– रत्नचंद सरदाना
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के देदीप्यमान नक्षत्र विनायक दामोदर का पुण्य स्मरण करते हुए शीश स्वत: ही श्रद्धानत हो जाता है। उनकी असंदिग्ध देश भक्ति का ज्वार कई बार अतुलनीय प्रतीत हो जाता है। प्रश्न उठता है कि क्या विश्व पटल पर ऐसा दृढ निश्चयी, यातनाओं से डरकर पराजय स्वीकार न करने वाला, गोरो की आँखों में आँख गड़ा कर बात करने वाला, दो जन्म अर्थात पचास वर्ष का कारावास दंड सुनकर जिस कैदी ने न्यायाधीश से कहा “तुम क्या समझते हो कि गोरो का शासन यहां इतना समय रहने वाला है? नहीं भारत स्वतंत्र होने जा रहा है।”
सावरकर ने दूसरी बात कही कि मेरे लिये दो जन्म के कारावास की घोषणा कर गोरो ने हमारे पुनर्जन्म के विश्वास को स्वीकार कर लिया है। अंग्रेजी शासन से हम बहुत जल्दी मुक्ति पा लेंगे। इतना प्रबल आत्मविश्वास!
इनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। उनकी माता का नाम राधाबाई व पिता का नाम दामोदर पंत था। इस दम्पति के तीन पुत्र व एक पुत्री थी। इनका जन्म 28 मई 1883 ई. को नासिक (महाराष्ट्र) के निकट भागुर गाँव में हुआ था इनके माता पिता का देहावसन इनके बचपन में ही हो गया। उसे पुस्तके पढ़ने का शौक था। उसकी आयु लगभग दस वर्ष थी तब एक प्रमुख समाचार पत्र में उनकी कविता प्रकाशित हुई। कॉलेज में पढ़ते हुए उसने अभिनव भारत नाम की संस्था की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य देश को स्वतंत्र करवाना था। इस संस्था ने अनेक क्रांतिकारियों को प्रेरित किया। सात अक्तूबर 1905 के दिन सावरकर ने विदेशी वस्त्रों को सार्वजनिक रूप से प्रथम बार जलाया। वह भारत का प्रथम छात्र था जिसे देशभक्ति के अपराध में कालेज से निष्कासित किया गया।
1906 में ही सावरकर उच्च शिक्षा के लिये लंदन चले गए। उन्हें वहां अध्ययन करने हेतु श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्र वृत्ति प्रदान की गई। लंदन में सावरकर ने फ्री इंडिया सोसायटी की स्थापना की। भाई परमानन्द, लाला हरदयाल व मदाम कामा जैसे देशभक्त सम्मिलित हुए। थोड़े ही समय में यह संस्था देशभक्त भारतीयों का केन्द्र बिन्दु बन गई।
सावरकर पढ़ने-लिखने के कार्य में व्यस्त हो गए। उन्होंने इटली के महान क्रांतिकारी नेता मेजिनी की आत्मकथा का अनुवाद मराठी भाषा में किया तथा यह पुस्तक अपने राजनैतिक गुरु बाल गंगाधर तिलक को समर्पित की। उन्होंने गुरुमुखी लिपि (पंजाबी) सीखी तथा आदि ग्रन्थ, विचित्र नाटक व पंथ प्रकाश आदि ग्रंथो का अध्ययन किया।
पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहते हुए भी सावरकर ने युवकों में देशभक्ति की भावना को प्रेरित किया। मदन लाल ढ़ीगडा ने एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी कर्जन वायली की हत्या कर दी। उसको हत्या का दोषी पाया गया। उसने अदालत में कहा- जब तक हिन्दू जाति व अंग्रेजों का अस्तित्व रहेगा तब तक स्वतंत्रता के लिये प्रयास चालू रहेगा। 17 अगस्त 1909 को ढ़ीगडा को फांसी दे दी गई। उसके इस कृत्य की भर्त्सना का प्रस्ताव एक सभा में रखा गया। उस सभा में सावरकर ने कहा – “मैं भर्त्सना प्रस्ताव का विरोध करता हूँ।” विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की सरकार के केन्द्रीय नगर में ऐसा अकल्पनीय साहस सावरकर ही कर सकता था।
1857 के राष्ट्र व्यापी स्वतंत्रता संग्राम में विजय पाने के उपलक्ष्य में अंग्रेज प्रतिवर्ष विजय दिवस के रूप में मनाया करते थे। सावरकर ने गहन अध्ययन कर इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी। ब्रिटिश सरकार हिल गई। पुस्तक मराठी भाषा में लम्बे संघर्ष के पश्चात ‘आजादी के दिवानो’ छपने से पूर्व ही पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
सावरकर और गाँधी जी की प्रथम भेंट 1909 में हुई। गाँधी जी को दशहरा उत्सव पर लंदन में बुलाया गया था। दोनों महानुभाव एक मंच पर थे। दूसरी बार इनका मिलन रत्नगिरी में हुआ दोनों का लक्ष्य एक था किंतु वैचारिक मतभेद तो थे ही।
क्रांतिकारी आन्दोलन जोर पकड़ रहा था। भारत में होने वाली घटनाओं का सबंध सावरकर से जोड़ा जाने लगा।
अंग्रेजो की दृष्टि ने सावरकर एक दुर्दन्त क्रांतिकारी था। 10 मार्च 1910 को लंदन में सावरकर को बंदी बना लिया व जुलाई में उसे जलपोत द्वारा भारत के लिऐ भारत के लिए रवाना कर दिया गया। वह जलपोत फ़्रांस में मासेर्ल्ज नामक बन्दरगाह में रुका। सावरकर ने समुद्र में छलांग लगा दी व तैरकर किनारे आ गया, किन्तु पकड़ लिया गया।
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भारत में लाकर सावरकर पर मुकदमा चलाया गया। उसे दो जन्म कारावास ले लिए अंडमान जेल में भेज दिया गया। उसकी सम्पति सरकार ने जब्त कर ली। 27 जून 1911 के दिन उसे मद्रास की बन्दरगाह से पोर्टब्लेयर के लिए जलयान द्वारा भेज दिया गया। जलयान में भी उसे एक पिंजरे में बंद करके रखा गया। यह जेल एक यातनागृह थी, इसे नरक कह सकते थे। प्राय: कैदी भी खूंखार किस्म के थे, अफसर भी अत्याचारी थे। वहां मानवीयता नाम का कोई अंश विद्यमान न था। राजनैतिक बन्दियों का मनोबल तोड़ने के प्रयास किए जाते थे। उनके साथ डाकुओं व हत्या रोपित कैदियों से भी कही घिनौना व्यवहार किया जाता था। प्रात: 6 बजे ही उन्हें कोल्हू में बैल की भांति जोत दिया जाता था। पीने के लिए दिन में केवल दो गिलास पानी दिया जाता था। किन्तु यातना उसके भावों का दमन नहीं कर पाई। कर्म नई राहें खोज लेते हैं। वे झुकते नहीं, हार नहीं मानते, ऐसे ही तो थे वीर स्वातंत्र्य वीर सावरकर। जेल में धर्मांतरण कार्य अंग्रेज अफसरों के इशारे पर चलता था। सावरकर ने शुद्धि आंदोलन व हिंदू त्योहारों के अवसर पर सहभोज के कार्यक्रम आरंभ किये। जेल में रहते हुए कागज-कलम के बिना काल-कोठरी में साहित्य रचना की। गुरु गोविंद सिंह का प्रकाश पर्व मनाना आरंभ किया। युवा अनपढ़ कैदियों के लिये प्राथमिक शाला आरंभ करवाई। इस शाला शिक्षित राजनैतिक बन्दी पढ़ाते थे।
मई 1921 में सावरकर को पोर्टब्लेयर से कलकत्ता की अलीपुर जेल में और फिर यरवदा जेल में रखा गया।
जनवरी1924 में उसे जेल से मुक्त कर नजरबंदी के रूप में रखा गया। पाबन्दियों की चिंता न करते हुए वह समाचार पत्रों में लेख लिखते रहे। अन्तत: 10 मई 1937 को अंग्रेज सरकार ने उनको मुक्त घोषित कर दिया। 27 वर्ष तक राजनैतिक बंदी के रुप में बिताये। अस्वस्थ होते हुए भी सावरकर चैन से बैठ नहीं पाए। उन्होंने देश में पंजाब, राजस्थान, सिन्ध, महाराष्ट्र, हैदराबाद, बंगाल व कर्नाटक का भ्रमण किया। लोगों ने उसका भव्य स्वागत किया। वह कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति व भारत विभाजन के विरोथी थे। कांग्रेस के नेता उनकी लोकप्रियता के कारण उनसे ईर्ष्या करते थे। गांधी जी की हत्या में उन्हें आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया। कुछ उत्तेजित लोगों ने उनके छोटे भाई के घर में लुट-पाट कर घर को आग लगा दी व उनके भाई नारायण राव का सिर फोड़ दिया। न्यायालय ने उन्हें निर्दोष घोषित कर दिया। कारावास से मुक्त होते ही उन्हें पुलिस ने पुनः गिरफ्तार कर लिया। मार्च 1950 में पूर्वी बंगाल में दंगे भड़क उठे। पाकिस्तान की सरकार ने इन दंगों के लिये उन्हें दोषी ठहरा दिया। हमारे देश की सरकार ने उन पर हिन्दुओं को मुस्लिमों के विरुद्ध भडकाने का आरोप लगाते हुए 4 मई 1950 को गिरफ्तार कर कर लिया। 13 जुलाई को उन पर पूना से बाहर न जाने तथा राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेने का आदेश देते हुए कारावास से मुक्त कर दिया। यह प्रतिबन्ध जुलाई 1951 में हटा लिये गए।
देखिए यह भी कैसा संयोग रहा, जब सावरकर 20 वर्ष का युवक था, सबसे ताकतवर अंग्रेज सरकार उसके नाम से कांपती थी। जब वह 70 वर्ष का दुर्बल, बीमार वृद्ध था तब स्वतंत्र भारत की सरकार भय खाती थी। अंग्रेजों ने दो आरोपों में दो जीवन की सजा सुनाई। किन्तु एक आरोप में निर्दोष पाए गए। अत: एक जीवन काल कारावास में बिताया। अपनी सरकार ने तीन बार कारावास में डाला और वह तीनों बार दोष मुक्त ठहराये गए।
सावरकर के अंतिम दिन अति निर्धनता और बीमारी में व्यतीत हुए। 26 फरवरी 1966 को इस महान देशभक्त का देहवासानन हो गया। वह मनसा-वाचा-कर्मसा देश के प्रति समर्पित रहे। भारत माँ के इस अनन्य सपूत को शत शत नमन!
(लेखक शिक्षाविद है और गीता विद्यालय कुरुक्षेत्र के सेवानिवृत प्राचार्य है।)
भारत माता की जय
भारत माता की जय वंदे मातरम
भारत माता की जय।
वीर विनायक दामोदर जी को शत शत नमन।।