✍ वासुदेव प्रजापति
देश को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष बीत गए और हम अमृतकाल मना रहे हैं। इस अमृतकाल में कुछ ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो यह मानते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा ने हमें शिक्षित व सभ्य बनाया है। उनकी यह सोच वास्तविकता के बिल्कुल विपरीत है। अंग्रेजी शिक्षा से पूर्व का भारतीय सुशिक्षित व सुसंस्कृत था। अंग्रेजी शिक्षा ने उसकी विवेकी बुद्धि को कुंठित कर दिया, उसकी बुद्धि को भ्रमित कर दिया अर्थात बुद्धिविभ्रम कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा ने हमारा बुद्धिविभ्रम कैसै किया? इसे जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि अंग्रेजों ने भारत पर राज्य किन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया था। क्या वे सच में भारतीयों का कल्याण करना चाहते थे? नहीं, उनका यह उद्देश्य बिल्कुल नहीं था। उनके उद्देश्यों को जानेंगे तो दाँतों तले अंगुली दबा लेंगे।
भारत में अंग्रेजी राज के उद्देश्य
“ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी” नामक व्यापारी संस्था सन 1600 ई. में अर्थात सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में व्यापार करने के बहाने भारत आई। भारत में व्यापार करना और विपुल मात्रा में धन कमाना उनका पहला उद्देश्य था। येनकेन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीति-नीति थी। उनकी इस रीति-नीति को लूटकर कमाना कहना अधिक सार्थक है क्योंकि उनके कारनामें ऐसे ही थे।
उनका दूसरा उद्देश्य था, राज्य सत्ता प्राप्त करना। इसे लूट करने का सहयोगी उद्देश्य भी कहा जा सकता है। वह इसलिए कि राज्य सत्ता प्राप्त कर लेने से लूटना निर्विघ्न हो जाता है। वे भारत के शासक बन गए, जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उस उस भाग को ब्रिटिश इंडिया कहा जाने लगा। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उन्होंने राज्यों में सीधा-सीधा हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया। सन 1857 तक उन्होंने भारत के बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया, परन्तु 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनको जो जबरदस्त मार खानी पड़ी उसके परिणामस्वरूप 1857 से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के शासन के अधीन आ गया। अर्थात भारत पर ब्रिटिश शासन का राज्य हो गया। इस प्रकार 1857 से 1947 तक भारत में ब्रिटिश राज चला।
उनका तीसरा उद्देश्य था भारत का ईसाईकरण करना। इस कार्य में उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश राज की ओर से प्रकट और गुप्त दोनों ही प्रकार से सहायता मिलती थी।
उनका चौथा उद्देश्य था भारत का अंग्रेजीकरण करना। इस अंग्रेजीकरण को ही हम कभी यूरोपीकरण तो कभी अमेरिकीकरण अथवा कभी पश्चिमीकरण भी कहते हैं। वे भारत को पूर्व का देश कहते हैं, इसलिए यूरोप के लिए हम पश्चिमी देश शब्द का प्रयोग करते हैं। ये चारों उद्देश्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य तो धन लूटना ही था। लूट बेरोकटोक सरलता से कर सके इसलिए शेष तीनों उद्देश्यों का सहारा लिया गया था। इन चारों उद्देश्यों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें पश्चिमीकरण का उद्देश्य सबसे अधिक विनाशक व दूरगामी सिद्ध हुआ। आज भी हम पश्चिमीकरण के दुष्परिणामों से पूर्णतया मुक्त नहीं हुए हैं।
यूरोपीकरण का घातक रोग
अंग्रेजों ने भारत की समृद्धि को खूब लूटा परन्तु उसके बाद भी वे भारत का सर्वनाश नहीं कर पाए। क्योंकि समृद्धि के स्रोत बने रहे। राजसत्ता अपने हाथ में ली परन्तु 1947 में वह सत्ता भी छोड़कर भारत से जाना पड़ा। इसी प्रकार उन्होंने भारत का ईसाईकरण शुरु किया, बहुत बड़ी संख्या में गरीब, वनवासी और गिरिवासी लोगों को ईसाई बनाया। आज भी ईसाईकरण का काम अनेक मिशनरियों के माध्यम से हो रहा है। फिर भी पूरा भारत अभी भी ईसाई नहीं हुआ है। यह हम सब भलीभाँति जानते हैं।
अंग्रेजों ने भारत का जो यूरोपीकरण किया उसके परिणाम सबसे घातक सिद्ध हुए। भारत आज भी उस दुष्चक्र में फँसा हुआ है और उसके दुष्परिणामों को भुगत रहा है। यूरोपीकरण के उद्देश्य में उन्हें शत प्रतिशत सफलता तो नहीं मिल पायी परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत से अधिक सफलता प्राप्त करने में अवश्य सफल हुए। उनकी इस सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारे लिए इस रोग से ग्रसित होने की है। यूरोपीकरण के इस घातक रोग से मुक्त होना हमारे लिए 1947 की राजकीय मुक्ति से भी अधिक कठिन चुनौती है।
भारत के यूरोपीकरण की प्रक्रिया का सबसे प्रभावी साधन शिक्षा ही था। शिक्षा से पहले भी अनेक साधन थे, वे अमानुषी एवं भयंकर भी थे परन्तु शिक्षा का पश्चिमीकरण करना, हमें हमारी जड़ों से काटने का कार्य पतन की ओर ले जाने वाला था। इसलिए उसके परिणाम सबसे अधिक विनाशकारी सिद्ध हुए।
हमारे उद्योग-धन्धें नष्ट किये गए
अंग्रेजों के आने तक भारत बहुत समृद्ध था। व्यापार के क्षेत्र में, कारीगरी के क्षेत्र में, उत्पादन के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में और तकनीकी के क्षेत्र में भारत अत्यधिक विकसित था। परिणाम स्वरूप विश्व भारत का लोहा मानता था। अंग्रेजों ने इन उद्योग-धन्धों को ही नष्ट कर दिया। भारतभूमि आदिकाल से समृद्धि की खान बनी रही है, परन्तु उद्योग-धन्धों के नष्ट हो जाने के कारण समृद्धि के साधन ही समाप्त हो गए। फलस्वरूप प्रजा गरीब होने लगी, धीरे-धीरे भूखे मरने लगी। और व्यापार सारा का सारा कम्पनी ने हथिया लिया।
उद्योग-धन्धे नष्ट करने के साथ उन्होंने भारतीय प्रजा का शोषण करना व उन पर अत्याचार करना शुरु कर दिया। मार, भूख व शोषण से त्रस्त प्रजा शारीरिक व मानसिक रूप से टूट गई, हताश हो गई, भयभीत हो गई और पूरी तरह उनकी गुलाम बन गई। और उनकी गुलामी करने के लिए विवश हो गई। शासक केवल अत्याचारी नहीं था, विदेशी भी था। भारत के गत इतिहास में अनेक अत्याचारी शासक हुए थे, परन्तु वे विदेशी नहीं भारतीय थे। ब्रिटिशों के विदेशी होने के कारण भारत की प्रजा उनके स्वभाव और उनकी रीति-नीति से पूरी तरह अनजान थीं। वह उनके षडयंत्रों को समझ ही नहीं पाती थीं।
राज्य हथियाने के दुष्परिणाम
अंग्रेजों ने जब भारतीय राजाओं के राज्य छीन लिए तो वह केवल राजा बदलना मात्र नहीं था। वह तो राज्य सत्ता के हस्तांतरण के साथ-साथ सभी प्रकार की व्यवस्थाओं के परिवर्तन का प्रारम्भ भी था। अंग्रेज के राजा बनने के साथ ही राज्य चलाने की पद्धति भी अंग्रेजी हो गई। राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, कर व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था आदि सब कुछ बदल दिया गया। ये सभी व्यवस्थाएँ जैसी ब्रिटेन में चलती थीं, वैसी व्यवस्थाएँ अब भारत में चलने लगीं। भारत में राजा और प्रजा के मध्य पिता और पुत्र के सम्बन्धों की जो श्रेष्ठ व्यवस्था की गई थी, उसकी तो अब कल्पना करना भी सम्भव नहीं था।
सभी नई व्यवस्थाओं का परिणाम समाज जीवन पर हुआ। सामाजिक रीति-रिवाज, स्थानीय स्तर पर न्याय व दण्ड की व्यवस्था, आपसी अर्थ-व्यवहार, विवाह तथा कुटुम्ब व्यवस्था और रहन-सहन जैसी सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन हुआ। अब वे अपनी लाठी से सबको हाँकते थे, जहाँ भी उनका सम्बन्ध आता था वहाँ बलात परिवर्तन करवाते थे। परिवर्तन करवाने के साथ-साथ भारतीय व्यवस्थाओं की आलोचना ही नहीं करते अपितु उपहास व तिरस्कार भी करते थे।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सर्वनाश
इन सब दुष्परिणामों में सबसे घातक सिद्ध हुआ भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नष्टकर उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लादना। अन्य जितने भी व्यवस्था सम्बन्धित परिवर्तन हुए उन सबको स्थायी बनाने वाला यह शिक्षा व्यवस्था का परिवर्तन ही मुख्य था। सबसे पहले तो उन्होंने भारत की शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किया, फिर अपनी अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी व्यवस्था यहाँ स्थापित की। यदि अंग्रेजों ने शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया होता तो हम अन्य व्यवस्थाओं को तो शीघ्र ही पुनर्स्थापित कर देते। परन्तु भारतीय शिक्षा व्यवस्था के पश्चिमीकरण से वे सारी व्यवस्थाएँ दृढ़मूल हो गई। सम्पूर्ण देश में उसने बाहरी रूप में और आन्तरिक रूप से हमारे मन व बुद्धि में गहरी जड़े जमा ली, जिससे आज तक हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। यदि ये सब परिवर्तन केवल बाहरी होते तो इन्हें बदलना कठिन नहीं था, परन्तु शिक्षा के माध्यम से हमारे मन और बुद्धि में गहरे बैठ जाने के कारण अब तक इन्हें बदलने में पर्याप्त समय लग रहा है।
शिक्षा और शिक्षा-व्यवस्था इन दो शब्दों के प्रयोग से हमारा तात्पर्य यह है कि शिक्षा अर्थात वह विषयवस्तु, वह भारतीय ज्ञान जो पाठ्य विषयों, पाठ्यक्रमों व पुस्तकों के माध्यम से छात्रों को दिया जाता है। जिससे छात्रों की दृष्टि, उनका दृष्टिकोण, उनकी विचारधारा बनती है और सिद्धान्त व जानकारी मिलती है। शिक्षा-व्यवस्था शब्द से तात्पर्य है कि भौतिक सुविधाएँ, साधन सामग्री, पठन-पाठन पद्धति, अर्थव्यवस्था, संचालन और नियमावली आदि ये सभी बातें शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत आती हैं। शिक्षा में जब परिवर्तन किया गया तो ये सारी व्यवस्थाएँ बदल डाली गई, शिक्षा क्षेत्र में यह आमूलचूल परिवर्तन था। इन सबके परिणाम स्वरूप अन्य सब व्यवस्थाएँ भी हमारे मन-मस्तिष्क में गहराई तक घरकर गई।
आज स्थिति यह है कि ब्रिटिश राज्य समाप्त हुए पचहत्तर वर्षों से अधिक का कालखंड बीत चुका है। जो व्यवस्थाएँ ब्रिटिश राज के अधीन थीं वे सब अब हमारे हाथों में हैं। परन्तु शिक्षा और शिक्षा-व्यवस्था में आज से पहले मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ था। इसलिए अन्य सभी व्यवस्थाएँ तांत्रिक रूप से भारतीय कहलाने के बाद भी मंत्र रूप में भारतीय नहीं बन पाई थीं। जब से भारत में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए सभी निर्णय लेने वाली राष्ट्रवादी सरकार बनी है तब से शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन के प्रयास भी प्रारम्भ हुए हैं। राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 ऐसा ही एक सही परिवर्तन की दिशा में बढ़ा हुआ पहला कदम है जो आगामी समय में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से भारत को पुनः जग सिरमौर बनानेवाला सिद्ध होगा।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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