्व के देशों को अपनी काली छाया से ग्रसित करने लगते हैं।” आचार्य जी तनिक रुके तो गुंजन ने प्रतिवाद किया “आप हमें डरा रहे हैं मास्टर जी!” “नागरिक कर्तव्य और आतंकवाद का क्या जोड़?” मनोज ने भी अविश्वास जताते हुए पूछा। आचार्य जी ने क्यारी के किनारे एक बहुत ही छोटा-सा पौधा उखाड़ा और उसे दिखाते हुए बोले “देखो ये पौधा कितना कोमल है इसकी नरम नरम पत्तियां हैं किसी को भी इससे कोई कष्ट कोई आपत्ति नहीं हो सकती। ठीक है न?” तीनों ने स्वीकार सूचक सिर हिलाया।
आचार्य जी आगे कहने लगे “जानते हो यह कांटों वाला पौधा है, यहाँ ऊगा और बड़ा हो गया तो कांटे ही बिखेरेगा इसलिए माली ऐसे पौधे चुन-चुनकर बगीचे से दूर करता है। छोटे मोटे-मोटे नियम तोड़ते रहना ऐसे पौधे के समान ही है जो जाने अनजाने हमें अपराधी बना रहे होते हैं। हमें एक ख़तरनाक संभावना की ओर धकेल रहे होते हैं। इसलिए नागरिक कर्तव्यों का पालन व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबके लिए हितकारी है। समझे?” तीनों मित्रों को चिंतन के सूत्र देकर आचार्य जी चल दिए। गुंजन ने कहा “हम भी चलें?” मनोज ने बाइक स्टार्ट की गुंजन को पीछे बैठाया फिर दक्ष से बोला “बैठ तू भी।” गुंजन ने सीट पर आगे खिसक कर जगह बनाई पर दक्ष ने कहा “नहीं, तीन नहीं।” “तब तो बाइक भी मैं नहीं चलाऊंगा। मेरे पास लाइसेंस नहीं है।” मनोज बाइक से उतर पड़ा। “मेरे पास है लर्निंग लाइसेंस चलो घर तो चलें।” गुंजन ने अपना लाइसेंस दिखाया। दक्ष ने कहा “तुम लोग चलो, मैं माली बाबा से क्षमा मांगकर आता हूँ। घर पर बैठ कर बनाएंगे नागरिक शास्त्र के नए नोट्स।”
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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