भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-28 (अन्नमय कोश का विकास)

 – वासुदेव प्रजापति

अब तक हमने जाना कि व्यक्तित्व विकास का भारतीय प्रतिमान है – “समग्र विकास प्रतिमान।” समग्र विकास प्रतिमान के दो आयाम हैं – पंच कोशीय विकास तथा परमेष्ठीगत विकास। पंच कोशीय विकास का अर्थ है, व्यक्तित्व के पांचों कोशों का विकास करना। ये पांच कोश हैं – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश। आज हम अन्नमय कोश को जानेंगे। अन्नमय कोश को जानने से पूर्व जान लेते हैं, एक उपनिषद कथा।

अन्न ही ब्रह्म है

एक ऋषि थे, उनका नाम था वरुण। ऋषि वरुण के एक पुत्र था, उस पुत्र का नाम था भृगु। भृगु एक दिन अपने पिता वरुण के पास आया और बोला “भगवन मुझे ब्रह्म का बोध कराइये।”  पिता ने अपने पास विधिपूर्वक आए हुए पुत्र को सीधा – सीधा यह नहीं बताया कि ब्रह्म यह है। उसने पुत्र को कहा – अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाक् (ये ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं)। अन्न अर्थात् शरीर, शरीर के भीतर अन्न का भक्षण करने वाला प्राण, उसके पश्चात् विषयों की उपलब्धि के साधन रूप ऑंख, कान, मन और वाक् ये ब्रह्म की उपलब्धी में द्वार रूप हैं।

इस प्रकार इन द्वारभूत अन्नादि को बतलाकर पिता वरुण ने पुत्र भृगु को ब्रह्म क्या है? बताने के स्थान पर ब्रह्म का लक्षण बतलाया। लक्षण में यह बताया कि जिससे निश्चय ही ये सब भूत मात्र उत्पन्न होते हैं, तथा उत्पन्न होने पर जिसके आश्रय से ये जीवित रहते हैं और अन्त में विनाश की ओर उन्मुख होकर जिसमें ये लीन हो जाते हैं, उसे विशेष रूप से जानने की इच्छा कर, वही ब्रह्म है।

पिता के वचनों को सुन पुत्र भृगु ने ब्रह्म के लक्षणों का चिंतन-मनन किया। उसने निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्म को जानने के जितने भी साधन हैं, उन सभी साधनों में तप ही सबसे अधिक सिद्धि प्राप्त कराने वाला साधन है। अतः पिता के उपदेश न देने पर भी भृगु ने ब्रह्म को जानने के साधन रूप तप को स्वीकार किया। उस भृगु ने तप करके अन्न ब्रह्म है, ऐसा जाना। क्योंकि निश्चय अन्न से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर अन्न से ही जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करते समय अन्न में ही लीन होते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि अन्न का ब्रह्मरूप होना ही ठीक है।  इस प्रकार भृगु ने तप करके यह जाना कि “अन्न ही ब्रह्म है।”

अन्नमय कोश का अर्थ

अन्नमय कोश अर्थात् हमारा शरीर। यह शरीर अन्न से पुष्ट होता है। यदि इस शरीर को अन्न नहीं मिलता है तो यह शरीर कमजोर हो जाता है। जब शरीर शांत हो जाता तब अंत्येष्टि के पश्चात् वह पंचभूतों में लीन होकर पुनः अन्न बनता है। इसलिए शरीर को अन्नमय कोश कहा गया है।

शरीर के दो भाग हैं – बाहर का शरीर और भीतर का शरीर। शरीर का वह भाग जो हमें दिखाई देता है, जैसे- हाथ, पैर, मुख, उदर, पीठ और मस्तक आदि बाहरी शरीर है। इसी प्रकार शरीर का वह भाग जो हमें दिखाई नहीं देता, जैसे- हृदय, फेफड़े, यकृत, आमाशय, छोटी आंत, बड़ी आंत आदि भीतरी शरीर है। इस शरीर से ही हम छोटे-बड़े सभी काम करते हैं। पांच कोशों में शरीर सबसे स्थूल और सबसे ऊपर का दिखाई देने वाला कोश है।

हमारा शरीर एक यंत्र है

हमारा शरीर भी मोटर कार की भांति एक यंत्र है। जैसे कार का इंजन, पहिए, ब्रेक, स्टेयरिंग, सीट आदि उसके पुर्जे हैं, ठीक वैसे ही हमारे शरीर के अंग-उपांग भी शरीर रूपी यंत्र के पुर्जे हैं। ये अंग-उपांग मिलकर शरीर को चलाते हैं। इसलिए शरीर के इन अंगों को जानना आवश्यक है।

शरीर को जानना अर्थात् शरीर के सभी अंगों की रचना समझना, उन अंगों के कार्यों को जानना, वे काम कैसे करते हैं यह समझना तथा उनकी देखभाल कैसे होती है, वे क्या करने से पुष्ट होते हैं और उनको स्वस्थ रखने के लिए क्या करना चाहिए? ये सभी बातें जानकर ही हम हमारे इस शरीर रूपी यंत्र को ठीक रख सकते हैं और दीर्घकाल तक उससे काम ले सकते हैं।

अन्नमय कोश के विकास के आयाम

शरीर जब स्वस्थ, निरोगी, बलवान, ओजपूर्ण, लचीला, सुडौल और सहनशील होता है, तभी हम कह सकते हैं कि अन्नमय कोश ठीक है। इस अन्नमय कोश के विकास के आयाम अधोलिखित हैं –

१. वृद्धि – जब शिशु माँ की कोख में आता है तब वह बीज रूप में होता है। जैसे एक वट वृक्ष के बीज में पूरा वट वृक्ष समाया हुआ होता है, ठीक वैसे ही कोख में स्थित बीज में सम्पूर्ण मानव शरीर समाया हुआ रहता है। धीरे-धीरे शरीर के अंग-उपांग बनते हैं और नौ-दस माह में पूर्ण शरीर बन जाता है। जन्म के समय शरीर छोटा होता है, परन्तु समय के प्रवाह के साथ वह बढ़ता जाता है। इस वृद्धि को हम उसकी कद-काठी कहते हैं। यह कद-काठी उसे अपने माता-पिता से मिलती है।

२. बल – शरीर ही छोटे-बड़े सभी काम करता है। उसे ये काम करने के लिए बल चाहिए, शक्ति चाहिए। बिना बल के उसकी मासपेशियाँ, हड्डियाँ, ज्ञानतन्तु आदि निर्बल होंगे और वे काम नहीं कर पायेंगे। इसलिए शरीर का बलवान होना अत्यावश्यक है।

३. लोच – शरीर के सभी अंग परस्पर जुड़े हुए हैं। ये जोड़ काम के अनुसार विभिन्न प्रकार के होते हैं। हमें विभिन्न कार्यों के लिए अपने शरीर को मोड़ना पड़ता है। शरीर तभी मुड़ता है जब उसमें लोच होता है। नित्य के अभ्यास से यह लोच बढ़ता है। शरीर में जितना अधिक लोच होता है, उतना ही अधिक वह मुड़ सकता है।

४. कुशलता – विभिन्न अंगों के विभिन्न कार्य होते हैं। हाथ पकड़ते हैं, पैर चलते हैं, आंखे देखती हैं, वाणी बोलती है आदि। ये सभी अंग अपना-अपना कार्य सुचारू रूप से करें, यही कुशलता है। कार्य करने में शुद्धता, गति, लय, सुन्दरता आना ही कुशलता का विकास है। कुशलता से काम निर्दोष, सुन्दर व शीघ्र होता है।

५. निरामयता – शरीर के सभी अंग ठीक से काम करें, जैसे पेट ठीक से भोजन पचाए, हृदय ठीक से रक्त संचार करे, फेफड़े ठीक से श्वास-प्रश्वास की क्रिया करें, शरीर में वात, पित्त और कफ उचित मात्रा में हों, शरीर में रस, रक्त, मांस आदि सप्त धातु सम मात्रा में हों तथा आंतरिक शुद्धि स्वाभाविक रूप से होती रहे, तब यह माना जाता है कि शरीर निरामय है, अर्थात् निरोगी है। लोक में कहा जाता है, “पहला सुख निरोगी काया”।

६. तितिक्षा – जब शरीर में निरोगिता और बल की प्राप्ति होती है तो तितिक्षा भी आती है। शरीर द्वारा विपरित परिस्थितियों को सह पाना तितिक्षा कहलाता है। जैसे- सर्दी, गर्मी व वर्षा की मार सह लेना। भूख, प्यास,जागरणादि को सह पाना, जल्दी नहीं थकना, निरन्तर काम करते रहना ये सभी तितिक्षा के रूप हैं। यह तितिक्षा जितनी अधिक होती है, विकास उतना ही अधिक हुआ माना जाता है।

अन्नमय कोश : विकास के कारक तत्त्व

हमें अन्नमय कोश का विकास करना है तो इन कारक तत्त्वों के महत्त्व को समझना होगा। ये तत्त्व हैं – भोजन, व्यायाम, निद्रा तथा प्राण और मन।

१. भोजन – अन्नमय कोश के लिए अर्थात् शरीर के लिए अन्न (भोजन ) अनिवार्य तत्त्व है। हमारे यहाँ शरीर स्वस्थ रखने के लिए पूरा का पूरा आहार शास्त्र विकसित किया गया है। सात्त्विक एवं पोष्टिक भोजन करना, उचित मात्रा में करना, उचित पद्धति से करना, कब-कब करना, क्यों करना? आदि बातों को आयुर्वेद विस्तार से बताता है। आयुर्वेद की बताई हुई बातों का पालन कर हम शरीर का विकास भली-भांति कर सकते हैं।

२. व्यायाम – शरीर को बलवान और लचीला बनाने के लिए व्यायाम आवश्यक है। शरीर के सभी अंगों का नियमन और अभ्यास व्यायाम है। सभी अंगों की सुस्थिति, उठने, बैठने, सोने, जगने तथा चलने की उचित पद्धति, लयबद्ध और नियमित हलचल, सब अंगों का नित्य व नियमित अभ्यास शरीर स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। व्यायाम को भी सही स्वरूप में जानकर प्रतिदिन करने से शरीर कर्मठ बना रहता है।

३. निद्रा – शरीर के लिए जिस प्रकार आहार एवं व्यायाम आवश्यक है, उसी प्रकार निद्रा भी आवश्यक है। निद्रा सबसे अच्छी विश्रांति है। शरीर को पर्याप्त मात्रा में निद्रा चाहिए, गहरी नींद चाहिए। जब शांत व गहरी नींद होती है, तब अच्छी विश्रांति मिलती है। कब सोना, कब नहीं सोना, कितना सोना, कैसे सोना? हमारा बिस्तर व शयन कक्ष कैसा होना चाहिए आदि के विस्तृत निर्देश हमें योगशास्त्र एवं आयुर्वेद में प्राप्त होते हैं। जब शरीर को गहरी नींद नहीं मिलती तब शरीर की थकान दूर नहीं होती और काम करने का मन नहीं करता। पर्याप्त और गहरी नींद मिलते ही थकान दूर हो जाती है और शरीर स्फूर्ति से भरपूर हो जाता है।

४. प्राण और मन – शरीर के विकास में प्राणों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। प्राण बलवान होने से शरीर स्वस्थ रहता है, जबकि प्राण क्षीण होने से शरीर अशक्त, कृश व रुग्ण हो जाता है, तितिक्षा भी कम हो जाती है। अतः प्राण का बलवान होना शरीर स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है। प्राण ही शरीर को चलाते हैं, जैसे प्राण वैसा शरीर, जैसा शरीर वैसी क्रियाशीलता।

इसी प्रकार मन का भी शरीर पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। मन की उत्तेजना पूर्ण स्थिति, राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि द्वन्द्व तथा वासनाएँ, शरीर के वात, पित्त व कफ को विषम बना देते हैं। मन अनिद्रा का कारण बनता है, पाचन क्रिया को प्रभावित करता है और तनाव बढ़ाता है, फलत: शरीर अस्वस्थ हो जाता है। शरीर के रुग्ण होने के मूल में मन ही कारणभूत होता है। जबकि मन की शांति व प्रसन्नता का शरीर पर अनुकूल प्रभाव होता है। अतः शरीर के विकास हेतु प्राण व मन को सुस्थिति में रखना आवश्यक है। इन सबकी सहायता से हम शारीरिक विकास भली-भांति कर सकते हैं।

क्या मैं शरीर हूँ ?

शरीर को स्वस्थ, बलवान, निरोगी व कुशल बनाना और रखना शरीर का विकास है। कुछ लोग शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। शरीर को ठीक रखने व सजाने-संवारने में ही अपना जीवन लगा देते हैं। शरीर कितना भी अच्छा हो, हम शरीर नहीं हैं। शरीर हमारे लिए एक साधन है। परन्तु अज्ञानवश हम शरीर हैं, ऐसा मान लेते हैं। जब किसी की शरीर सम्पत्ति के आधार पर ही उसका मूल्यांकन करते हैं या उसको पसन्द – नापसंद करते हैं, तब हम अपना सही स्वरूप भूलकर अन्नमय कोश में ही जी रहे होते हैं। यह तो साधन को ही साध्य मान लेना है, जो हमारे अज्ञान का परिणाम है।  यदि मैं शरीर नहीं हूँ तो कौन हूँ…..?

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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