– गोपाल माहेश्वरी
“जीवन दीप जले ऐसा सब जग को ज्योति मिले, जीवन दीप जले।” संघ में गाए जाने वाले इस गीत के भाव जिनके जीवन में चरितार्थ दिखाई देते हैं ऐसे अनेक महापुरुषों के नामों से हमारा इतिहास जगमगा रहा है। आज हम जिस महान व्यक्ति की बात कर रहे हैं उनका तो जन्म भी दीपावली के ही दिन हुआ था। वह ईस्वी सन् 1873 के अक्तूबर मास की 22वीं दिनांक थी। श्री गुरुनानक देव जी से लगाकर दशमेश गुरु गोबिंद सिंह जी तक देश धर्म की रक्षा हेतु अपने जीवन और उपदेशों से आदर्श रचने वाले दस गुरुओं के पावन पंजाब में मुरारीवाला जिला है। यह यद्यपि दुर्भाग्य से अब यह पाकिस्तान में है। यहीं के एक मंदिर के पुजारी श्री हीरानंद जी गुसाईं के घर जन्मे इस संसार भर को प्रकाशित करने वाले कुलदीपक का नाम था तीरथराम। वे श्री रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के अमर रचनाकार गोस्वामी के वंशज थे। समाज का सौभाग्य बन कर उजाला बिखराने हेतु स्वयं जलना स्वीकारने वाले दीप को भी अंधकार का आक्रमण और संघर्षों के झंझावातों से जूझना ही पड़ता है।बालक तीरथराम को भी शिशु अवस्था में ही अपनी माता की मृत्यु का झंझावात और माँ की ममता से वंचित बचपन का अंधकार झेलना पड़ा। उनके बड़े भाई गुसाईं गुरुदास की सहायता से भगवद् भक्त पिता ने बालक तीरथराम का जैसा संभव हुआ पालन-पोषण किया।
तीरथराम अत्यंत मेधावी थे। उनकी स्मरण शक्ति बहुत उन्नत थी। गणित विषय पर तो उनकी असाधारण पकड़ थी। पांच वर्ष में विद्यालय गए इसके पहले दो वर्ष के थे तभी सगाई हो गई और पढ़ रहे थे तभी दस वर्ष की वय में विवाह भी हो गया। मात्र चौदह वर्ष में मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम आकर छात्रवृत्ति प्राप्त की पर पिता आगे पढ़ाने के पक्ष में न थे। उनकी असहमति के बाद भी लाहौर में निर्धनता का अपार कष्ट सह कर भी इंटरमीडिएट भी छात्रवृत्ति योग्य उच्चतम अंकों से उत्तीर्ण की। अभावों का अनुमान इसी बात से हो सकता है कि बरसों पुराना एक जूता जब नाले में बहगया तो किसी महिला की फेंक दी गई पुरानी चप्पलों से ही काम चलाते रहे। बी.ए. में शेष विषयों में बहुत बढ़िया अंक मिले पर अंग्रेजी तीन अंक से धोखा दे गई।परिणाम यह हुआ कि छात्रवृत्ति बंद हो गई। भगवान से प्रार्थना करते रोते हुए भूखे ही सो गए। आंसू कष्ट के लिए नहीं पढ़ाई रुकने की छटपटाहट के थे। महाविद्यालय के अहाते में एक मिठाई बेचने वाले को ईश्वरीय प्रेरणा जागी और इस महामेधावी विद्यार्थी के भोजन, वस्त्र का प्रबंध होने लगा, प्राचार्य जी ने भी शुल्क भरने में व्यक्तिगत सहायता की और विश्वविद्यालय में तीरथराम न केवल प्रथम आए बल्कि दो छात्रवृत्तियां और स्वर्ण पदक भी प्राप्त कर लिया। गणित में स्नातकोत्तर कक्षा की पढ़ाई करते हुए ही लाहौर महाविद्यालय में व्याख्याता हो गए। इक्कीस वर्ष में इस तेजस्वी युवा ने एम.ए. कर लिया।
वे संभवत: खूब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी करते हुए घर-गृहस्थी चलाने भर के लिए बने ही न थे। भाग्य ने मोड़ लिया। द्वारका शांकरपीठ के शंकराचार्य स्वामी राजराजेश्वर तीर्थ जी महाराज के लाहौर में हुए प्रवचनों ने उनकी अध्यात्म जिज्ञासा को जगा दिया। वह 25 अक्टूबर 1897 की दीपावली ही थी जब इस 24 वर्षीय तेजस्वी युवक ने अपने अंदर फूट रही आध्यात्मिक ज्योति के प्रकाश में आल्हादित हो पिताजी को पत्र लिखकर अपने गृहत्याग की सूचना दे दी। वे ऋषिकेश और हरिद्वार के गंगातट की तपोभूमि पर विचरने लगे। 1898 में देवतात्मा हिमालय की गोद में बसे ऋषिकेश में उनको आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति हुई और 1901 में वे संन्यास ग्रहण कर तीरथराम से स्वामी रामतीर्थ बन गए।
रामतीर्थ सामान्य संन्यासी न थे। स्वामी विवेकानंद के समान भारतीय हिन्दू धर्म और संस्कृति की पताका लिए वे भी देश-विदेश घूमें। उनका उद्घोष था “दुनिया के विभिन्न देशों में रहने वाली मानव जाति एक ही है। उनकी आत्मा एक है। संपूर्ण विश्व एक है।” स्वामी जी का प्रतिपादित व्यावहारिक वेदान्त दर्शन जापान जैसे बौद्ध और मिस्र जैसे मुस्लिम राष्ट्र में भी आदर सहित स्वीकारा गया। ईसाई मतावलंबी राष्ट्र अमेरिका में 1902 में अद्वैत वेदान्त पर प्रथम व्याख्याता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनका अध्यात्म दर्शन राष्ट्रीयता से ओतप्रोत और अपनी मातृभूमि के भविष्य चिंतन से भरा था।अपने समाज के लिए वे कहते थे “जातिवाद भारत के लिए धीमे विष के समान है। यदि भारत में स्त्रियों को शिक्षित नहीं किया गया और मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षा से वंचित रखा गया तो राष्ट्रीयता का वृक्ष धीरे-धीरे धराशायी हो जाएगा।”
इक्कीसवीं सदी में भारत अपने अप्रतिम विकास के बल पर विश्वपटल पर छा जाने की भविष्यवाणी कर देने वाले इन महापुरुष ने भारत के युवाओं को शिक्षित होने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि “भारत को शिक्षित युवा वर्ग की आवश्यकता है न कि मिशनरियों की।” प्रतिभाशाली भारतीय युवा उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें इस हेतु स्वामी जी केवल उपदेश ही नहीं देते थे वरन व्यावहारिक धरातल पर भी कार्य करते थे। वे स्त्रियों को देश की उन्नति में महत्वपूर्ण भागीदार मानते हुए उनके हृदय में स्वयं परमात्मा का वास है ऐसा बताते थे।
राष्ट्र के साथ उनकी एकरूपता कैसी थी यह उनके इस प्रसिद्ध कथन से प्रकट होता है। वे कहते हैं “मैं भारत हूँ। संपूर्ण भारत मैं हूं। मातृभूमि मेरा अपना शरीर है। कुमारी अंतरीप मेरे चरण हैं। हिमालय मेरा शिर है। मेरे केशों से गंगा प्रवाहित होती है। मेरे मस्तक से ब्रह्मपुत्र और सिंधुनद बहते हैं। विंध्याचल मेरा कटिबंध है। कारोमंडल मेरा दायां और मालाबार बायां पैर है। इसके पूर्व और पश्चिम मेरी बांहें है जिन्हें मैंने मानवता का आलिंगन करने के लिए फैला रखे हैं। जब मैं चलता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि भारत चल रहा है। जब मैं बोल रहा होता हूँ तो अनुभव करता हूँ भारत बोल रहा है। जब मैं सांस लेता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि भारत सांस ले रहा है। मैं भारत हूँ। मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ।”
संन्यासी अनेक हुए पर स्वामी रामतीर्थ जैसा व्यावहारिक वेदान्त सिद्ध करने वाले राष्ट्रीय संत कम ही होते हैं। इस विषय पर स्वामी जी एक पुस्तक भी लिख रहे थे कि 17 अक्टूबर 1906 को टिहरी के निकट आश्रम से गंगा स्नान को गए और ओंकार का उच्चारण करते हुए वहीं जलसमाधि ले ली। वे जन्मे दीपावली को, गृहत्याग किया दीपावली को और परमात्म ज्योति में विलीन हुए तब भी दीपावली ही थी। स्वामी जी की जीवन-ज्योति परम ज्योति में समा गई पर विचार ज्योति जगत् ज्योति बनकर आज भी अशिक्षा और अज्ञान का अंधकार नष्ट करती विश्वगुरु भारत के समुज्ज्वल राष्ट्रीय भविष्य का दर्शन करा रही है।ऐसे महापुरुष विचार रूप में सदैव अमर रहते हैं।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)- गोपाल माहेश्वरी