– वासुदेव प्रजापति
आज का विषय प्रारम्भ करने से पूर्व एक संस्मरण का स्मरण कर लेते हैं –
मैडम मैं नाली बना रहा हूँ
यह संस्मरण लिखा है, मैडम मॉन्टेसरी ने, जो शिशु शिक्षा की विशेषज्ञ मानी गई हैं। वे एक विद्यालय के प्रांगण में कुर्सी पर बैठी हुई थीं। वह प्रांगण कच्चा था, लगभग ढ़ाई-तीन वर्ष आयु के शिशु मिट्टी के प्रांगण में कुछ क्रिया-कलाप कर रहे थे। मेडम बैठे-बैठे उन शिशुओं के क्रिया-कलापों को देख रही थीं। देखते-देखते उनकी दृष्टि एक शिशु पर ठहर गईं। अन्य शिशु जो-जो क्रिया-कलाप कर रहे थे, वे सब उनकी समझ में आ गये थे, किन्तु वह शिशु क्या कर रहा है? यह उनकी भी समझ में नहीं आ रहा था। इसलिए वे कुर्सी से उठीं और सीधे उस शिशु के पास जाकर खड़ी हो गईं। वे खड़ी-खड़ी यह समझने का प्रयत्न कर रही थीं कि यह शिशु आखिर कर क्या रहा है? परन्तु जब उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया, तब उन्होंने उस शिशु से पूछा – तुम क्या कर रहे हो? उसने सहज उत्तर दिया, “मैडम मैं नाली बना रहा हूँ”। नाली! नाली बनाने के लिए तो नहीं कहा था, फिर तुम नाली क्यों बना रहे हो?
वह ढ़ाई-तीन वर्ष का शिशु कहने लगा, देखो मैडम! इस चींटे की एक टांग टूट गई है। यह ठीक से चल नहीं पा रहा है, ऐसे में किसी का पैर इस पर आ गया तो यह बेचारा मर जायेगा। मैडम ने फिर पूछा, यह नाली बनाने से क्या होगा? मैडम! नाली बनने के बाद मैं इस चींटे को इस नाली में रख दूंगा। चींटा रेंगते-रेंगते यहाँ से दूर चला जाएगा, हम में से किसी का पैर भी उस पर पड़ा तब भी वह मरेगा नहीं। मोंटेसरी उस छोटे से शिशु का यह उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित हो गई।
मॉन्टेसरी इस संस्मरण में लिखती है कि उस शिशु का उत्तर सुनते ही मेरे मन ने कहा हो न हो यह शिशु हिन्दू होना चाहिए। मैडम ने अपने अनुमान की पुष्टि करने के लिए कक्षाध्यापिका को बुलाया। उस कक्षा की उपस्थिति पंजिका मॅंगवाई गई, उसमें शिशु की जानकारी पढ़ते ही पुष्टि हो गई कि वह हिन्दू ही है। आगे मॉन्टेसरी लिखती है कि इसके स्थान पर कोई अंग्रेज बालक होता तो वह उस चींटे को देखता, अपनी नाक-भौंह सिकोड़ता और आगे बढ़ जाता। अन्य कोई धर्मावलम्बी होता तो शायद उसकी दूसरी टांग भी तोड़ देता और मजे लेता कि अब देखता हूँ, कैसे चलता है?
इन छोटे-छोटे शिशुओं को यह व्यवहार किसी ने नहीं सिखाया, न विद्यालय ने और न घर वालों ने। यह तो इनका मूल स्वभाव है, जो इन्हें जन्मजात मिला है। इस जन्मजात स्वभाव को हमारे पूर्वजों ने चिति कहा है। किसी भी देश की शिक्षा उस देश की चिति के अनुरूप होने से ही उस देश की राष्ट्रीय चेतना एवं परम्पराएं टिकी रहती हैं। अतः प्रत्येक देश की शिक्षा उसकी राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने वाली होनी चाहिए।
प्रतिमान का अधिष्ठान : जीवन दर्शन
आज विद्वज्जन क्या आमजन भी शिक्षा से संतुष्ट नहीं हैं। क्योंकि आज की शिक्षा व्यक्ति जीवन और राष्ट्र जीवन की समस्याएँ दूर करने के स्थान पर बढ़ाती जा रही है। राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करने वाले शिक्षाविदों की तो यह मान्यता है कि गत दो सौ वर्षों से भारत की शिक्षा उल्टी पटरी पर चल रही है। शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को सुदृढ़ करने का काम करती है। शिक्षा यह काम तभी कर पाती है, जब वह राष्ट्र की जीवनशैली पर आधारित होती है। आज की शिक्षा का भारतीय जीवनशैली से सम्बन्ध बिखर गया है। शिक्षा हमारी जीवनशैली में, विचारशैली में ऐसे-ऐसे परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही जीवनशैली से दूर हटते जा रहे हैं और उसके प्रति हीनता बोध से ग्रस्त हो गये हैं, और पाश्चात्य जीवनशैली को अपनाते जा रहे हैं। हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है, फलत: समाज जीवन में सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं।
शिक्षा का भारतीय प्रतिमान : समग्र विकास
अभारतीय जीवनशैली के परिणाम स्वरूप ज्ञान के क्षेत्र में भारतीय और अभारतीय ऐसे दो भाग हो गए हैं। आज भारतीय ज्ञानधारा के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हो गए हैं, और दोनों का मिश्रण हो गया है। चारों ओर भ्रम फैला हुआ है, उचित-अनुचित, सही-गलत और करणीय-अकरणीय का विवेक लुप्त हो गया है। धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर सरकार से सहायता की कामना कर रहे हैं। इस परिस्थिति में शुद्ध भारतीय ज्ञान को आज की शिक्षा में पुनर्प्रतिष्ठित करना हमारा दायित्व है।
“व्यक्ति के विकास का भारतीय प्रतिमान “समग्र विकास प्रतिमान” है। इसके दो आयाम हैं – पंच कोशीय विकास और परमेष्ठीगत विकास। जहां पंच कोशीय विकास व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है, वहीं परमेष्ठीगत विकास उसका समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास है।
प्रथम आयाम : पंचकोशीय विकास
पंचकोशीय विकास का अर्थ है, पांच कोशों का विकास करना। ये पांच कोश क्या हैं? तैत्तिरीय उपनिषद् हमें बताते हैं कि व्यक्ति का व्यक्तित्व पांच कोशों से निर्मित है। इन पांच कोशों के नाम ये हैं – १. अन्नमय कोश २. प्राणमय कोश ३. मनोमय कोश ४. विज्ञानमय कोश ५. आनन्दमय कोश।
व्यक्तित्व के पांच कोश हैं। यहां कोश शब्द से क्या तात्पर्य है? व्यक्तित्व की पंचकोणीय अवधारणा में कोश का अर्थ है आवरण, कोश का अर्थ है स्तर। हमारे उपनिषद बताते हैं कि हमारी आत्मा के ऊपर पांच आवरण हैं या हमारी आत्मा के पांच स्तर हैं। भीतर से बाहर के क्रम में बताना हो तो आत्मा के ठीक ऊपर आनन्दमय कोश, उसके ऊपर विज्ञानमय कोश, विज्ञानमय के ऊपर मनोमय कोश, मनोमय के ऊपर प्राणायम कोश और प्राणायम के ऊपर बाहरी आवरण है अन्नमय कोश। अन्नमय कोश स्थूल है और बाहर है, इसलिए हमें दिखाई देता है। शेष चारों कोश अन्नमय कोश(शरीर) के भीतर हैं और सूक्ष्म हैं, इसलिए हमें दिखाई नहीं देते।
इन पांचों कोशों का अर्थ भी हम जान लें – अन्नमय कोश का अर्थ है शरीर, प्राणायम कोश का अर्थ है प्राण, मनोमय कोश का अर्थ है मन, विज्ञानमय कोश का अर्थ है बुद्धि और आनन्दमय कोश का अर्थ है चित्त। अर्थात् शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त का विकास करना ही सर्वांगीण विकास है। व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ही पंचकोशीय विकास है।
द्वितीय आयाम: परमेष्ठीगत विकास
व्यक्तित्व विकास का भारतीय प्रतिमान है, समग्र विकास। समग्र विकास के दो आयामों में से पहला आयाम हमने जाना। अब दूसरे आयाम परमेष्ठीगत विकास को जानेंगे। परमेष्ठीगत विकास के चार चरण हैं – १. व्यष्टि २. समष्टि ३. सृष्टि ४. परमेष्ठी । व्यष्टि अर्थात् व्यक्ति, समष्टि अर्थात् समुदाय, सृष्टि अर्थात् प्रकृति और परमेष्ठी अर्थात् परमात्मा। समष्टि में चार इकाइयां आती हैं, १. परिवार २. समाज ३. देश ४. विश्व। इनका विचार भी हम समष्टि के अन्तर्गत करेंगे।
परमेष्ठीगत विकास से तात्पर्य है व्यक्ति का व्यक्ति के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास करना, व्यक्ति का समुदाय के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास करना, व्यक्ति का सृष्टि के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास करना और व्यक्ति का परमात्मा के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास करना ही परमेष्ठीगत विकास कहलाता है।
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि व्यष्टि का समष्टि, सृष्टि और परमेष्ठी के साथ सामंजस्य बैठाना क्यों आवश्यक है? हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्षों के अनुभवों के बाद जीवन जीने के अनमोल सूत्र बताएं हैं। उनमें से एक सूत्र है, “सर्वं खलु इदं ब्रह्म”। इस जगत में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब ब्रह्म ही है। अर्थात् सबमें उस परमात्मा को देखना। परमात्मा की इस सृष्टि में व्यक्ति सबसे श्रेष्ठ है, परन्तु वह अपनी हर छोटी-बड़ी आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर सकता। भूमि से उसकी अन्न-जल, कपड़ा, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। सम्पूर्ण वनस्पति भूमि से ही मिलती है। पंचमहाभूतों के बिना जीवन असंभव है। गाय-बैल, घोड़ा-हाथी जैसे प्राणी उसकी सहायता करते हैं। इन सबके बिना उसका जीवन नहीं चल सकता, सबके सहयोग से ही जीवन चलता है। इसलिए इन सबके साथ सामंजस्य बैठाना व्यक्ति की परम आवश्यकता है।
शिक्षा व्यक्ति को सबके साथ समायोजन सिखाती है
इस प्रकार शिक्षा का व्यक्ति जीवन में विशिष्ट स्थान है। व्यक्ति को स्नेह, प्रेम, मैत्री और सहयोग चाहिए। ये सब उसे अन्यों से ही मिलते हैं। यदि वह अन्यों से मेलजोल नहीं रखेगा तो अकेला पड़ जायेगा और अकेला रहकर वह पागल हो जायेगा। इसलिए उसे सबके साथ रहना आना चाहिए, और साथ रहना यह शिक्षा सिखाती है। परन्तु सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है। यह समायोजन एक साधना है, यह साधना शिक्षा ही सिखाती है। परमेष्ठीगत विकास से यह समायोजन आता है।
यह है शिक्षा के भारतीय प्रतिमान “समग्र विकास” का संक्षिप्त परिचय। यह प्रतिमान विद्यार्थी को केवल केरियरीस्ट नहीं बनाता, अपितु यह तो उसके शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त का विकास करता है। यह प्रतिमान उसे अहं से त्वम्, त्वम् से वयं और वयं से सर्वं तक ले जाता है। यह उसे केवल मैं और मेरा परिवार तक संकुचित न रखकर उसे “वसुधैव कुटुंबकम्” का पाठ पढ़ाता है। यह प्रतिमान व्यक्ति को जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य परमेष्ठी तक पहुँचता है। इस प्रतिमान की मुख्य विशेषता है कि यह भारतीय जड़ों से जुड़ा हुआ है और भारतीयता से जोड़ने वाला है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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