✍ आचार्य श्रीतुलसी
जीवन जीना एक बात है और विशिष्ट जीवन जीना दूसरी बात है। ऐसा जीवन जो दुसरों के लिये उदाहरण बन सके, विशिष्ट जीवन होता है। ऐसा जीवन तभी जिया जा सकता है, जब कि उसे सही ढंग से निर्मित किया जा सके। जीवन का निर्माण करने में अनेक तत्त्वों का योग रहता है। उनमें कुछ तत्त्व है- संस्कार, वंशानुक्रम, वातावरण, माँ का व्यक्तित्व, शिक्षा आदि। इनमें कुछ तत्त्व सहज और कुछ परोक्ष रूप में सक्रिय रहते हैं, पर शिक्षा का प्रयोग सार्थक उद्देश्य के साथ प्रयत्नपूर्वक होता है। वास्तव में वही शिक्षा शिक्षा है, जो जीवन का निर्माण कर सके। शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी यदि जीवन नहीं बनता है तो शिक्षा की गुणात्मकता के आगे प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
शिक्षा के साथ जीवन-निर्माण का निश्चित अनुबन्ध है। जहाँ तक यह अनुबन्ध पूरा नहीं होता, वहाँ कुछ किन्तु परन्तु खटकने लगता है। व्यक्ति भोजन करे और उसकी भूख करने वाला भस्मक व्याधि से पीडित हो। अन्यथा मात्रा-भेद हो सकता है, पर भोजन के साथ भूख मिटने की अनिवार्यता है। इसी प्रकार शिक्षा मिले और जीवन का निर्माण न हो, इसमें शिक्षा-पद्धति, शिक्षक या विद्यार्थी की कोई-न-कोई कमी अवश्य कारण बनती है। शिक्षा-पद्धति त्रुटिपूर्ण या अपूर्ण हो, शिक्षक का चरित्र, निष्ठा और पुरुषार्थ सही न हो अथवा विद्यार्थियों में शिक्षा प्राप्त करने की अर्हता न हो, उसी स्थिति में शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होता।
शिक्षा के द्वारा जीवन-निर्माण का अर्थ है- विद्यार्थी के सर्वांगीण एवं अखण्ड व्यक्तित्व का निर्माण। यह मनुष्य की दुर्बलता है कि वह खण्ड-खण्ड में जीता है। अपने व्यक्तित्व को समग्र रूप से बनाने या संवारने की चिन्ता उसे नहीं होती। उसके सामने अखण्ड व्यक्तित्व वाला कोई आदर्श भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में वह अपने व्यक्तित्व को खण्डों में बाँट लेता है। खण्डित व्यक्तित्व प्रत्येक युग की ऐसी त्रासदी है, जिसे वर्तमान और भावी दो-दो पीढ़ियों को भोगना होता है।
जीवन-निर्माण या व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से कितनी ही ऊँची शिक्षा दी जाय कितने ही अच्छे एवं योग्य शिक्षकों का योग मिले, किन्तु जब तक विद्यार्थी की भूमिका ठीक नहीं होती तब तक समय और श्रम का सही उपयोग नहीं हो सकता। जैन-आगम के उत्तराध्ययन में विद्यार्थी की अर्हता के कुछ मानदण्ड निर्धारित किये गये हैं। उनके अनुसार शिक्षा के योग्य वह विद्यार्थी होता है जो (9) हास्य न करें, (२) इन्द्रियों और मन को नियन्त्रित रखे, (३) किसी की गोपनीय बात का प्रकाशन न करें, (४) चरित्र से हीन न हो, (५) चारित्रिक दोषों से कलुषित न हो, (६) रसों में अति लोलुप न हो, (७) क्रोध न करे और (८) सत्य में रत हो।
यह आवश्यक है कि ज्ञान मन्दिर में प्रवेश करने से पहले ही विद्यार्थी को प्रारम्भिक संस्कार दिये जायें, क्योंकि जब बालक का जीवन गलत संस्कारों से भावित हो जाता है, तब संस्कार-परिवर्तन की बात कठिन हो जाती है, इसीलिये प्राचीनकाल में बच्चों को गुरुकुलों में रखकर पढ़ाया जाता था। वहाँ उन्हें जो शिक्षा दी जाती थी, उसका आधार केवल पुस्तकें नहीं होती थीं। उस समय दी जाने वाली शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविका नहीं होता था। जीविका के साथ शिक्षा को जोड़ना ही शिक्षा नीति का अतिक्रमण करना है। यह बात विद्यार्थी और शिक्षक दोनों के लिये समान रूप से लागू होती है। शिक्षक यदि शिक्षा को जीविका का साधन मात्र मानता है तो वह विद्यार्थी को पुस्तक पढ़ा सकेगा, पर जीवन-निर्माण की कला नहीं सिखा सकेगा। इसी प्रकार विद्यार्थी यदि जीविकोपार्जन के उद्देश्य से पढ़ता है तो वह डिग्रियाँ भले ही उपलब्ध कर लेगा, किंतु ज्ञान के शिखर पर नहीं चढ़ सकेगा।
शिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य यदि केवल बौद्धिक विकास अथवा डिग्री पाना ही हो, तो यह दृष्टिकोण की संकीर्णता है, क्योंकि शिक्षा का सम्बन्ध शरीर, मन, बुद्धि और भाव सबके साथ है। एकांगी विकास की तुलना शरीर की उस स्थिति के साथ की जा सकती है, जिसमें सिर बड़ा हो जाय और हाथ-पाँव दुबले-पतले रहे अथवा हाथ-पाँव मोटे हो जायें और सिर का विकास न हो। शरीर का अंसतुलित विकास उसके भौंडेपन को प्रदर्शित करता है, ऐसी दशा में व्यक्तित्व का असंतुलित विकास उसके भीतरी भौंडेपन की अभिव्यक्ति कैसे नहीं करेगा?
जीवन के समग्र विकास की दृष्टि से शिक्षा को रचनात्मक मोड़ देने के लिये आवश्यक है कि निर्धारित पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कुछ विशिष्ट प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाय। विशिष्ट प्रशिक्षण के क्रम में कुछ महत्वपूर्ण उपक्रम ये है (१) जीवन-मूल्यों की शिक्षा, (२) मानवीय सम्बन्धों की शिक्षा, (३) भावनात्मक विकास की शिक्षा तथा (४) सिद्धान्त और प्रयोग के समन्वय की शिक्षा।
शिक्षा के ये उपक्रम विद्यार्थी में जिज्ञासा, बुभूषा और चिकीर्षा की भावना को जगा सकते हैं। जिज्ञासा का अर्थ है जानने की इच्छा। जब यह इच्छा घनीभूत हो जाती है, तब विद्यार्थी प्रत्येक बात को बहुत बारीकी के साथ ग्रहण करता है। तत्व को जानने-समझने की स्थिति में परिपाक आने पर व्यक्ति में कुछ होने की भावना जन्म लेती है। इस भावना का नाम है, बुभूषा। जो कुछ होना चाहेगा, उसमें कुछ करने की इच्छा जागेगी। कुछ करने की इच्छा जब विशिष्ट क्रियायोग के साथ जुड़ जाती है, तब यह विद्यार्थी को अखण्ड व्यक्तित्व प्रदान कर सकती है। अखण्ड व्यक्तित्व के निर्माण की एक प्रायोगिक प्रक्रिया का नाम है जीवन-विज्ञान। जीवन-विज्ञान जीवन जीने की ऐसी कला है, जो विद्यार्थी के बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास में संतुलन लाती है। इस प्रक्रिया में कायोत्सर्ग, योगासन, शरीर-विज्ञान, प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा आदि का क्रमिक अभ्यास कराया जाता है। इस अभ्यास से शरीरगत ग्रन्थियों के साथ बदलते हैं, नाड़ीतंत्र संतुलित रहता है और आदतों में परिवर्तन होता है।
भारत की स्वतन्त्रता के बाद यहाँ शिक्षा की दृष्टि से कई नये आयाम खुले। उन आयामों से अच्छे-अच्छे डाक्टर, अभियन्ता, वैज्ञानिक आदि सामने आये पर आत्मवान् व्यक्तियों के निर्माण की प्रक्रिया बहुत शिथिल हो गयी। आत्मवान् वह होता है, जो आत्मविद्या में निष्णात बन जाता है। आत्मविद्या पाने का अर्थ है अपनी पहचान से परिचित होना। पहचान किसकी? नाम या रूप की? यह सारी पहचान ऊपर की है। इस पहचान को करने वाला जो अज्ञात तत्व है, जो इस शरीर के भीतर है, उस अज्ञात को ज्ञात करने वाला आत्मवान् हो सकता है, विद्यावान हो सकता है।
आत्मा की पहचान का माध्यम है धर्म। ऐसा धर्म, जो मानवीय मूल्यों के विकास से, जीवन की पवित्रता से और व्यवहार-शुद्धि के साथ जुड़ा हुआ है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में धर्म की शिक्षा को कोई स्थान नहीं है। शिक्षा में धर्म का प्रवेश होने से साम्प्रदायिकता के उभरने का भय है। किन्तु यह भय उन लोगों को है, जो धार्मिक कट्टरता और अन्धविश्वासों से घिरे हुए हैं। अन्यथा धर्म की शिक्षा का अर्थ है- सत्य और अहिंसा की शिक्षा, सहिष्णुता और समन्वय की शिक्षा, भ्रातृत्व और सहयोग की शिक्षा तथा नैतिकता और उदारता की शिक्षा ऐसी शिक्षा को कोई भी चिन्तनशील व्यक्ति नकार नहीं सकता। पर जो लोग धर्म के नाम से ही परहेज करते हैं, वे यदि जीवन-विज्ञान के नाम से एक समग्र और प्रायोगिक शिक्षाक्रम को आगे बढ़ा सकें तो जीवन-निर्माण की समस्या का स्थायी हल निकल सकता है।
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