भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-29 (प्राणमय कोश का विकास)

 – वासुदेव प्रजापति

प्राणों ब्रह्मेति व्यजानात्

इससे पूर्व की कथा में पिता वरुण के कहने पर भृगु ने तप किया और तप करके जाना कि अन्न ही ब्रह्म है। अन्न को ब्रह्म जानकर भी वह संशय से ग्रस्त हुआ, अन्न ही ब्रह्म क्यों है? अतः भृगु पुनः पिता वरुण के पास आया और अपना संशय बताकर ब्रह्म का उपदेश करने का निवेदन किया। संशय बताने के बाद भी पिता ने ब्रह्म का उपदेश न कर, यही कहा – तू  फिर से तप कर और तप से ही उस ब्रह्म को जान, क्योंकि तप से ही ब्रह्म को जाना जाता है।

पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर भृगु पुनः तप में लीन हो गया। उसने तप से जाना, प्राणों ब्रह्मेति व्यजानात्। अर्थात् प्राण ही ब्रह्म है, ऐसा जाना। क्योंकि निश्चय प्राण से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर प्राण से ही जीवित रहते हैं और मरणोन्मुख होने पर प्राण में ही लीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति, स्थिति और लयकाल में प्राणी जिसकी तद्रूपता का त्याग नहीं करते, यही उस ब्रह्म का लक्षण है। इस प्रकार ब्रह्म के सभी लक्षण उसे प्राण में घटित होते प्रतीत हुए। तब उसने माना कि प्राण ही ब्रह्म है।

प्राणायम कोश का स्वरूप

अन्नमय कोश में हमने जाना कि हमारा शरीर एक यंत्र है। कोई भी यंत्र बिना ऊर्जा के नहीं चलता। शरीर को चलाने के लिए भी ऊर्जा चाहिए, वह ऊर्जा है प्राण। जब शरीर में प्राण होते हैं, तब वह जीवित शरीर कहलाता है। जब प्राण शरीर को छोड़ देते हैं, तब वह मृत शरीर कहा जाता है। मृत शरीर हमारे किसी काम का नहीं होता, इसलिए हम उसे जला देते हैं। इस अर्थ में प्राण जीवनी शक्ति है।

प्राण शरीर से अधिक सूक्ष्म है। शरीर की भांति उसका कोई आकार नहीं है, प्राण तो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। शरीर के जिस अंग में प्राण नहीं होते, वह अंग मर जाता है, उसे भी काटकर फैंकना पड़ता है। अर्थात् प्राण शरीर के प्रत्येक अंश में होता ही है।

अधिकांश लोग श्वास को ही प्राण मानते हैं। किन्तु श्वास प्राण नहीं है, श्वास तो प्राण का वाहक है। जिस प्रकार बिजली (करंट) स्वयं प्रवाहित नहीं होती, धातु के तारों के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जाती है। उसी तरह प्राण भी श्वास के माध्यम से हमारे शरीर में आता-जाता है। श्वास के द्वारा हमारे शरीर में प्रविष्ट प्राण पूर्ण शरीर में रस, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि में अनुस्यूत होकर रहता है।

प्राण के चार आवेग हैं – आहार, निद्रा, भय और मैथुन। ये चारों आवेग प्राण धारणा के लिए अनिवार्य मूल प्रवृत्तियां हैं। यहाँ आहार से तात्पर्य है, अन्न, जल और वायु ग्रहण करना। निद्रा एक विश्रांति है। भय प्राण की मूल प्रवृत्ति है। और मैथुन इस शरीर के बाद दूसरे शरीर से प्राण का सम्बन्ध बना रहे इसकी व्यवस्था है।

सूर्य प्राणों का स्रोत है। हमें प्राण सूर्य से प्राप्त होते हैं। सूर्य से प्राप्त प्राण वायु के माध्यम से हमारे चारों ओर व्याप्त है। हम वायु में व्याप्त प्राणों को प्राणवायु के रूप में ग्रहण करते हैं। ग्रहण किया हुआ यह प्राण हमारे चेतातन्तुओं के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों के अनुसार प्राण के भिन्न-भिन्न नाम ये हैं – प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान।

प्राण के चार आवेग

ऊपर हमने जाना कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों प्राण के आवेग हैं। यहाँ हम प्राण धारणा हेतु इनका होना क्यों आवश्यक है, इसे समझेंगे।

आहार – अन्न, जल और वायु ये तीनों आहार माने गए हैं। इन तीनों के अभाव में प्राण शरीर में टिक नहीं सकता। शरीर को अन्न, जल और वायु न मिलने से शरीर और प्राण साथ-साथ नहीं रह सकते, उनका वियोग हो जाता है। शरीर और प्राण के वियोग को ही हम मृत्यु कहते हैं। इसलिए प्राणों को टिकाए रखने के लिए आहार अत्यावश्यक है।

निद्रा – काम करने से शरीर थकता है, उसे विश्रांति चाहिए। निद्रा बहुत अच्छी विश्रांति है। प्राण धारणा के लिए निद्रा भी आवश्यक है। बिना निद्रा के जीवन असंभव है। कुछ दिनों तक व्यक्ति को निद्रा न लेने दी जाय तो वह पागल हो जायेगा। अत: जीने के लिए निद्रा भी आवश्यक है।

भय – भय भी प्राण की मूल प्रवृत्ति है। प्राण धारणा के लिए सभी प्राणियों में यह मूल प्रवृत्ति पाई जाती है।

मैथुन – यह वंश परम्परा को चलाए रखने के लिए आवश्यक है। वंश परम्परा से ही जीवन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में एक व अखण्ड बना रहता है। यह मूल प्रवृत्ति कामेच्छा के रूप में जानी जाती है। यह अपने आप में बुरी बात नहीं है। यह सभी प्राणियों में पाई जाने वाली स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

प्राण की इन चारों मूल प्रवृत्तियों में प्रथम दो आहार व निद्रा का सीधा सम्बन्ध अन्नमय कोश के साथ है। आहार और निद्रा से अन्नमय कोश का सम्यक विकास होता है। तथापि शरीर के माध्यम से होने वाली ये प्राण की क्रियाएँ ही हैं। जबकि शेष दोनों भय और मैथुन का सम्बन्ध मनोमय कोश के साथ है। फिर भी ये प्राणिक आवेग ही हैं। भय प्राण रक्षा के भाव से प्रेरित है। सबको प्राण हानि का भय ही सताता है। सब प्रकार के भय के मूल में मृत्यु का भय ही रहता है।

प्राण रक्षा का ही दूसरा स्वरूप वंश परम्परा की प्रेरणा है। सबका शरीर एक दिन मृत्यु का ग्रास बनता ही है। उस स्थिति में उसी शरीर से दूसरा शरीर निर्माण करना, यह प्राण का ही आवेग हैं। यही प्राण रक्षा का दूसरा स्वरूप है। इसके लिए ही मैथुन है। यह मैथुन प्राण की मूल प्रवृत्ति है।

प्राणायम कोश के विकास से तात्पर्य

ऐसे प्राणमय कोश का विकास करना अर्थात् क्या करना? प्राणमय कोश के विकास से तात्पर्य है, प्राण बलवान होना, प्राण संतुलित होना और प्राण एकाग्र होना। जिस व्यक्ति में प्राण बलवान है, संतुलित है और एकाग्र है, उसका प्राणमय कोश विकसित है, ऐसा माना जाता है।

  1. प्राण बलवान होना – अर्थात् जीवनी शक्ति अधिक होना। यदि प्राण क्षीण है तो जीवनी शक्ति दुर्बल होती है। यह जीवनी शक्ति व्यक्ति में कार्यशक्ति, उत्साह, महत्वाकांक्षा, साहस, पराक्रम एवं विजिगीषा के रूप में प्रकट होती है। जैसे लाल-लाल, बड़े-बड़े, चमकदार टमाटर दिखने में तो सुन्दर दिखते हैं, किन्तु उनमें सत्त्व कम है तो उन्हें खाने से पेट तो भरेगा, परन्तु शरीर को पोषण नहीं मिलेगा। उसी प्रकार शरीर दिखने में तो सुन्दर हो सकता है, परन्तु प्राण बलवान नहीं होंगे तो उसमें जीवनी शक्ति कम होगी और वह व्यक्ति पराक्रम नहीं कर पायेगा।
  2. प्राण संतुलित होना – प्राण के बलवान होने के साथ-साथ उसका संतुलित होना भी आवश्यक है। शरीर में जिस अंग को प्राण की आवश्यकता हो, उसे समय पर आवश्यक मात्रा में प्राण मिल जाए, इस स्थिति को प्राण का संतुलित होना माना जाता है। जैसे भोजन करने के बाद पाचन तंत्र को अधिक प्राण शक्ति चाहिए, उसी प्रकार अध्ययन करते समय चेतातंत्र को अधिक प्राणशक्ति चाहिए। जब प्राणशक्ति नियंत्रित होती है, तब हम उसका उचित उपयोग कर सकते हैं।
  3. प्राण एकाग्र होना – जिस प्रकार मन को एकाग्र किया जाता है, उसी प्रकार प्राण को भी एकाग्र किया जा सकता है। मजदूरों को जब कोई भारी सामान उठाना होता है, तब वे होईशा-होईशा कहते हुए अपने प्राणों को एकाग्र करते हैं। प्राणों के एकाग्र होने से अधिक शक्ति प्रगट होती है, परिणाम स्वरूप वे भारी से भारी सामान को उठा लेते हैं।

प्राणमय कोश : विकास के तत्त्व

प्राणमय कोश के विकास का अर्थ हमने जाना। अब हम यह जानेंगे कि विकास किन-किन तत्त्वों से होता है? प्राणमय कोश का विकास करने वाले तत्त्व अधोलिखित हैं –

  1. शुद्ध प्राणवायु – प्राण वायु में रहता है, श्वास के माध्यम से शरीर में आता है। शरीर में आने वाला प्राण कैसा है? सामान्य रूप से शुद्ध वातावरण में 21% प्राण रहता है। अतः यह आवश्यक है कि जिस वातावरण में हम रहते हैं, जिस प्राणवायु को हम श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, उस प्राणवायु में 21% की मात्रा होनी चाहिए। तभी वह शुद्ध प्राणवायु होती है। अतः हमारा यह दायित्व बनता है कि हम वायुमंडल को शुद्ध बनाए रखें। वायु प्रदूषण होने ही न दें, यदि हो जाय तो उसे शीघ्र नष्ट कर दें।
  2. सही श्वसन क्रिया – श्वसन के द्वारा हम प्राण ग्रहण करते हैं। प्राण ग्रहण करने की प्रक्रिया यदि सही नहीं है और मार्ग में अवरोध खड़े हो जाते हैं तो प्राण सरलता से नहीं आ पाते। हमें लम्बी, गहरी व नियमित श्वास लेने की आदत बनानी चाहिए। ऐसी श्वास लें सकें इसके लिए सीधा बैठने का अभ्यास होना चाहिए। सीधा बैठने से श्वसन मार्ग में अवरोध खड़े नहीं होते। कफ के कारण श्वसन मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। अतः श्वसन मार्ग की शुद्धि आवश्यक है। प्रयत्न तो यह करना चाहिए कि कफ बनें ही नहीं।
  3. चेतातंत्र की शुद्धि – चेतातन्तुओं अर्थात् तंत्रिकाओं के आलम्बन से प्राण हमारे पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। चेतातन्तु जितने अधिक शुद्ध होते हैं, उतनी ही सरलता से प्राण शरीर के अंग-उपांग तक पहुँच जाता है। इसका दोहरा लाभ भी है कि प्राण से चेतातन्तुओं की शुद्धि भी होती है।
  4. प्राणायाम – प्राण का विकास करने वाला सर्वश्रेष्ठ एवं एकमेव मार्ग प्राणायम है। योगशास्त्र में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। प्राण को नियमित और नियंत्रित करने के अभ्यास से एकाग्रता लाकर अनेक प्रकार की सिद्धियाँ भी प्राप्त की जा सकती हैं।
  5. भोजन और निद्रा – भोजन और निद्रा जैसे शरीर को पुष्ट करते हैं, वैसे ही ये दोनों प्राण को भी पुष्ट करते हैं। इन तत्त्वों के द्वारा जब प्राणों का विकास होता है तो ऊर्जा बढ़ती है, ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव शुद्ध व सूक्ष्म संवेदन बनकर मन के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। इसी शुद्धि के परिणाम स्वरूप नेत्र निर्मल होते हैं, स्वर मधुर हो जाता है, मुख मंडल चमकता है, शरीर हल्का हो जाता है और पूर्ण आरोग्यता प्राप्त होती है।

प्राणमय कोश का यह महत्त्व समझकर हमें शिक्षाक्रम बनाना चाहिए।

मैं प्राण नहीं हूँ

भृगु ने तप करके जाना कि प्राण ही ब्रह्म है। इसका यह अर्थ हुआ कि मैं प्राण हूँ। जब हम स्वयं को प्राणयुक्त शरीर मानते हैं और प्राण के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। तब जीवन रक्षा ही हमारा एकमेव उद्देश्य बन जाता है, हमें लगता है कि मैं प्राण हूँ। इस स्थिति में हम जीवित रहने के लिए ही खाते-पीते हैं, सोते-जागते हैं और जीवन का प्रत्येक क्रिया-कलाप करते हैं। इसका सीधा सा अर्थ होता है कि हम प्राणमय कोश में जी रहे हैं।

प्राण के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के उपरांत भी वास्तविकता यही है कि हम प्राण नहीं है। प्राण तो एक स्तर का हमारा व्यक्त रूप है। इस तथ्य को नहीं जानना, यह हमारा अज्ञान है। फिर तो आप भी तप करके जानों कि आप कौन हैं?

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

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