भक्ति से समाज बदलने वाले क्रांतिदर्शी पांडुरंग शास्त्री आठवले

✍ डॉ. महेश्वर गं कळलावे

पू. पांडुरंग शास्त्री आठवले का जन्म 19 अक्टूबर 1920 को महाराष्ट्र के कोंकण प्रांत के रोहा गाँव में हुआ। उन्हें स्वाध्यायी दादा के नाम से जानते है। उनके पिता श्री. वैजनाथ शास्त्री ने 26 अक्टूबर 1926 को मुंबई में भगवदगीता पाठशाला की स्थापना की। अपने प्रतिभाशाली और बुद्धिमान पुत्र के व्यक्तित्व लिए श्री वैजनाथ शास्त्री ने अलग ढंग से सोच रखी थी। पांडुरंग को किसी पारंपरिक स्कूल में भेजने के बजाय, उन्होंने अपने बेटे की शिक्षा के लिए अपने गाँव रोहा में ‘सरस्वती संस्कृत पाठशाला’ नामक एक तपोवन खोला। इसके बाद पू. पांडुरंग शास्त्री ने न्याय, व्याकरणादि, शास्त्र और दर्शन, संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। उसके बाद उन्होंने मुंबई में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की लाइब्रेरी में पश्चिमी दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान आदि का दृढतापूर्ण अध्ययन किया। इस प्रकार उन्होंने वैदिक और आधुनिक शास्त्र के वास्तविक ज्ञान के साथ श्रीमद्भगवद्गीता पाठशाला में गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, दर्शन ऐसे विषयों पर प्रवचन देना शुरू किया।

वेद और गीता जीवन ग्रंथ हैं। उनका मानना था कि वैदिक और गीता विचारों को हर एक गाँव मे हर एक व्यक्ति के स्तर पर लाया जाना चाहिए। बचपन में ही उन्हें अपने दादा-दादी से वैदिक संस्कृति और सामाजिक पुनरुत्थान के बारे में सिखाया गया था। तभी से वह ऐसा सोचने लगे थे कि यदि हम सामाजिक व्यवस्था के इस विभाजनकारी स्वरूप को बदलना चाहते हैं तो हमें नैतिक मूल्यों एवं संस्कृति की शिक्षा देनी होगी। जब वह लगभग छह वर्ष के थे तब पू. पांडुरंग शास्त्री के प्यारे दादा का निधन हो गया। तब आख़िरकार उन्होंने पांडुरंग को पास बुलाकर एक महत्वपूर्ण बात कही। “पांडुरंगा! अपने आठवले परिवार ने आज तक प्रखर व्रत निष्ठा और कर्त्तव्य निष्ठा बनाए रखी है। व्रत निष्ठा और कर्त्तव्य निष्ठा का अर्थ है कि एक बार आपने कुछ करने का निश्चय कर लिया तो उसे पुरा किये बिना उस काम को नहीं छोड़ना। इसके लिये आपको भी व्रत निष्ठा और कर्त्तव्य निष्ठ रहना होगा। आपने संस्कृत में जो कुछ भी सीखा होगा, संस्कृति का अध्ययन किया होगा यह केवल कर्मकांड नहीं होना चाहिए बल्कि उसका उपयोग समाज की प्रभू को सन्मुख करने के लिये होना चाहिए। संस्कृत साहित्य में उपस्थित मौलिक विचार है वही सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी से उधार नहीं लेना चाहिए, अन्यथा शरीर में तेजस्विता नहीं आएगी।”

उसके बाद छठे वर्ष में पू. पांडुरंग शास्त्री मुंबई आये। संस्कृत के उच्च अध्ययन के लिए प्रौढ मनोरमा, परिभाभार्षेदुशेखर, लघुमंजुषा, परिमलमंजुषा व्याकरण महाभाष्य, तर्कसंग्रह, न्यायकुसुमांजली, पंचदशी भामती, सर्वदर्शनसंग्रह, मीमांसा परिभाषा इनका आदि अनेक साहित्यों का पू. पांडुरंग शास्त्री ने अध्ययन किया है। उसके बाद उन्होंने बड़े उदार हृदय से विदेशी साहित्य, अनेक पश्चिमी संस्कृतियों के साहित्य का भी अध्ययन और चिंतन किया।

 इन सभी अध्ययनों का दायरा इतना बड़ा था कि बॉम्बे की रॉयल एशियाटिक लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन पू. पांडुरंग शास्त्री आठवले को पूछा करते थे कि, कौन सी पुस्तक कहां रखी है। इतने व्यापक अध्ययन के बाद पू. पांडुरंग शास्त्री हमारे देश की वर्तमान सामाजिक स्थिति पर विचार रखते हुए कहते हैं – “इस देश में बहुत सारा समाज का वर्ग कर्मकांड, जाति-पाति, ऊंच-नीच, गरीबी जैसी अनेक चीजों में फंसा हुआ है। इसी कारण वह आगे नहीं बढ़ सका। हमारी प्राचीनतम वैदिक संस्कृति पर लगे अभिशाप को हटाना ही एकमात्र उपाय है। मैं ये काम करुंगा। समाज सेवा के तौर पर नहीं, बल्कि यही मेरा धर्म है। क्योंकि समाजसेवा धीरे-धीरे व्यवसाय बन जाती है। यह कार्य मैंने मेरे हृदय से प्रेरित होकर किया है। यदि हम वैदिक संस्कृति के बल पर आधुनिक युग में मानव कल्याण की क्रांति लाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें मनुष्य का निर्माण करना होगा। उसे संस्कृति के कार्य की धुरी को प्रतिकूल परिस्थितियों में ले जाने शक्ति खडी करनी होगी। उसकी ईश्वर के प्रति निष्ठा खड़ी करनी होगी। उनमें वैचारिक स्तर पर विपत्ति और संस्कृति के आक्रमणों के विरुद्ध खड़े होने का आत्मविश्वास खड़ा करना होगा।”

पू. पांडुरंग शास्त्री की पत्नी श्रीमती निर्मलाताई को विवाह के बाद पू. पांडुरंग शास्त्री ने कहा, “मैं सिर्फ विज्ञान पंडित नहीं बनूंगा। मैं धर्म को शुद्ध करना चाहता हूँ। केवल धर्म में ही लोगों की तामसिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की शक्ति होती है। मैं उस धर्म का शुद्ध स्वरूप समाज के सामने रखना चाहता हूँ। मैं उस जंग को हटाने का काम करना चाहता हूँ जिसने अनिष्ठ रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों, जाति-भेद से धर्म को खराब कर दिया है। और उससे मैं एक ऐसा मनुष्य बनाना चाहता हूँ जो व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ ईश्वर के प्रति वफादारी के साथ मानवता का पालन करे। यह काम आसान नहीं है। आज मुझे इस काम में पत्नी के नाते आपकी मदद की जरूरत होगी। क्योंकि हमें ऐसी स्थिति में काम करना है जहां पड़ोसी भी हमें नहीं जानते।” और पू. पांडुरंग शास्त्री की पत्नी श्रीमति निर्मलाताई ने अंत तक उन्हें हर प्रकार की सहायता प्रदान की।

स्वाध्याय के बारे में पू. पांडुरंग शास्त्री कहते है “स्वाध्याय का निर्माण वैदिक विचारधारा एवं ऋषियों के प्रयत्नों की परंपरा से हुआ है। दुर्भाग्यवश आज समाज इसे भूल गया है। वैदिक विचारों का पठन, मनन और चिंतन से एक विचारशील और गतिशील मानव समाज का निर्माण होता है। क्योंकि स्वाध्याय के कारण परिस्थिति का परिवर्तन अथवा मूल्य परिवर्तन से अधिक महत्वपूर्ण मानव परिवर्तन होता है। मानवीय जागरूकता से ही परिवार मे सुख और सम्पनता आती है। समाज निरोगी बनता है। और बदले में राष्ट्र बलशाली होता है। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन।

सामान्यतः सन 1952 में अमेरिका के सदस्य डॉ. डीन जब मुंबई आए तो पू. पांडुरंग शास्त्री और उनकी संयोगवश से रॉयल एशियाटिक लाइब्रेरी में भेंट हुई। उस भेंट में कई मुद्दों पर चर्चा हुई और डॉ. डीन पू. पांडुरंग शास्त्री के काम से अभिभूत हो गये। उसके बाद उन्होंने जापान में आयोजित द्वितीय विश्व दार्शनिक सम्मेलन में भाग लेने के लिये पू. पांडुरंग शास्त्री को निमंत्रित किया। 22 अक्टूबर 1955 उस सम्मेलन में अवतारवाद की चर्चा का उत्तर देते हुए पू. पांडुरंग शास्त्री ने कहा “संपूर्ण जगत का मार्गदर्शन करने वाला श्रीकृष्ण जैसा अद्वितीय पुरुष आज तक उत्पन्न नहीं हुए है। वह ईश्वर का अवतार थे। कितना सुंदर विचार है कि, ईश्वर मानव रूप धारन करता है। अवतार दर्शन, भारतीय दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति के सभी पांच हॉलों को प्रकाशित करने के लिए अवतार धरातल पर आते हैं। वह केवल फूलों की खुशबू देने के लिए नहीं बल्कि जीवन का प्रदर्शन करने के लिए ही आते हैं। भले ही श्रीकृष्ण आज उपस्थित नहीं हैं, लेकिन वे आज भी अपने द्वारा दिए गए विचारों और उद्देश्यों के रूप में आज भी जीवित हैं। उनका दर्शन लौकिक न होकर शाश्वत है। श्रीकृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने संपूर्ण विश्व को, आत्म-सुधार और समाज-सुधार का शाश्वत विचार दिया। उनके दर्शन में धर्म का अर्थ केवल प्रांतीय या राष्ट्रीय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सार्वभौमिक अर्थ है, संपूर्ण मानव जाति के बीच स्नेह, सद्भाव और समरसता पैदा करना है। इसके लिए एकमात्र रास्ता है और वो है धर्म। इसके आधार पर ही विश्व सत्ता कायम रहेगी। एक ऐसा धर्म होना चाहिए जो दुनिया के उतार-चढ़ाव में रह सके और दुनिया, व्यक्ति और समाज को सच्चा रास्ता दिखा सके।”

इस प्रकार द्वितीय विश्व दार्शनिक परिषद् में पू. पांडुरंग शास्त्री ने सभी को जीत लिया। अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. कॉन्टन को अमेरिका में ‘भक्ति, श्रीकृष्ण और गीता’ के विचारों को साझा करने के लिये पू. पांडुरंग शास्त्री को आमंत्रित करके अनुरोध किया गया। इतना ही नहीं, इसमें प्रलोभन भी दिए गए। एक दार्शनिक के रूप में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति और भारी वित्तीय लाभ आदि प्रलोभन को तुरंत उन्होंने नकार दिया। और ‘भक्ति एक सामाजिक शक्ति है’ (Bhakti is a Social Force) के विचार को साकार करने के लिए पू. पांडुरंग शास्त्री तुरंत भारत अपने मातृभूमी वापस आए।

पू. पांडुरंग शास्त्री ने यह सोचा कि, सबसे पहले यह चित्र बदलना चाहिए कि जिस देश में गीता गाई गई, उस देश के लोग गीता और श्रीकृष्ण के विचारों से परिचित न हों। गीता में जो आश्वासन दिये हैं उसे साकार करने के लिये उन्होंने निश्चय किया। ‘न मे भक्त: प्रणस्यति’ इस वचन के साथ एकनिष्ठ रहकर और भविष्य में राष्ट्र का निर्माण कर रहे आज के युवाओं को वैदिक संस्कृति का सच्चा स्वरूप समझाने के लिए 24 जून 1956 में पू. पांडुरंग शास्त्री ने ठाणे में तत्वज्ञान विश्वविद्यालय शुरू किया। वह हमेशा कहते हैं कि “जब समाज में वैदिक संस्कृति का महत्व समझ में आ जायेगा तो भौतिकवाद और अंधविश्वास दोनों धाराओं पर स्वतः ही अंकुश लग जायेगा। जब वैदिक संस्कृति का महत्व सामने आएगा तो सोया हुआ व्यक्ति जाग जाएगा, जाग रहा है वह उठ जाएगा, बैठा है तो चलना शुरू कर देगा और चल रहा है तो दौड़ना शुरू कर देगा। इतनी शक्ति इस वैदिक वांग्मय में है। एक ओर, भौतिक सुख को सर्वस्व मानाने वाला एक सुधारक है तो दूसरी ओर, एक निराशावादी भक्त है। ये दोनों ही समाज के लिए खतरनाक हैं।” अतः इस तत्वज्ञान विश्वविद्यालय में इस वैदिक दर्शन को वैज्ञानिक रूप में विकसित करने का कार्य चल रहा है।

23 मार्च 1958 को उन्होंने पहली बार 98 व्यक्तियों के साथ सौराष्ट्र में तीर्थयात्रा शुरू की और बाद में, उनकी भक्तिफेरी इस कृति ने लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। इसी प्रकार उन्होंने कृतिभक्ति की संकल्पना समझाने के लिये योगेश्वर कृषि से लेकर विद्या प्रेमवर्धन परीक्षा तक कुल 26 प्रयोगों के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में मूलतः परिवर्तन परिवर्तन लाया। वह प्रयोग आज भी विश्व को विश्वगुरु बनाने में मार्गदर्शक का काम करते हैं। पू. पांडुरंग शास्त्री को अपने जीवनकाल में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले 30 से 35 पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें मुख्य रूप से पद्मविभूषण, विश्वविद्यालयों से डी.लिट., गांधी पुरस्कार, तिलक पुरस्कार, रमन मैगसेसे पुरस्कार, टेम्पलटन पुरस्कार शामिल हैं। उन्होंने इसका सारा श्रेय खुद न लेते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण को दिया। उन्होंने विभिन्न भाषाओं में कई पुस्तकें लिखीं जो समझने में आसान हैं और भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धांतों को दर्शाती हैं। व्यक्ति की मानवता को जगाने और भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए चिंतन और मंथन के लिए अलग-अलग स्थान प्रदान किए हैं। जैसे- युवाओं के लिए युवा केंद्र, महिलाओं के लिए महिला केंद्र, बच्चों के लिए बाल संस्कार केंद्र आदि। उनके प्रयोग और केंद्र सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के कई देशों में भी हैं। इसमें एकरूपता हो इस दृष्टि से उन्होंने सार्वभौम स्वरूप (Universal Format) की अवधारणा दी। और उसके माध्यम से ये सभी व्यवस्थाएँ एक समान एवं एकीकृत ढंग से चलती हैं।

व्यक्तिगत सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा करके, उन्होंने लाखों लोगों की सर्वांगीण समृद्धि को बढ़ाने का साहस दिया, उन लोगों को गरीबी, उत्पीड़न और अन्याय के स्थान पर एक नया जीवन दिया। पू. पांडुरंग शास्त्री ने अपने कार्यों के माध्यम से सुबत्ता, स्वतंत्रता, प्रेम और न्याय के मुद्दों को उठाया। हम एक ही भगवान के बच्चे है इस आधार पर लोगों को एक साथ लाया। Other is Not Other, He is My Divine Brother इस सूत्र के साथ उन्होंने सभी मनुष्यों को सार्वभौमिक एकता का संदेश दिया। व्यक्तिगत परिवर्तन द्वारा ही समाज का परिवर्तन यह  स्वाध्याय का सूत्र है। ईश्वरनिष्ठा, भक्ति और समरसता पर स्थापित स्वाध्याय परिवार वास्तव में मानव निर्माण का कार्य कर रहा है। जब तक व्यक्ति की सोच और जीवन में बदलाव नहीं होता तब तक कोई वास्तविक सामाजिक क्रांति नहीं होगी इस मूल विचार के साथ, पू. पांडुरंग शास्त्री ने स्वाध्याय के कार्य को आगे बढ़ाया ।

ऐसे व्रतस्थ पू. पांडुरंग शास्त्री 25 अक्तूबर 2003 को दिपावली के दिन दादा ने इस धरातल पार अंतिम सांस ली। ऐसे पू. पांडुरंग शास्त्री का जन्मदिन (19 अक्तूबर) विश्व स्तर पर ‘मनुष्य गौरव दिन’ के रूप में मनाया जाता है। आज उनका काम विश्व स्तर पर व्यापक रूप से फैला हुआ है। ऐसे दार्शनिक और निष्काम व्रतस्थी के चरण कमलो में जय योगेश्वर।

(लेखक डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय ओस्मनाबाद-महाराष्ट्र में शिक्षा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर है।)

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