– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
इन दिनों तुमको लिखने-पढऩे का शौक चर्राया है।
बेटे! आपकी आयु में सबको लिखने का अत्यधिक शौक रहता है और आपके मन की बात कहुँ तो लिखने से अधिक रुचि होती है छपने में। सभी बच्चे लिखते समय एक ही बात मन में रखते हैं कि मेरी यह रचना कहीं न कहीं छप ही जाए। यह बात आपमें भला क्यों न आएगी जबकि बड़ी-बड़ी उम्र के लोग और यहां तक कि बड़े-बड़े लेखक एवं साहित्यकार जिनकी कई पुस्तकें छप चुकी होती है, वे भी इस रोग से मुक्त नहीं दिखाई देते।
‘देवपुत्र’ तुम्हारी प्रिय पत्रिका है। मेरी भी वो वर्षों तक प्रिय पत्रिका रही किन्तु उन वर्षों में मेरी एक भी रचना उसमें प्रकाशित नहीं हुई थी और जब इसके सम्पादन से सीधे जुड़ा तब सम्पादक की सीमाओं से पाला पड़ा तब अनेक बातें ध्यान में आती चली गई। जब भी बच्चों की कोई रचना सामने आती है तो मन करत है इसे ‘देवपुत्र’ में अवश्य लेंगे। किन्तु सम्पादकीय सीमाएं इसके पश्चात् ही प्रारम्भ होती है। देवपुत्र में सबसे पहली शर्त रचना छपने की होती है उसकी संस्कार क्षमता।
अब यदि तुमने लिखा भेजा है- ‘शेर ने खेला क्रिकेट/ऊंट ने लिऐ दो विकेट।/इसमें नहीं है कोई डाऊट,/हाथी करेगा सबको ऑल आऊट।।’
तो भला ये पंक्तियाँ किसी को क्या संस्कार देगी और क्या प्रेरणा। और उस पर हिन्दी के मखमल पर आंग्लभाषा के शब्दों के टाट के पैबन्द तो रही-सही कसर पूरी कर ही देते हैं। पहली बात याद रखो – संस्कार क्षमता।
दूसरी सलाह है – आपकी यह धारणा बदलिए कि सबसे आसान है कविता लिखना। बेटे! साहित्य में वर्षों की साधना के बाद यह क्षमता आती है। वर्षों की तपस्या करें तब काव्य रचना की क्षमता आती है। कविता का अपना एक व्याकरण है। कई बार बच्चों से मजाक में मैं कहता भी हूँ कि आप सबकी ढेरों कविताएँ सुधार करते-करते कहीं मैं भी कविता लिखना न सीख जाऊं। किन्तु सच मानना मैं आज भी छोटी सी कविता लिखने की हिम्मत नहीं कर पाता। आप प्रारंभ में गद्य लिखें, बाद में निबन्ध, कहानी और जब ये सब सीख लो तब अंत में कविता लिखना। दूसरी सलाह – प्रारंभ में गद्य लिखें।
तीसरी मुख्य बात है रचना का मौलिक होना। कभी भी कोई भी रचना इधर उधर से चुराकर न भेजो। तुमको जानकर आश्चर्य होगा, अपने कार्यालय में प्रतिदिन आने वाली 50-100 रचनाओं में अनेक भैया/बहिन वे गीत भी लिखकर भेज देते हैं जो मासिक गीत के रूप में विद्यालयों में चलते हैं। ऐसे संघ-गीत या अन्य राष्ट्रीय गीत अपने नाम से लिखना बहुत बड़ा पाप है। एक बार एक भैया ने प्रसिद्ध साहित्यकार हरिशंकर परसाई की एक रचना अपने नाम से भेज दी और त्रुटिवश प्रकाशन भी हो गया। पता लगने पर सम्बन्धित प्राचार्य जी को सूचना दी गई तो बड़ी कक्षा के उक्त भैया को अपमानित होकर क्षमायाचना करना पड़ी। तीसरी सलाह-मौलिकता यानि अपनी रचना, अपना नाम।
और चौथी बात करते समय फिर वहीं आ रहा हूँ जहाँ से प्रारम्भ किया था। कोई भी रचना लिखते समय मन में यह भाव मत रखो कि यह छपेगी ही। नाम की भूख यानि लोकेषणा की वृत्ति बड़ो-बड़ों की बुद्धि भ्रष्ट कर देती है फिर हम सब तो सामान्य बच्चे हैं। अपने बड़ों ने हमें यही तो सिखाया है कि ‘वृत्तपत्र में नाम छपेगा’ यह भाव लेकर कोई कार्य नहीं करना फिर भला लिखने की साधना में यह भाव क्यों हो? सरस्वती पूजा जैसे इस पवित्र कार्य में ‘नाम की भूख’ और ‘छपास-रोग’ जैसे दूषित तत्व बिल्कुल न आने देना। तो चौथी सलाह याद रखो – लिखना अपने सुख के लिए, छपने के लिए नहीं।
इन चार सलाह के अतिरिक्त और भी कई बातें है जैसे – राष्ट्रभाषा का प्रयोग करने से वाक्य विन्यास अच्छा होगा, भाषा प्रवाह तुम जैसा ही सहज, सरल होना, रचना बड़े कागज पर एक ही ओर लिखना। एक कागज पर कोई एक ही रचना (चाहे वह चुटकुला, पहेली, कविता, प्रसंग व कहानी हो) होना चाहिए। ताकि वह किसी एक विषय की नस्ती (फाईल) में रखी जा सके। एक लिफाफे में रखी प्रत्येक रचना पर अपना डाक का पता स्पष्ट लिखना। यदि रचना की स्वीकृति सूचना चाहती है तो एक पोस्टकार्ड (अपना पता लिखा हुआ) रचना, के साथ लगा दें। अस्वीकृत रचना वापस बुलवाना चाहें तो अपना पता लिखा डाक टिकट लगा लिफाफा भी साथ हो। ‘खूब लिखो’ यही मेरा आशीर्वाद है।
- तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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