शिक्षक कक्षा या विषय के नहीं, विद्यार्थी के!

– अवनीश भटनागर

गुरु पूर्णिमा महोत्सव है। प्रतिवर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को यह उत्सव मनाया जाता है।

इसे उत्सव क्यों कहा जाए? क्योंकि इसी दिन शिष्य अपने गुरु का पूजन कर, अभ्यर्थना कर अपने आपको धन्य अनुभव करता है। एक लम्बा समय गुरु के सान्निध्य में, उनके अनुशासन में रहकर वह जीवन में अपनी भूमिका ग्रहण करने के लिये तैयार होता है।

भारतीय चिंतन में माता प्रथम गुरु तथा गुरु द्वितीय माता है। उपनिषद कहता है, उपनयन संस्कार द्वारा गुरु एक प्रकार से शिष्य को अपने गर्भ में धारण करता है, ज्ञानामृत पिलाकर उस हाड़-मांस के पुतले को सर्वार्थ में मनुष्य बनाता है। वह दूसरा जन्म लेता है, ‘द्विज’ कहलाता है। गुरु के सान्निध्य में आने पहले तो उसकी स्थिति यही थी –

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिः नराणां ।

धर्मोहितेषां अधिकोविशेषो धर्मेणहीना: पशुभि: समाना: ।।

प्राचीन काल में गुरु पूर्णिमा शिष्य की शिक्षा के प्रारम्भ तथा समाप्ति का दिन होता था। अपने माता-पिता के लाड-प्यार में पला बालक आठ-नौ वर्ष की आयु में आचार्य के आश्रम में आ जाता था। फिर लम्बे समय तक निश्चित दिनचर्या, उपासना, ज्ञान प्राप्ति, भिक्षाटन आदि ही उसका क्रम था। चूँकि अनगढ़ हीरे को तराशना है, कच्ची मिट्टी से ईश्वर प्रतिमा गढ़नी है, अतः भीतर से कोमल और बाहर से कठोर, नारियल की भांति गुरु का व्यवहार होता था।

वास्तव में, ज्ञान पुस्तकों से कम तथा व्यवहार, आचरण तथा अनुभव से अधिक प्राप्त होता है। छात्र गुरु की दिनचर्या देखता था। तीन-चौथाई तो वह उनके साथ रहकर ही सीखता था। पुस्तकों से तो केवल एक चौथाई ज्ञान ही मिलता था। गुरु पूर्णिमा के दिन ही उसकी शिक्षा पूर्ण होने पर दीक्षा दी जाती थी। वह दीक्षित होकर स्नातक कहलाता था, समाज में प्रतिष्ठित होता था। वह किस गुरु का शिष्य है, यह समाज में उसकी प्रतिष्ठा का विषय होता था।

शिक्षण की यह पद्धति भारत में प्राचीन काल से चली आई थी। देश-विदेश के छात्र यहाँ आकर अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करते थे तथा अनुभव-सिद्ध होकर उसे अपने आचरण एवं प्रवचन के द्वारा सर्वत्र वितरित करते थे। उन्हें परिव्राजक कहा जाता था । ऐसा नहीं कि गुरुकुल में केवल अध्यात्म एवं परा-विज्ञान की ही शिक्षा होती थी, जीवन के सामान्य व्यवहार की रीति-नीति तथा विधियों को भी वह समझता था, जीवन का उद्देश्य तथा तदनुसार व्यवहार का ज्ञान भी उसे मिलता था।

आज परिवेश बदल गया है। आधुनिक शिक्षा-पद्धति में कक्षा-कक्ष के भीतर ज्ञान प्रदान किया जाता है, जोकि वास्तव में जानकारियों का संग्रह होता है, ज्ञान नहीं। छात्र उसे सुनकर-लिखकर याद कर लेता है, रट कर परीक्षा में अच्छे अंक ले आता है किन्तु जीवन में उस जानकारी का उपयोग न्यूनतम होता है। वह केवल उपाधि-धारण के लिए, रोजगार पाने के लिये होता है। भावी जीवन में किये जाने वाले व्यवहार से उस शिक्षण का कोई सम्बन्ध नहीं होता। ऐसे पढ़े-लिखे कहलाने वाले किंतु व्यावहारिक ज्ञान से शून्य व्यक्ति समाज पर, देश पर भार ही होते हैं।

किन्तु इसमें उनका क्या दोष? वे तो कोरी स्लेट के जैसे आए थे। जो सिखाया गया, सीखा। असल जिम्मेदारी तो शिक्षक की है।

वास्तव में शिक्षा का कोई एक विषय नहीं होता। विषय तो छात्र और शिक्षक के बीच संवाद का सेतु है। छात्र तो शिक्षक के व्यक्तित्व, रहन-सहन, वेश, भाषा, स्वभाव, चरित्र से सीखता है। अतः शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसका आचरण, भाषा-भूषा, व्यवहार शालीन हो। ये बातें केवल बाहरी तो हो नहीं सकती! जब तक शिक्षा शिक्षक एवं शिष्य, दोनों के मन, बुद्धि, आत्मा के अनुकूल न हो, तब तक उसका उचित प्रगटीकरण संभव नहीं।

शिक्षा छात्र के व्यक्तित्व के समग्र विकास का नाम है। व्यक्तित्व-विकास का अर्थ है – शरीर, प्राण शक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा आदि का विकास । शरीर स्वस्थ-निरोग हो, मन संयमित एवं संवेदनशील हो, बुद्धि प्रखर हो, विश्लेषणात्मक हो, अच्छे बुरे का निर्णय कर सके।

अच्छे-बुरे का निर्णय बुद्धि करे, यह उसे प्राप्त होने वाले संस्कारों पर निर्भर है। संस्कार ग्रहण किए जाते हैं, अत: उनके लिए अनुकूल वातावरण हो; और यह भी केवल विद्यालय में नहीं विद्यार्थी के घर का वातावरण भी इसके अनुकूल हो। यदि घर के वातावरण तथा विद्यालय के वातावरण में विभेद होगा तो छात्र दिग्भ्रमित हो जाएगा। विद्या भारती के विद्यालयों में इसी कारण अभिभावक सम्पर्क का आग्रह किया जाता है। शिक्षक अभिभावकों से मिलकर उन्हें भी विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा तथा संस्कारों के अनुकूल बनाता है तथा तदनुसार व्यवहार का आग्रह करता है।

विद्यालय की पाठ्य-सहगामी गतिविधियाँ छात्र के चरित्र-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कक्षा में अध्यापन करते समय शिक्षक प्रत्येक छात्र के रुचि, स्वभाव, क्षमता आदि का भी अध्ययन करता है तथा उसे उस दिशा में आगे बढ़ाने के अनुकूल गतिविधियों को प्रोत्साहित करता है। धीरे-धीरे जैसा शिक्षक चाहते हैं, छात्र में वैसे परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं।

परीक्षा विषयों की होती है, छात्र उसमें उत्तीर्ण होता है किन्तु उसका जीवन संग्राम में उत्तीर्ण होना ही शिक्षक की सफलता है। कई बार शिक्षकों के साथ बैठक में “कितने छात्र किस श्रेणी से उत्तीर्ण हुए”; ऐसा पूछने पर शिक्षक उत्तर देते हैं कि चालीस में से पांच अनुत्तीर्ण हुए। विचार कीजिये, क्या छात्र अनुत्तीर्ण हुए या तृतीय श्रेणी में आए? मुझे लगता है वास्तव में छात्र नहीं, शिक्षक उतने प्रतिशत अनुत्तीर्ण हुए या तृतीय श्रेणी में आए।

शिक्षक जैसा चाहेंगे, छात्र वैसा ही निर्मित होगा। वह तो मात्र प्रतिबिम्ब है शिक्षक का। अतः शिक्षा में परिवर्तन लाने हेतु शिक्षक को स्वयं में परिवर्तन लाना होगा। तभी शिक्षा अपने उद्देश्य में सफल होगी।

शिक्षक छात्र का विकास कर सकें, इसके लिए उन्हें तो तैयार होना ही होगा किन्तु समाज भी शिक्षक का आदर एवं सम्मान करे, यह अधिक आवश्यक है। आजकल किसी भी प्रकार के सरकारी कार्य के लिए शिक्षकों का उपयोग किया जाता है। उन्हें समाज में बहुत सम्मान भी नहीं मिलता । सरकार भी शिक्षा कार्य को प्राय: अन्तिम प्राथमिकता में रखती है। जब समाज एवं सरकार शिक्षक की चिन्ता करेंगे, उसे सम्मान प्रदान करेंगे तभी शिक्षक भी अपनी पूर्ण-शक्ति से अपने छात्र में अभिव्यक्त होगा।

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय महामंत्री है।)

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