– रवि कुमार
भोजन का भी एक संस्कार होता है। आजकल के भाग-दौड़ वाले जीवन में यह संस्कार धूमिल होता दिख रहा है। भोजन क्यों ग्रहण करना? प्रभु ने हमें यह मानव शरीर दिया है। उसका पालन-पोषण व रक्षण और कोई नहीं करेगा अपितु हमें स्वयं करना है। मानव शरीर के पालन-पोषण में भोजन का महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय शास्त्रों में अन्नमय शरीर कहा गया है। “अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्।” (तैत्तिरीयोपनिषद्, भृगुवल्ली-1) अर्थात अन्न ही ब्रह्म है। भोजन में क्या लेना यह जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण कैसे लेना है अर्थात भोजन लेने समय छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। आइए भोजन संस्कार पर विचार करते हैं।
ऋषि चार्वाक ने चार्वाक संहिता में वर्णित किया है-
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थात जब तक जीयो सुख से जीयो। ऋण लेकर भी घी पीओ। यह देह जो हमें मिली है, भस्म होने के बाद पुनः कब मिलेगी।
इस देह के पालन-पोषण के विषय में आज उपेक्षित भाव दृष्टिगत होता है। मनुष्य पेट तो भरता है परन्तु उस पेट भरने से इस देह का पालन-पोषण भी हो रहा है या नहीं, इसका कम विचार करता है। मनुष्य अपने कार्य में इतना व्यस्त रहता है या दिखता हैं कि “खाने तक की फुर्सत नहीं है” ऐसा वाक्य अनेक बार सुनने को मिलता है।
दो दृश्य आपके सामने रखता हूँ। ये दोनों दृश्य आपने देखे ही नहीं होंगे बल्कि आप भी इन दृश्यों का भाग बने होंगे। पहला दृश्य- घर में भोजन का समय हो गया है। आप टीवी के सामने बैठकर अपनी पसंद का कार्यक्रम देख रहे हैं। गृहिणी ने आवाज लगाई कि भोजन तैयार है, खा लीजिए। आपने कहा कि भोजन यहीं ले आओ। आपके सामने भोजन आ जाता है और आप टीवी देखते-देखते भोजन कर लेते है।
दूसरा दृश्य- आप मोबाइल चला रहे हैं। कभी-कभी बहुत आवश्यक कार्य भी रहते हैं जो मोबाइल पर करने होते हैं। कभी आवश्यक नहीं भी होते परन्तु सोशल मीडिया के वश में आप होते हैं तो उसे छोड़ने का मन नहीं करता। मोबाइल चलाते चलाते आप भोजन कर लेते है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आपने भोजन का आनन्द लिया? क्या आपने भोजन को भाव के साथ ग्रहण किया? क्या भोजन करते समय आपको यह ध्यान रहा कि आपकी भोजन की भूख कितनी थी और आपने कितना भोजन ग्रहण किया? ऐसा विचार यदि आप करेंगे तो आप भोजन करते समय मोबाइल नहीं चलाएंगे और न ही टीवी देखेंगे।
आजकल एक दृश्य ऐसा है जो सामान्यतः नहीं दिखता। वह दृश्य पूर्व में पर्याप्त मात्रा में दिखा करता था। वह दृश्य है- पालथी मारकर खाना। हम विचार करेंगे कि युग परिवर्तन हो गया है। आधुनिक युग में कौन नीचे बैठकर या पालथी मारकर भोजन ग्रहण करेगा। आजकल का दृश्य इसके बिल्कुल विपरीत दिखाई देता है। डायनिंग टेबल पर बैठकर खाना एक बात है। खड़े होकर, चलते-चलते खाना ये गलत है। युग परिवर्तन हो गया होगा परन्तु मानव शरीर की प्रकृति व आंतरिक संरचना नहीं बदली है, वह वैसी ही है। और भोजन को खाने व पचाने की प्रक्रिया भी एकदम पूर्व की तरह ही है। ऐसे में खड़े होकर खाना या चलते-चलते खाना यह भोजन संस्कार के विरुद्ध तो है ही, साथ ही स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। पालथी मारकर भोजन ग्रहण करना पाचन की प्रक्रिया को तेज करता है। अतः जितना अधिकतम हो सके अच्छे आसन पर बैठकर पालथी मारकर भोजन ग्रहण करें।
भोजन ग्रहण करते समय मनोभाव कैसा है, यह भोजन के रस बनने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जो भोजन हम ग्रहण करते है वह शरीर में जाकर रस बनाता है, जिससे रक्त और अन्य पांच धातुएं (मांस, मेद, अस्थि, मज्जा व शुक्र) बनती हैं। भोजन करते समय मन में क्रोध, अशांति, द्वेष, ईर्ष्या आदि है तो रस ठीक से नहीं बनेगा। मन शांत है और आनन्द में है तो रस अधिक मात्रा में बनेगा। भोजन को प्रसाद रूप में ग्रहण करेंगे तो और भी अच्छा रस बनेगा।
भोजन से पूर्व मन की पवित्रता व शुद्धता के लिए भोजन मन्त्र कहेंगे तो और भी अच्छा रहेगा। भोजन मन्त्र शरीर को सभी प्रकार की ऊर्जा से युक्त बनाता है।
भोजन मन्त्र-
अन्न ग्रहण करने से पहले विचार मन में करना है।
किस हेतु से इस शरीर का रक्षण पोषण करना है।
हे परमेश्वर एक प्रार्थना नित्य तुम्हारे चरणों में।
लग जाये तन मन धन मेरा मातृभूमि की सेवा में॥
ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यम् करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।। ॐ शांति: शांति: शांति: ।।
अर्थात हे परमेश्वर! हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम शिष्य और आचार्य दोनों का एक साथ पोषण करें। हम दोनों साथ मिलकर बड़ी ऊर्जा और शक्ति के साथ कार्य करें एवं विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हमारी बुद्धि तेज हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। ॐ शांति, शांति, शांति।
भोजन में परोसे गए व्यंजनों की आलोचना या निंदा करना, यह अच्छा लगता है यह नहीं, थाली में परोसी गया सब न खाकर जूठन छोड़ना, थाली में पदार्थ लेने के बाद यदि इच्छा न हो तो उसे फेंककर दूसरा पदार्थ लेना, भोजन के समय पेटभर न खाकर बार-बार कुछ न कुछ खाते रहना ये सभी लक्षण भोजन संस्कार के विरुद्ध तथा अन्न विषयक अनादर के हैं। जीवन के लिए आवश्यक अन्न के प्रति अनादरपूर्ण व्यवहार करने वाला व्यक्ति अन्न उपलब्ध होते हुए भी भूखा रहे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस अनादरपूर्ण व्यवहार को बदलना कष्टसाध्य अवश्य है परन्तु संकल्प से सहज साध्य हो सकता है।
परिवार के सभी सदस्यों का साथ मिलकर भोजन करना भी भोजन संस्कार का भाग है। तीनों समय यदि संभव न हो तो दिन में एक बार किसी भी समय परिवार के सभी सदस्य मिलकर भोजन करें, ऐसी योजना कर सकते हैं।
संस्कृत में किसी भी कार्य के विषय में तीन बातें कही गई हैं- “किम् किमर्थम् कथं च”। किम् अर्थात क्या, किमर्थम् अर्थात क्यों और कथं यानि कैसे। भोजन कैसे ग्रहण करना यह ‘कथं’ की श्रेणी में आता है। भोजन संस्कार वर्तमान व नवीन पीढ़ी में आएं यह नए परिप्रेक्ष्य व परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करने की आवश्यकता है। इससे स्वस्थ समाज की संकल्पना को साकार किया जा सकता है।
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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