आचार्य – सांदीपनि कुल के सारस्वत अनुष्ठान का शलाका पुरुष

 – शिरोमणि दुबे

 

बन्धुओ! भारत दुनियां का अनादि राष्ट्र है। सर्वप्रथम अरुणाचल के आंगन में आदित्य देव की अरुणिम आभा सम्पूर्ण तेज के साथ चमक उठी थी। दुनियां के बाकी देश भोग की भूमि है। भारत स्वाहा-स्वधा की भूमि है, अर्पण-तर्पण की भूमि है। हम सबका भाग्य है कि हमें ऐसे देश में जन्म लेने का अवसर मिला है जहाँ राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए राष्ट्रभक्तों की टोलियां भवानी भारती की आरती में युवानी का नैवेघ सजाकर झूम के गुनगुनाते हैं-

कुछ कली चढ़ी कुछ पुष्प चढ़े, कुछ समय से पहिले बिखर गये।

हमको दो वरदान यही मां, लड़ते-भिड़ते चढ़ते जायें।

हम भी उनसे सीखें इतना, निज जीवन पुष्प चढ़ा पायें।

मां! तेरी पावन पूजा में, हम केवल इतना कर पायें।

हम सभी का बड़ा सौभाग्य यह भी है कि हमें मनुष्य जीवन मिला है। ऐसा जीवन जो न केवल अनुपमेय है वरन विधाता की सर्वोत्तम कृति है। सृष्टि के सृजनहार की समष्टि को सर्वमंगलमई सगुण आदरांजली है। हमारे जीवन का एक वैशिष्ट्य और भी है कि इन्ही अनगढ़ रचनाओं को शिक्षा-संस्कारों की तपिस से उनके आड़े-तिरछे, कौने-किनारों को छील कर सत्यं, शिवं, सुन्दरम् इस प्रकार की प्राणवंत प्रतिमा के निर्माण का अवसर हम सब आचार्यों को मिला है। हां! लेकिन अतीत का एक सच यह भी है कि जब-जब ज्ञान की ये व्यासपीठ कलंकित हुई है उन राष्ट्रों का न इतिहास बाकी रहा और न भूगोल सुरक्षित रह सका।

आचार्य कोई पद नहीं है, पदवी भी नहीं है। वह कोई अलंकरण-आवरण भी नहीं है। वह टीचर-मास्टर तो कतई नहीं है, वह उपदेशक भी नहीं है। ‘आचरति इति आचार्यः’ – आचरण का नाम आचार्य है। जो स्वयं के जीवन से सिखाता है वह आचार्य है। हमारे देश में आचार्य की दो धाराएँ रही है। एक आचार्य द्रोण की परम्परा है जो सिंहासन से बंध कर अन्याय, अधर्म की चौखट पर नाक रगड़ने के लिए विवश-परवश दिखाई देती है। दूसरी आचार्य चाणक्य की परम्परा है जो सत्ता सिंहासनों को ठोकर मारकर सामान्य से परिवार में जन्मे चरवाहे के पुत्र चन्द्रगुप्त को मगध का साम्राज्य सौप देती है। अनादि काल से चलती आई चाणक्य परम्परा के खरल में कुटे हुए सन्यासी सूरमा अपना सर्वोत्तम न्योछावर करने के लिए आज भी आतुर दिखाई देते है। मित्रो! समाधियां उन्हीं की महकती है जो समिधा बनकर राष्ट्र देवता के चरणों में अपना सर्वस्व होम करते है –

इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है

मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ , इतना ही तरल छलकता है।

बन्धुओ! महापुरुष पैदा नहीं होते। वे आचार्यो, उपाध्यायों के चरणों में बैठकर महामानव बनते है। शकुंतला अपने लाड़ले को सिंह शावक की दंत पंक्ति को गिनने का आदेश देती है तब भरत पैदा होते हैं। पारस परमहंस के स्पर्श मात्र से नरेन्द्र को विवेकानंद बनते दुनिया ने देखा है। शिवाजी को यदि समर्थ गुरु का साया न मिला होता तो शायद देश एक छत्रपति को खो चुका होता। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे आचार्य कुल अब दिखाई नहीं देते। सृजन के संस्थान सहमें से लगते हैं। चेतना की शताब्दी का आध्यात्मिक स्वर कहीं गहरे मौन में खो गया है। आज देश को विश्वविद्यालयों में एक अदद विश्वामित्र की तलाश है जो धनुर्धारी राम दे सके। एक सांदीपनि कुल की प्यास है जहाँ आध्यात्मिकता के तपोवन का कृष्ण अर्जुन को धर्मयुद्ध का पाठ पढ़ाता है।

मित्रो! नहीं चाहिए देश को ऐसे शिक्षक जो शिक्षा को रोटी के लिए रोजगार का जरिया मान बैठे हैं। देश को ऐसे शिक्षक स्वीकार नहीं है जिनके लिए हर महीने की एक तारीख महोत्सव जैसी होती है, जिनकी उपाधियां-अलंकरण आदि जुटाने भर के लिए होती है। अलमारी में सजे हुए पदकों की कतारें कितनी ही लम्बी क्यों न हो यदि शिक्षक शिष्य की सूरत-सीरत नहीं बदल सका तो उसका जीवन किसी नाटक में लिखी गई पटकथा से अधिक कुछ भी नहीं हो सकता। हमें ऐसे लोग चाहिए जो समाज का शिक्षक बनने का माद्दा रखते हों। वे समाज जागरण के पुरोधा बन सकें। संस्कारों की विरासत को समेटे ऐसे सुदामा शिक्षक चाहिए जो दिगम्बरी जीवन की मिशाल बन जाते हैं। जो अपनी भार्या को भी दो टूक कह देते हैं –

सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।

जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा ।।

मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।

औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा।।

आचार्य वृत है व्यवसाय नहीं है, वह विद्या का व्यापारी नहीं है, आचार्य संकल्प है भारत को जगद्गुरु बनाने का। आचार्य जुनून है ऐसे भारत के निर्माण का जिसकी ओर दुनियां की कोई दुष्ट ताकत भ्रकुटी टेढ़ी करके देख न सके। कच्छ-कठियावाढ़ से लेकर कामरुप तक और कैलाश से कन्याकुमारी तक एक समरस-समर्थ भारत के निर्माण की जिद है आचार्य। वह इस सृष्टि का सर्जक, पालक और संहारक भी है। उसकी गादी गोविन्द से ऊँची है-

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

आचार्य अहं से वयं और वयं से विराट के भाव निर्माण का विश्वकर्मा है। वह निःशब्द नहीं है। जब भारतीय वाङ्मय उसकी वाणी से झरने लगता है तब शंकर के डमरु से निकली नाद परम्परा का प्रवाह लोक कल्याणकारी बन जाता है। शिक्षा उसके के लिए बाजार नहीं है कोर्इ्र उसके ज्ञान को कोड़ियों में मोल करले वह उसे स्वीकार नहीं है। नहीं चाहिए उसे अश्व, गज, प्रासाद, परकोटे। उसका जीवन रहवरी का राग है। तभी तो कोई निराला, बड़े-बड़े सत्ता प्रतिष्ठानों के आमत्रंण को ठुकरा देता है उसकी जिंदगी का फक्कड़पन ऐसा कि फकीरी भी शर्माती है-

अजब ही मजा है फकीरी का अपना

न पाने की चिंता न खोने का गम है।

बन्धुओ! आज देश का जन-मन आहत है। आक्रोश का धधकता दाबानल कब तटबंधों को तोड़कर विनाश का दृश्य खड़ा कर देगा शायद अब किसी को भी पता नहीं है। आखिर सहने की सीमा होती है जिन्हें सरहदों की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी जानी है वे अग्निवीर अपने राजनैतिक आकाओं के इशारों पर आग लगाने में लगे हुए हैं। उदयपुर (राजस्थान) से अमरावती (महाराष्ट्र) तक गड़ासों से गरदने उड़ाने के तालिवानी फरमानों से कातिलों के पैशाचिक कृत्यों पर पर्दा डालने की कोशिश हो रही हैं। हालाकि आलेख लिखे जाने तक महाराष्ट्र का परिदृश्य बदल चुका है। समाज का अभिजात्य बर्ग किसी वैचारिकी के चलते बौने लोगों की बिरुदाबलियां गाने के लिए बेबश सा लगता है। अमीरी और गरीबी के बीच का फासला इतना बड़ा हो चला है कि गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से निकलने वाले शोर में झोपड़ी की वेदनाऐं कहीं गुम हो गई हैं।

कुछ यक्ष प्रश्न और भी हैं जिनके समाधान तलाशे जाने चाहिए। आखिर देश की पीढ़ियों को आज तक क्यों नहीं पढ़ाया गया कि भारत सपेरों, लुटेरों, मदारियों की जागीर नहीं है। राष्ट्र की धमनियों में राम, कृष्ण, गौतम, नानक का लहू दौड़ता है। कौन सी मजबूरी रही होगी कि हम देश के जनमन को आश्वस्त नहीं कर पाए कि गौरी, गजनी, गोरे हमारे हीरो नहीं है भारतीय संस्कृति का हरावल दस्ता प्रताप, शिव के शौणित की सुगंध से महकता है। मैं सभी आचार्यो, उपाध्यायों, लोकमान्य शिक्षकों का आह्वान करता हूँ। परिस्थितियां सामान्य नहीं है, चुनौतियां बड़ी है। चेलों को चाकरी के लायक बना देने से वह अपना पेट तो भर सकता है परन्तु राष्ट्र की अस्मिता को बचाने के लिए किसी सुभाष को अंग्रेजों की चाकरी लतियानी ही पड़ती है। तटस्थता जीवन का श्रंगार नही हो सकता। समन्दर में उठने वाली हिलोरों केा शांत भाव से गिनते रहना शिक्षक की नियति नहीं हो सकती उसकी नियति यही है कि वह या तो जीवन समर का विजेता होगा या फिर यम मार्ग का मुक्तिचेता बनेगा। एक लोकप्रिय आचार्य जिंदगी की सांझ तक इसी संकल्प को दुहराता चलता है –

जब तक दुःशासन है वेणी कैसे बंध सकती है।

कोटि-कोटि संतति है माँ की लाज न लुट सकती है।।

(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रान्त के प्रदेश सचिव है।)

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