– डॉ० अंजनी कुमार सुमन
भारत भूमि का कण-कण वीरों के मनोबल और बलिदानियों के रक्त से सिंचित रहा है। समय, काल, परिस्थितियाँ भले ही अलग-अलग रही हों लेकिन प्रत्येक समय में हमारे वीरों ने हमेशा साहस का उदाहरण प्रस्तुत किया है। हम सभी जानते हैं कि लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग और बलिदान की आहुतियों से ही हमारे परतंत्र रहे देश को स्वतंत्रता मिली है जिसे किसी भी मूल्य पर शताब्दियों तक विस्मरण नहीं किया जा सकता। उन वीरों ने जाति, धर्म, समाज, संस्कृति, अवस्था और आयु सभी को भुला कर एकजुट हो स्वतंत्रता के लिए आने वाली सभी चुनौतियों का सामना किया। जेल में बंद हुए, लाठी-डंडे खाये, गोलियाँ खायी, घोड़े से घसीटे गये, शरीर के अंग क्षत-विछत हुए, घर-द्वार और संम्पत्ति लुटी, कोड़े खाये, जख्मों पर नमक लगे, काला पानी मिला और अंततः फाँसी पड़ी, फिर भी इनके हौसले अडिग के अडिग रहे।
देश पर न्योछावर होने वाले उन वीरों की कुछ गाथाएँ तो सुनी और सुनायी जा रही है, लेकिन उनमें से कुछ किसी कारणवश अभी तक प्रकाश में नहीं आये। जबकि उनका समर्पण किसी से इंच भर भी कम नहीं था। कुछ स्वतन्त्रता सेनानी पाठ्य पुस्तकों की शोभा बने तो कुछ की कहानियाँ कभी प्रसारित ही नहीं हुई। यह एक विचारणीय प्रश्न है। जबकि सभी निष्ठावान स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को याद करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
स्वतंत्रता के महानतम महत्व को जब राजा, महाराजा और सामंत नहीं समझ पा रहे थे, तब सर्वप्रथम वनवासी और जनजातीय समाज ने इसको दृष्टिगत किया और अंग्रेजों के द्वारा बिछायी गयी गुलाम मानसिकता से निकलकर क्रांति का प्रथम बिगुल फूँका। जिसमें युवा वीर क्रांतिकारी तिलका माँझी, बिरसा मुँडा, सिद्धो-कान्हो मुरमू, टिकेंद्रजीत सिंह, वीर सुरेंद्र साई, तेलंगा खड़िया, वीर नारायण सिंह, रूपचंद कंवर, लक्ष्मण नाइक, रामजी गोंड, अल्लूरी सीताराम राजू, कोमराम भीमा, रमन नांबी, गोविंद गुरू, गुंदाधुर, भाऊ खरे, चिमनजी जाधव, नाना दरबारे, काज्या नायक और तांतिया भील आदि शामिल थे।
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जनजातीय समाज परंपरागत तरीके से वन्य एवं पर्यावरण का संरक्षक रहा है। अंग्रेजों के द्वारा लायी गयी सामंती अधिकारों की व्यवस्था ने वनों पर इनके एकाधिकार के प्रभुत्व को नष्ट कर दिया जो इनकी रोजी-रोटी और दैनिक जीवन के साधन का मुख्य स्रोत था। इस कारण यह अपने आपको असहाय एवं शोषित समझने लगे और अंततः इनके अंदर भीषण आक्रोश उत्पन्न हुआ। जिसके फलस्वरूप इनके द्वारा अलग-अलग स्थानों पर छोटे-छोटे नेतृत्व में कई आन्दोलन हुए। सैंकड़ों-हजारों जाने गयीं, लेकिन संघर्ष वर्षों तक निरंतर छोटे-छोटे समूहों में जारी रहा। ये अलग बात है कि अंग्रेजों की अत्याधुनिक बंदूकों और तोप के गोलों के आगे इनके तीर-कमान असहाय पड़ जाते थे लेकिन उन्होंने तोप के गोलों के सामने अपने मजबूत चौड़े कंधों से सामना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने लहू के धारा प्रवाह बह जाने का खेद नहीं किया। भूखे-प्यासे भी योग्य सिपाही की तरह तब तक लड़ते रहे जब तक शरीर में एक अंश भी साँस शेष रहा। अंग्रेजों की अपनी बड़ी घातक सेना के सामने तीर-कमान लिए मुट्ठी भर जनजातीय क्रांतिकारी पुआल के ढ़ेर में मुट्ठी भर शोले का काम कर रहे थे। इन जनजातीय आन्दोलनों को इतिहास में कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, अहोम विद्रोह, खासी विद्रोह, भील विद्रोह, हूल विद्रोह, रम्पा विद्रोह, मुण्डा विद्रोह आदि के नामों से जाना गया।
ऐसे वीर राष्ट्र उन्नायक क्रांतिकारियों को याद रखना और भावी पीढ़ी तक इनके शौर्य एवं संदेश को पहुँचाना वर्तमान पीढ़ी की जिम्मेवारी है। इस हेतु इन सबको पाठ्य पुस्तकों के पृष्ठों में अंकित किया जाना बहुत आवश्यक है। इसीलिए कि इन पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से नयी पीढ़ी में राष्ट्र प्रेम की भावना का विकास तो होगा ही, साथ ही क्रांतिवीर राष्ट्र सेवकों के जीवन और सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर विद्यार्थी राष्ट्र के प्रति शौर्य, साहस, एकता, संघर्ष और समर्पण के गुणों को स्वयं में धारण कर पाएँगे। पड़ोसी या शत्रु देशों की रोज पनप रही कुटिल नीतियों के कारण आने वाले भविष्य में भी राष्ट्र को कई सारी चुनौतियों एवं संघर्षों का सामना करना पड़ सकने की स्थिति हो सकती है। इन अनापेक्षित परिस्थियों में राष्ट्र के नागरिक बाल्यकाल से ही राष्ट्रीय मूल्यों को समझेंगे तो निश्चित रूपेण किसी भी प्रकार की विपत्ति का सामना करने में सबल बन सकेंगे और राष्ट्र को भी सुरक्षित रख पाएँगे।
इस बात से तो हम सभी अवगत हैं कि राष्ट प्रेम और विरोध के अभाव में हमने मुगलों और अंग्रेजों द्वारा थोपी गयी गुलामी में कितनी यातनाएँ एवं प्रताड़नाएँ सही है। इसलिए हमें हमारे भविष्य को राष्ट्र भावना के लिए प्रशिक्षित करना बहुत जरूरी है जिनके प्रेरणा स्रोत ये आला क्रांतिवीर हो सकते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा में स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित जनजाति समाज की भूमिकाओं को कक्षा-कक्ष का विषय बनाकर न सिर्फ हम उन्हें सम्मान देंगे बल्कि यह उनके पारंपरिक उपेक्षित जीवन के लिए एक पुरस्कार भी होगा।
(लेखक शिक्षण महाविद्यालय में व्याख्याता है और विद्या भारती दक्षिण बिहार प्रान्त के प्रचार प्रमुख है।)
The new generation will be able to know many unknown historical facts from this article
राष्ट्र और संस्कृति को बचाने के लिए जिन महात्माओं ने अपने जीवन आहुति दी है, उन बिरो की नाम पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए।