– वासुदेव प्रजापति
हमारे देश में वैसे तो प्रत्येक दिन किसी न किसी व्रत, पर्व या त्योहार के नाम से जाना जाता है, किन्तु व्यक्ति जीवन एवं समाज जीवन में कुछ दिन विशेष महत्व के माने गए हैं; उनमें गुरु पूर्णिमा भी एक है। गुरु शब्द का स्मरण होते ही व्यक्ति का मन श्रद्धा से भर जाता है और मस्तक किसी श्रद्धेय के प्रति स्वत: ही नत हो जाता है। इसीलिए सम्पूर्ण समाज में गुरु पूर्णिमा के दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने गुरु का पूजन-अर्चन करना अपना सौभाग्य मानता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा महर्षि वेदव्यास का जन्मदिन भी है, अतः कुछ लोग इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी पुकारते हैं।
आज के तथाकथित आधुनिक लोग इस दिन के महत्व को कम ऑंकते हुए प्रश्न खड़ा करते हैं कि जब भारत सरकार ने ५ सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाना निश्चित किया हुआ है तो कुछ लोगों के द्वारा पौराणिक पर्व गुरु पूर्णिमा को मनाने का औचित्य क्या है? प्रथम दृष्टि में आधुनिकतावादियों को यह बात सुसंगत लग सकती है, परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है। भारतीय दृष्टि में और पाश्चात्य दृष्टि में मूलभूत अन्तर है। पाश्चात्य दृष्टि भौतिक और राजनैतिक है, जबकि भारतीय दृष्टि मूल में आध्यात्मिक व सांस्कृतिक है। हमारे देश में कुछ लोगों का मानना है कि आधुनिक होना प्रगति का सूचक है, जबकि सांस्कृतिक होना पिछड़ेपन का द्योतक है। इसलिए प्रगतिशील लोग भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति अपना रहे हैं। हमारे यहां सामान्य धारणा है कि जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही सृष्टि दिखाई देती है। हनुमान जी का एक ऐसा ही प्रसंग ध्यान में आता है। वे सीता माता की खोज करते-करते जब अशोक वाटिका में पहुंचे तो वहाँ सीता माता को अति दयनीय स्थिति में देखा, फलत: उन्हें क्रोध ने आ घेरा। क्रोध से उनकी ऑंखें लाल हो गईं, ऑंखें लाल हो जाने के कारण हनुमान जी को उस समय अशोक वाटिका के पुष्प लाल दिखाई दिए, जबकि वास्तविकता में वे पुष्प श्वेत रंग के ही थे। इसलिए कहावत बन गई “जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि”।
ऐसी ही स्थिति हमारे देश में प्रगतिवादियों की बनी हुई है। वे पाश्चात्य दृष्टि से प्रत्येक विषय पर विचार करते हैं। पाश्चात्य दृष्टि में राजनीति को केन्द्र में रखकर विचार किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि कक्षा में जाकर विद्यार्थियों को भारत का मानचित्र निकालिए, कहा जाय तो वे भारत का राजनैतिक मानचित्र ही निकालेंगे, सांस्कृतिक मानचित्र नहीं। क्यों? इसलिए कि उनकी दृष्टि भी राजनैतिक है, सांस्कृतिक नहीं। ठीक वैसे ही तथाकथित बुद्धिजीवियों को सरकारी उत्सव शिक्षक दिवस का महत्व पौराणिक पर्व गुरु पूर्णिमा से अधिक प्रतीत होता है। इसके विपरीत संस्कृति को केन्द्र में रखकर विचार करने वाले भारतीयों की दृष्टि में गुरु पूर्णिमा अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि गुरु पूर्णिमा एक सांस्कृतिक पर्व है। भारतीय संस्कृति केवल भारतीयों का विचार नहीं करती, वह तो सर्वसमावेशी है। सम्पूर्ण वसुधा को अपना परिवार मानकर चलती है, सबके हित का विचार करते हुए सबका कल्याण करने वाली है। इसलिए गुरु पूर्णिमा केवल भारत का पर्व नहीं, सम्पूर्ण विश्व के गुरुओं का सम्मान करने वाला एक महान है और शिक्षक दिवस से अधिक महत्वपूर्ण है। दृष्टि भेद के कारण यह मूलभूत अन्तर समझ में नहीं आता।
सांस्कृतिक दृष्टि में गुरु
भारतीय समाज व्यवस्था में गुरु परम्परा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण सामाजिक ढ़ाॅंचे के केन्द्र में गुरु ही है। गुरु ही शिष्य को ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख करता है। अथर्ववेद कहता है – “आ रोह तमसो ज्योति:” अर्थात् अज्ञान रूपी अन्धकार से निकलकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर बढ़ो! एक गुरु ही शिष्य को अज्ञान से निकलने का मार्ग सुझाता है। गुरु ही उसे ऊपर उठाकर ज्ञान मार्ग पर आगे बढ़ाता है। शिष्य जब ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उसके सभी शुभ-अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं। मुण्डकोपनिषद हमें यही बतलाता है –
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया:।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे प्यारे।।
अर्थात् कार्य-कारण रूप परात्पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर हृदय की अविद्या रूप ग्रन्थि टूट जाती है और समस्त संशय कट जाते हैं तथा समस्त शुभाशुभ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। तनिक विचार करें कि क्या आज के राज्यतंत्र द्वारा नियुक्त शिक्षक से यह अपेक्षा की जा सकती है?
विभिन्न शास्त्र ग्रन्थों में ‘गुरु’ संज्ञा को अनेक अर्थों में व्याख्यायित किया गया है। उनमें से तीन सन्दर्भों का इस अवसर पर उल्लेख करना समीचीन है।
१. शान्तो दान्त: कुलीनश्च विनीत: शुद्धवेषवान।
शुद्धाचार: सुप्रतिष्ठ: शुचिर्दक्ष: सुबुद्धिमान।
अध्यात्म ध्याननिष्ठश्च मन्त्रतन्त्रविशारद:।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।।
तन्त्रसार के इस मन्त्र के अनुसार गुरु शान्त, इन्द्रियों का दमन करने वाला, कुलीन, विनीत, शुद्ध वेशयुक्त, शुद्ध आचारयुक्त, अच्छी प्रतिष्ठा से युक्त, पवित्र, दक्ष अर्थात् कुशल, तेजस्वी एवं सद्बुद्धि से युक्त, अध्यात्म व ध्यान में निष्ठा रखने वाला, मन्त्र व तन्त्र को जानने वाला (विचार, व्यवस्था और रचना का मर्मज्ञ) तथा कृपा और शासन दोनों की क्षमता रखने वाला व्यक्ति गुरु कहलाता है।
२. मनुष्यचर्मणा बद्ध: साक्षात्परशिव: स्वयं।
सच्छिष्यानुग्रहार्थाय गूढ़ पर्यटति क्षितौ।
अत्रिनेत्र: शिव: साक्षादचतुर्बाह्वच्युत:।
अचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरु: कथित: प्रिये।।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार गुरु मनुष्य देहधारी परम शिव है। अच्छे शिष्य पर कृपा करने के लिए ही वह पृथ्वी तल पर भ्रमण करता है। गुरु तीन नैत्र नहीं है, ऐसा शिव। चतुर्भुज नहीं है, ऐसा विष्णु और चतुर्वदन नहीं है, ऐसा ब्रह्मा है।
३. गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
देवी भागवत में वर्णित है कि गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही महेश है। गुरु साक्षात परब्रह्म है, ऐसे गुरु को नमस्कार है।
इन तीनों सन्दर्भों में गुरु विषयक निरूपण सांस्कृतिक दृष्टि से हुआ है। भौतिक दृष्टि वालों के लिए इतनी उच्च कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। पाश्चात्य दृष्टि में शिक्षक गुरु की भूमिका में नहीं है, वह मात्र टीचर है। केवल पढ़ाना और परीक्षा पास करवाना ही उसका काम है। जबकि गुरु पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह शिष्य के सम्पूर्ण जीवन को निखारकर उसे मोक्ष मार्ग पर अग्रसर करता है। गुरु शिष्य को अपना मानस पुत्र स्वीकारता है, और पिता की भाॅंति उसका संरक्षण करता है। जबकि आज का शिक्षक मात्र अध्यापक है।
गुरु हमारे मुक्तिदाता हैं
भारतीय संस्कृति में ज्ञान आत्मतत्व का ही स्वरूप है। वेद यही कहते हैं – “सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म” ब्रह्म सत्य स्वरूप, ज्ञान स्वरूप व अनन्त है। आत्मिक ज्ञान में अज्ञान जनित प्रश्न नहीं होते, क्योंकि अज्ञान भी ज्ञान में विलीन हो जाता है। परन्तु व्यवहार जगत में ज्ञान के रूप और प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं। गुरु ज्ञान साधकों के लिए अलग-अलग देश काल व परिस्थिति में उनका मार्गदर्शन करके अपना कर्तृत्व सार्थक करते हैं। हमारे देश में ऐसे श्रेष्ठ गुरुओं की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इस परम्परा में महर्षि वेदव्यास, याज्ञवल्क्य, आचार्य चाणक्य और जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य के नाम प्रमुख हैं। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर इनके जीवन चरित्रों का स्मरण करना हम सबके लिए अत्यन्त प्रेरणादायी है।
आद्य सम्पादक वेदव्यास
महर्षि वेदव्यास का नाम तो कृष्ण द्वैपायन था, किन्तु गत पांच हजार वर्षों से हम लोग उन्हें वेदव्यास नाम से ही जानते हैं। वेदव्यास जी ने बिखरे पड़े वैदिक मंत्रों का संकलन किया, उनका संपादन किया और अध्येताओं के लिए अध्ययन सुलभ हो इस हेतु से उन्हें चार वेदों में वर्गीकृत किया। इन चारों वेदों को अपने चार शिष्यों में एक-एक वेद अध्ययन-अध्यापन व प्रसार हेतु सौंप दिया। इसीलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उनके लिए कहा, ‘मुनीनामप्यहं व्यास:’ मुनियों में मैं व्यास हूँ।
मुनिवर्य व्यास ने मात्र सम्पादन ही नहीं किया अपितु विभिन्न स्तरों, क्षमताओं और योग्यताओं के लोगों के लिए ज्ञान को उनके अनुकूल शैली में प्रस्तुत भी किया। पंडित जन जिन वेदान्त दर्शन के मूलग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ पर आदिकाल से शास्त्रार्थ करते आए हैं, उस ब्रह्मसूत्र की रचना भी आपने ही की है। व्यक्ति जीवन के सभी आयामों में मार्गदर्शन करने वाले उपनिषदों के साररूप उपनिषद श्रीमद् भगवद्गीता भी आपकी ही देन है। पुरुषार्थ चतुष्टय – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मार्गदर्शन करने वाले इतिहास ग्रंथ ‘महाभारत’ की रचना भी आपने की।
सर्वसामान्य लोगों को वेदों का रहस्य सुलभ हो, ऐसे अठारह पुराणों की रचना भी आपने ही की। उनके ऐसे प्रभावी कार्य के परिणाम स्वरूप ही व्यास परम्परा निर्माण हुई, जो आज भी विद्यमान है। सर्वजन समाज सत्य व धर्म का अनुसरण कर सके, इस हेतु से जो कथा कहता है, उसे आज भी व्यास और उसकी पीठ को व्यासपीठ कहा जाता है।
जगत के ऐसे आद्य संपादक की आज भी ज्ञानक्षेत्र को आवश्यकता है। भारतीय ज्ञान तो आज भी है, किन्तु उसे युगानुकुल बनाकर सर्वसुलभ करवाने वाले अर्वाचीन वेदव्यास की महती आवश्यकता है। इस रूप में वेदव्यास जी का कर्तृत्व हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है।
पराकोटि के आत्मविश्वासी याज्ञवल्क्य
याज्ञवल्क्य का जीवन ज्ञानक्षेत्र के एक और पहलू को उद्घाटित करता है। विद्वता किसे कहते हैं, विद्वता का स्वाभिमान और गौरव कैसा होता है और उपासना का प्रभाव कैसे होता है? इन सबका मूर्तिमंत आदर्श योगीश्वर याज्ञवल्क्य हैं। उन्होंने पूजा की, उस पूजा का तीर्थ वृक्ष के सूखे डंठल पर गिरा और गिरते ही वह डंठल पल्लवित हो उठा। सार्थक अध्ययन का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है।
आपके लिए शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना हस्तामलकवत् है। आपमें पराकोटि का आत्मविश्वास है, तभी तो जनक द्वारा आयोजित शास्त्रार्थ में प्रस्तुत एक हजार गायें, शास्त्रार्थ पूर्व ही ले लेने का साहस वे कर सके। जब वे शास्त्रार्थ में विजयी हुए, तब पराजित की मृत्यु जो उनके अहंकार के कारण हुई थी, उसे देखते ही उन्हें ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का भेद समझ में आ गया। परिणामस्वरूप उन्होंने संन्यास लेने का निश्चय कर लिया। उन्हें यह भान हुआ कि ज्ञान और ज्ञान से प्राप्त होने वाले यश, कीर्ति व धनादि गौण हैं। उपासना सदैव ज्ञान की करनी चाहिए, शेष बातों की नहीं। शेष बातों के मोह से ऊपर उठने पर ही ज्ञान स्वयं ज्ञानसाधक का वरण कर लेता है।
याज्ञवल्क्य संसार के आद्य संन्यासी थे। आपने ही निवृत्ति मार्ग का प्रणयन किया। ज्ञान का पराकोटि का गौरव व आत्मविश्वास हम उनसे सीख सकते हैं। हमें आज उनके जैसे ज्ञान उपासकों की आवश्यकता है।
गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम सभी अपने-अपने गुरुओं का पूजन-अर्चन तो अवश्य करें, परन्तु साथ ही साथ यह संकल्प भी लें कि जिस प्रकार हमारे पूर्व गुरुओं ने बिखरे भारतीय ज्ञान को अपने संकलन, संपादन व लेखन के द्वारा सर्वसुलभ बनाया, उसी प्रकार हम भी ज्ञान के उपासक बनकर भारतीय ज्ञान को युगानुकुल बनाकर उसे शिक्षा की मुख्यधारा में लायें। हम भारतीय ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा करने में सफल हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत पुन: विश्व गुरुत्व प्राप्त कर, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करने की अपनी भूमिका का निर्वहन करने में समर्थ होगा।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)