– रवि कुमार
‘बाल केंद्रित क्रिया आधारित शिक्षा’ यह सर्व विदित है। इसका अर्थ भी सब समझते है। परंतु इसका व्यवहार रूप देखने को कम मिलता है। इसे कक्षाकक्ष में उतारने के लिए दो बातें है – पाठन पद्धति व विषय वस्तु। पाठन पद्धति यानि किस प्रकार से शिक्षण का कार्य हो रहा है और विषय वस्तु यानि जो शिक्षण में दिया जा रहा है। इस लेख में हम पाठन पद्धति के प्रमुख आयामों की चर्चा करेंगे।
पाठन पद्धति के चार प्रमुख आयाम है –
१ कंठस्थीकरण
२ अभ्यास
३ कौशलों का विकास
४ स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता
कंठस्थीकरण : कंठस्थ करना यानि कंठ के अंदर लेना। आजकल रटना शब्द ज्यादा प्रचलित है और व्यवहार में भी अधिक है। शिक्षक व अभिभावक सभी को लगता है कि आज के समय में रटना आवश्यक है। यहां हम कंठस्थ करने की बात कर रहे है, रटने की नहीं। आज से पूर्व की पीढ़ी से जब पूछते है कि विद्यालय समय में जो कंठस्थ किया और आज भी कंठस्थ है, सुना सकते है, बताएं। तो वे अनेक ऐसी विषय वस्तु सुनाते है जो बाल्यकाल में कंठस्थ की थी। यथा – कबीर-रसखान-तुलसी के दोहे, श्लोक, मंत्र, कविताएं आदि अनेकनेक। 20 संख्या तक पहाड़े तो सभी को स्मरण रहते है। डेढ़, ढाई, आधा, पौना के पहाड़े भी कुछ को स्मरण मिलते है। उन्हें आजतक स्मरण है और आज की पीढ़ी को केवल परीक्षा तक। कारण आजकल रटना होता है और पहले कंठस्थ करना।
एक वर्ग में रामलीला के विषय में चर्चा हुई। भारत में ग्रामीण व नगरीय आँचल में सर्वदूर रामलीला की परंपरा है। वर्ग के प्रतिभागियों से पूछा गया कि रामलीला में किस-किस ने अभिनय किया है। कुछ ने हाथ उठाया। उनमें से किसी एक को उस अभिनय के दौरान जो बोला जाता था, उसे बोलने का मौका दिया। रामलीला में परशुराम-लक्ष्मण संवाद आता है। एक प्रतिभागी ने लक्ष्मण का अभिनय किया था। इन्होंने अपना संवाद बोला। साथ ही दूसरा एक प्रतिभागी जिसने परशुराम का अभिनय किया होगा। स्वतः ही बोलना प्रारम्भ हो गया। काफी देर तक संवाद चलता रहा। बिना देखे परशुराम-लक्ष्मण संवाद देर तक बोलना सभी के लिए आश्चर्य की बात थी। क्योंकि दोनों प्रतिभागियों को कंठस्थ था, इसकारण बिना बाधा के वे बोल पाए।
बाल अवस्था की शिक्षा में कौन-कौन सी विषय वस्तु को कंठस्थ करवाना, यह चिन्हित कर उसे शिक्षण में सम्मिलित करना आवश्यक है। छोटी आयु में समझ कम होती है परन्तु स्मृति तेज होती है। इसका लाभ उठाकर कंठस्थीकरण को पाठन पद्धति का अंग बनाया जाए। आयु बढ़ती है तो समझ विकसित होती जाती है और स्मरणशक्ति कम होती जाती है। जो बातें समझने लायक है उन्हें कंठस्थ नहीं करना बल्कि उन्हें समझने पर जोर देना। परन्तु जो बातें याद करना है उन्हें कंठस्थ ही करना चाहिए।
अभ्यास : यह एक आवश्यक आयाम है बाल शिक्षा में। परंतु आजकल इसका रूप बदल गया है जिससे कठिनाई हो गई है। आजकल अभ्यास का अर्थ बार-बार टेस्ट लेना हो गया है। अभ्यास का अर्थ है जो एक बार सीखा उसे बार बार करके देखना जब तक वह पक्का न हो जाए। गणित में एक सूत्र के आधार पर प्रश्न हल किया। जब तक अनेक प्रश्नों को हल नहीं करेंगे और बार-बार नहीं करेंगे तो अभ्यास कैसे होगा। एक गीत सीखा, बार-बार उसे गाने से यानि अभ्यास करने से वो पक्का होगा और वर्षों तक गीत स्वर सहित स्मरण रहेगा। अभ्यास बार-बार टेस्ट के रूप में नहीं बार-बार करने के रूप में शिक्षण में सम्मिलित होने चाहिए।
“करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात के सिल पर परत निशान।।”
वर्तमान मानसिकता में अभ्यास को आदरपूर्वक नहीं देखा जाता। अल्प अभ्यास से संतुष्ट होना आम प्रवृति हो गई है। दीर्घ अभ्यास को सहज माना जाना चाहिए। एक ही क्रिया बार बार करने पर यांत्रिकता आती है और यांत्रिकता आते ही सीखना बंद हो जाता है। अभ्यास को यांत्रिकता से बचाना अध्यापकों का दायित्व है। बालक निश्चिंतता, सुख, आराम से तथा मनोयोगपूर्वक अभ्यास हो सके इसलिए समय, सुविधा, सहयोग और मार्गदर्शन की आवश्यकता रहती है।
कौशलों का विकास : बालक में विभिन्न प्रकार के कौशलों की संभावना रहती है। उन्हें विकसित करने के लिए अवसर मिलना आवश्यक है। यहां तीन प्रकार के कौशलों पर विचार करेंगे – एक, हस्त कौशल, दूसरा वाणी कौशल, तीसरा पैर का कौशल। हस्त कौशल यानि हाथों की कुशलता; वाणी कौशल यानि बोलने की कुशलता। सुंदर लेखन, सीधी, आड़ी, तिरछी, वक्र रेखाएं खींचना, गांठ लगाना, रंगोली में रंग भरना, फुल चुनना, कपड़े व्यवस्थित करना, मिट्टी को आकृति देना, कोई वस्तु या कागज चिपकाना, सज्जा करना, कागज से आकृति बनाना आदि अनेक क्रियाएँ है जो हस्त कौशल विकसित करती है। शुद्ध उच्चारण व सस्वर गायन, किसी की आवाज नकल करना, धारा प्रवाह बोलना आदि क्रियाएँ वाणी के कौशल को विकसित करने के लिए आवश्यक है। सुंदर ढंग से खड़े रहना, चलना, कूदना, दौड़ना, हाथ में प्याला लेकर रेखा पर बिना पानी गिराए चलना आदि पैर के कौशल विकास के लिए है।
इन सब कौशलों के विकास से बड़े-बड़े कार्य करने की आधारभूत तैयारी होती है। शरीर सद्धता है, मन एकाग्र होता है, बुद्धि का विकास होता है, आनंद आता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। जीवनभर के अनेक प्रकार के व्यवहारों और अध्ययन के लिए अति आवश्यक कौशलों को हस्तगत करना बाल अवस्था में ही संभव है।
स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता : ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक विकास के लिए ये तीनों आवश्यक है। कोई भी क्रिया जितनी सही ढंग से करनी आवश्यक है, उतना ही अपने ढंग से करना आवश्यक है। क्रिया को बांध देने से वह पूर्णता की ओर नहीं बढ़ती है। न ही उसमें नवीनता आती है। जैसे चित्र बनाना यदि बताया तो बालक को स्वतंत्रता से करने दीजिए उसे बांधे मत। जो उसकी कल्पना में आएगा वह चित्रित होगा। चित्र उस बालक की मौलिकता को प्रकट करेगा। निबन्ध रटने की बजाय किस प्रकार लिखते है यह बालक को सिखाएं और उसकी कल्पना को शब्दों में पिरोने दे। कहानी में से उसे स्वयं प्रश्न बनाने दे और उसका उत्तर भी स्वयं ही ढूंढने दे। पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए यह तीनों आवश्यक है।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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