– दिलीप वसंत बेतकेकर
‘मोबाइल फोन किस-किसके पास है?’ ऐसा पूछने पर अनेक लोग प्रश्नार्थक मुद्रा से देखने लगे। सभी ने हाथ ऊपर किये। फिर भी उनकी नज़रों में एक प्रश्न और दिखाई दे रहा था, “मोबाइल किसके पास है, ये कैसा प्रश्न है?” किसके पास नहीं है ऐसा पूछते तो समझ में आता! आज के युग में मोबाइल नहीं है, ऐसा भी कोई होगा क्या?
“कितने लोगों के पास पहली बार खरीदा हुआ मोबाइल ही अभी भी है?”
दो-तीन हाथ ऊपर उठे।
इसका अर्थ हुआ कि शेष अनेक लोगों के पास प्रथम खरीदा गया मोबाइल नहीं है। “दो-तीन बार किसी ने मोबाइल बदला है क्या?” इस प्रश्न पर अनेक हाथ ऊपर उठे!
मोबाइल के पश्चात मैं वाहनों के बारे में पूछने लगा!
“पन्द्रह-बीस वर्ष पूर्व साइकिल कौन उपयोग करता था?” महिलाओं के अतिरिक्त लगभग सभी शिक्षकों के हाथ ऊपर उठे। “साईकिल त्याग कर बाइक अथवा स्कूटर किनके पास आ गये?” लगभग सभी शिक्षक गण! “दो पहिया वाहन पश्चात चार पहिया वाहन किसने खरीदे?” कुछ शिक्षकों ने हाथ उठाकर प्रतिसाद दिया!
आखिरी प्रश्न था, “ऐसे कितने लोग हैं जो पहले किराये के मकान में रहते थे परन्तु अब अपना स्वयं का मकान बना लिया है?” कुछ लोग थे ऐसे! “मोबाईल दो-तीन बार क्यों बदल दिया?” “नई टेक्नालॉजी, अधिक बैटरी बैकअप, नये-नये फीचर्स, इंटरनेट की सुविधा आदि फटापफट उत्तर मिले! “अब पहले वाला मोबाइल कहाँ है?”
“घर के अन्य लोगों को दे दिया”, “बेकार पड़ा है”, “स्क्रैप हुआ” लोग बिल्कुल खुलकर उत्तर दे रहे थे।
“इस समय उस साइकिल की स्थिति क्या है?” इस प्रश्न पर एक ने उत्तर दिया – “वह साइकिल तो कब की कबाड़ी को दे चुके हैं – क्या करते उसे घर में रखकर? केवल कबाड़ा!” बदलते हुए समय के अनुसार नया तंत्रज्ञान, नई सुविधाएं ध्यान में रखते हुए स्वयं में और संसाधनों में बदलाव करते ही रहते हैं, इसमें नया कुछ भी नहीं। हाँ, अब कुछ लोग अति ही करते हैं, ऐसा भी है।
काल बाह्य (आउटडेट) हुई वस्तुएं हम उपयोग नहीं करते, साधनों का प्रयोग भी नहीं किया जाता। उसे स्क्रैप (कबाड) मान लेते हैं।
बदलते समय के अनुसार आर्थिक स्थिति में सुधार आता है और उसी के अनुसार हम साधन-सुविधा भी बदलते हैं। हमें भी कोई ‘पुराने चलन का’, ‘आउटडेट’, ‘स्क्रैप’ कहे इसकी चिंता रहती है। हमें ‘अपडेट’ रहना चाहिये, आउटडेट हो जाना ठीक नहीं, ऐसी प्रत्येक व्यक्ति की भावना रहती है। इस हेतु उधार लेकर भी वस्तुएं खरीदते हैं। भौतिक दृष्टि से अपना जीवन स्तर ऊँचा दिखाने हेतु कितनी उठापटक करते हैं, ये चारों ओर देखने पर समझ में आता है स्पष्ट रूप से! परन्तु इसी के साथ अपना बौद्धिक, भावात्मक, आध्यात्मिक स्तर भी बदलना चाहिये, ऊँचा उठना चाहिये ऐसी मनःपूर्वक सोच है क्या किसी की? अपनी जानकारी, ज्ञान, कौशल्य आदि का स्तर भी बदलना होगा, ऐसा सोचकर इस हेतु समय, धन, परिश्रम हम खर्च करते हैं क्या? ये प्रश्न केवल शिक्षकों के लिये ही नहीं अपितु सभी पर लागू है।
भूगोल का अध्ययन करते समय हम हिमशिला (आईसबर्ग) के विषय में पढ़ते हैं। हिमशिला का 1/8 भाग पानी के ऊपर होता है, जो दिखाई देता है परन्तु न दिखने वाला भाग, अर्थात पानी के अंदर रहने वाला 7/8 भाग होता है। इन हिमशिलाओं जैसी ही हमारी आवश्यकताएं होती हैं। दिखाई देने वाली और इसी कारण पूर्ति हो जाने वाली आवयकताएं केवल 1/8 अंश। ये होती हैं भौतिक आवश्यकताएं। पूर्व में ये रहा करती थीं केवल रोटी, कपड़ा और मकान! अब यह सूची बहुत लम्बी हो गई है। दिन-ब-दिन बढ़ती जायेगी। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अत्यधिक समय, शक्ति और पैसा खर्च किया जाता है। इस हेतु अत्यधिक उठापटक, भाग-दौड़, स्पर्धा भुगतनी पड़ती है।
इन आवश्यकताओं की अपेक्षा दिखाई न देने वाली आवश्यकताएं अनेक गुना अधिक हैं। परन्तु वे दिखती नहीं इसलिये उनकी ओर ध्यान देकर उनकी पूर्ति करनी चाहिये, ऐसा सोचते ही नहीं। हिमशिला जैसी न दिखने वाली – पानी के अंदर रहने वाली … परंतु 7/8 अंश आवश्यकताएं दुर्लक्षित, उपेक्षित रह जाती हैं। ऐसी आवश्यकताएं होती हैं बौद्धिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक! ये आवश्यकताएं भी मुख्य हैं, मूल रूप हैं, इस बात से अनभिज्ञ होने के कारण, इसकी जानकारी न होने से इसके लिये भी समय, श्रम, धन खर्च करना चाहिये इस बात की अनुभूति नहीं होती। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो इस विषय का कुपोषण हो रहा है, भुखमरी है, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जो निर्धन हैं, जिन्हें दो समय की रोटी भी नसीब नहीं है, उनके लिए तो बात समझ में आती है किन्तु दो तीन लोग कमाई करने वाले घर में हों तो उनके घर के बच्चों से लेकर बड़ों तक का ‘कुपोषण’ समझ से परे है। ये हम कब समझेंगे? और समझने पर भी कुछ करेंगे क्या? स्वयं को और घर के सदस्यों को इस ‘कुपोषण’ से बचाएंगे क्या?
विशेषकर शिक्षकों को इस विषय पर चिन्तन करना आवश्यक है। ‘वाचाल तर बाचाल’ (मराठी) अर्थात् ‘पढ़ोगे तो बचोगे’ यह भारत रत्न डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर की छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण उक्ति शालाओं की दीवार पर लिखी दिखती है। परन्तु फिर भी अर्थात् मर जाएंगे तो भी पढ़ेंगे नहीं, ऐसा दृढ़ संकल्प करने वाले शिक्षक ही अधिकतर दिखते हैं। स्वयं का ग्रंथालय होना चाहिये ऐसी सोच रखने वाले अथवा इस हेतु प्रयास करने वाले की बात तो दूर की, शाला और महाविद्यालय के अतिरिक्त शहर में रहने वाले लोगों में वहाँ के वाचनालयों के सदस्य कितने होंगे, ये एक शोध का विषय होगा! इसी प्रकार शाला, महाविद्यालय के भी शिक्षक विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों की पुस्तकों को हाथ लगाने वाले महाभाग कितने होंगे? कुछ अपवाद अवश्य होंगे!
आज स्मार्टफोन प्रत्येक के पास उपलब्ध है। एक नहीं, दो-दो हैं परन्तु उनका उपयोग कैसा, कब और किस हेतु? स्मार्ट फोन एक दुधारी तलवार जैसा है। लाभ और नुक्सान दोनों देने वाला! चयन उपयोग करने वाले पर निर्भर! इस स्मार्ट पफोन का उपयोग भी अपडेट और अपग्रेड करने हेतु हो सकता है। इंटरनेट, गूगल, विकिपीडिया इन सभी को हम आवश्यकता अनुसार उपयोग में ला सकते हैं। ये सब हमारे मित्र बन सकते हैं।
आज जो पाठ्यपुस्तकें बच्चे पढ़ रहे हैं वह तो ‘आउटडेट’ हो चुकी हैं। जानकारी, ज्ञान तेजी से वृद्धिगत हो रहे हैं। विस्तार हो रहा है। प्रत्येक वर्ष नई-नई पाठ्य पुस्तकें लिखना संभव नहीं, परन्तु जो वर्तमान में है उसमें नया जोड़ तो सकते हैं, उसे ‘अपडेट’ कर सकते हैं। ये अपडेट करना अथवा स्वयं अपडेट होना शिक्षकों पर निर्भर होता है। नये-नये तंत्रज्ञान की सहायता से अपडेट कार्य आसान हो गया है। केवल नया देखना और सीखने की मानसिकता होनी चाहिये। भौतिक साधन सुविधा के विषय में हम जितना जागरुक हैं, उससे भी अधिक जागरुकता बौद्धिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक विकास के विषय में होना आवश्यक है।
अंग्रेज़ी का एक छोटा किन्तु मार्मिक वाक्य है- “Look a bit higher”. हम जो आज हैं उससे ऊपर देखना जरूरी है। आज हम जिस स्तर पर हैं उससे अधिक ऊँचे स्तर पर जाने का प्रयास करना आवश्यक है। ये स्तर केवल भौतिक ही नहीं वरन् बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर हों और ये प्रयास मुझे स्वयं करने चाहिए। दूसरा कोई थोड़ी सी मदद कर सकता है परन्तु कोई भी अपने कंधे पर लादकर ऊपर के स्तर पर लेकर नहीं जायेगा। इसीलिये update और upgrade ये शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बदलते समय और परिस्थिति के अनुसार हम बदले नहीं तो पुरानी वस्तुएं जैसे “स्क्रैप” हो जाती हैं वैसे ही हमें भी स्क्रैप होने में समय नहीं लगेगा।
इस प्रकार आउटडेट अथवा स्क्रैप न होने के लिये हमें क्या करना चाहिये? ये संक्षिप्त में देखना-जानना उचित होगा –
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मन का खुला, विस्तृत होना।
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मासूम, निष्पाप बालक के समान नई-नई बातें देखना, समझना, सीखना।
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विविध प्रकार की कार्यशालाएं, कक्षाएं, बैठकों में सहभागी होना।
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प्रयोगशील व्यक्ति, संस्था, संगठनों से जीवंत संपर्क और सम्बन्ध रखना।
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प्रेरक साहित्य का अध्ययन।
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नया जानने हेतु वर्ष भर में कभी समय निकालकर यात्रा करना।
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यूट्यूब, गूगल जैसे नये तंत्राज्ञान की सहायता लेना।
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सकारात्मक विचार करने वाले, प्रयोग करने वालों से मित्रता रखना।
रेलवे स्टेशन के बूट पॉलिश वाले का ध्यान उसके सामने से निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पैरों की ओर ही रहता है। ये पैर मेरे ग्राहक बनेंगे क्या? यही विचार निरंतर उसके मन में रहते हैं। इसी प्रकार अपने को दिखने वाली प्रत्येक वस्तु और संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति मेरी शाला के लिये सहायक हो सकेगा क्या, ऐसा विचार होना चाहिये।
हम आउटडेट हुए तो अपनी शाला भी आउटडेट नहीं जायेगी क्या?
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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