सावरकर का साहित्य धर्म – भाग १

    ✍ गोपाल माहेश्वरी

V D Savarkar

स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर अर्वाचीन भारत के एक ऐसे विराट व्यक्तित्व हैं जिसके प्रत्येक आयाम को समन्वित रूप से देखें या स्वतंत्ररूप से उसमें केवल और केवल राष्ट्रीयता ही प्रकट होती है। वे एक प्रतिभाशाली बैरिस्टर, छात्र नेता, राजनेता, संगठक, क्रांतिकर्ता, समाज चिंतक, विकट उद्यमी और साहित्य सर्जक थे। इनमें से सावरकर क्या अधिक थे कहना दुष्कर है पर आज के मेरे इस लेख का अभीष्ट विषय सावरकर का साहित्य धर्म है।

किसी भी साहित्य के सृजन के हेतु उस साहित्यकार के अपने मातृभौमिक संस्कारों एवं उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से प्रतिभासित रहते ही हैं। कई बार यह प्रभाव प्रच्छन्न होता है कई बार लेखक हठात् स्वयं को वैश्विक चिंतक सिद्ध करने की मंशा से सांस्कृतिक घालमेल द्वारा दबाने का प्रयत्न भी करता है पर यह बौद्धिक इंद्रजाल वास्तविकता से परे ही होता है। यहाँ यह अवश्य है कि किसी का मौलिक चिंतन अपनी श्रेष्ठता के कारण विश्वग्राह्य हो जाता है पर यह एक भिन्न बात है। मूल चिंतन अपनी माटी की चिरंतन गंध से गमकता है, उसकी पीड़ा के ताप से तपता है, संस्कृति की गौरव दीप्ति से दमकता है। उसे चाहे सारा विश्व अंशतः या पूर्णतः अथवा अपभ्रंशतः भी स्वीकार कर ले। सावरकर का साहित्य इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

साहित्य समाज का दर्पण बताया जाता है। दर्पण का कार्य है किसी भी रूप का यथावत प्रतिबिम्ब प्रदर्शित करना यद्यपि यह यथावत्ता भी दर्पण की दिशा और विकृति से प्रभावित होती है तथापि सामान्य दर्पण की ही बात करें तो भी दर्पण का हेतु रूप बिंब दिखाना भर नहीं परमोद्देश्य तो यह है कि दर्पण में प्रदर्शित अपने रूप को देख कर द्रष्टा अपनी विकृतियों का निराकरण करे, उसे संस्कृत करे, सुधारे, सँवारे। यही साहित्य धर्म है कि जो जैसा है उसे जैसा का तैसा परोसना नहीं, उसे सँवारना भी है। यहीं अनेक साहित्यकर्मी साहित्य के प्रदर्शनात्मक पूर्वरंग में ही इतने व्यस्त हो जाते हैं कि वे उत्तर रंग अर्थात् जो है उसे देखना समझना फिर सँवारना इस अंतिम चरण तक पहुँच ही नहीं पाते। मेरे विचार से साहित्यदर्पण के लिए यह पूर्वरंग मात्र कर्म है और उत्तररंग ही धर्म है। साहित्यकार केवल द्रष्टा नहीं केवल कल्पक और रचयिता भी नहीं वह संशोधक, परिष्कर्ता और सुधारक  भी है और सचेतक भी यही उसका पूर्ण स्वरूप है। भारतीय साहित्य की ऋषिपरंपरा जो वाल्मीकि और व्यास से चलती है हमारे संत कवियों से होती हुई चंद, भूषण, बंकिमचंद्र, अरविन्द, सावरकर, सुब्रह्मण्य भारती, मैथिलीशरण, दिनकर और श्रीकृष्ण सरल जैसे महान साहित्यकारों तक अनवरत है। इसमें इन सब आयामों के दर्शन होते हैं। सर्जक, पालक और संशोधक के रूप में संहारक भी। यह त्रिशक्त्यात्मक रूप ही उसे पूर्ण बनाता है।

सावरकर का विचार करें तो उनका साहित्य राष्ट्रीय है इससे अधिक उपयुक्त यह कहना होगा कि राष्ट्रीयता ही उनका साहित्य है। उसमें राष्ट्रेतर कुछ भी नहीं हैं। अब प्रश्न उठ सकता है कि राष्ट्र तो चिरंतन है तो क्या सावरकर ने सभी पूर्वकथित को ही पुनः प्रस्तुत कर दिया? तो यह जानना उचित होगा कि किसी भी स्थापना को नवीन एवं युगीन दृष्टि से देख कर नए भावजगत में प्रकट करना ही साहित्य साधना की मौलिकता है और सावरकर में यह स्पष्टतः दृश्य है। एक ही उदाहरण भी पर्याप्त होगा इसे और सुस्पष्ट करने के लिए सावरकर के जन्म के तीन वर्ष पूर्व ही सन् 1875 में बंग भूमि के एक ऋषि साहित्यकार ‘आनंदमठ’ उपन्यास रचते हैं। अँग्रेजी दासता से आकुल व्याकुल भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता के लिए अपेक्षित संगठित शौर्य की ओर ले चलने का साहित्य धार्मिक अनुष्ठान है आनंदमठ। जिसके पुरोहित बने हैं राष्ट्रर्षि बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय। इस उपन्यास में एक गीत है ‘वंदेमातरम्’। जिन्हें आनंदमठ का भी परिचय नहीं है वे भी वन्देमातरम् को अवश्य जानते हैं। ऐसा तब नहीं हुआ जबकि स्वतंत्र भारत ने इस गीत के एक अंश मात्र को अपने राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकृत किया बल्कि ऐसा होने के समय भी जितने प्रतिशत भारतीय जन इससे परिचित हैं उससे कहीं बड़ा जन प्रतिशत न केवल इसे स्वतंत्रता के लिए ऋषिप्रणीत सूक्त तुल्य मानता था बल्कि इससे प्रेरित और आंदोलित भी था। इस गीत में बंकिम बाबू भारत भूमि को माता मानते हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के समन्वित स्वरूप में भारत माता की दशप्रहरणधारिणी दिव्य भावप्रतिमा का दर्शन कराते हैं। यह गीत राष्ट्रीय क्रांतिचेताओं के लिए सूक्त बन गया और इसका शीर्षक ‘वंदेमातरम्’ तो नवयुग में स्वतंत्रता का बीज मंत्र ही सिद्ध हुआ। लगभग अठारह-बीस वर्ष के बाद ही महाराष्ट्र के नासिक में एक तरुण एक और गीत रचता है, रचयिता है तात्या सावरकर यानि विनायक दामोदर सावरकर और गीत है ‘जयोस्तु ते श्रीमहन्मंगले शिवास्पदे शुभदे। स्वतंत्रते भगवतति त्वामहं यशोयुतां वन्दे।’ भावधारा सनातन है ‘माता भूमिः पुत्रोहम् पृथिव्याः’ सहस्रों वर्ष पूर्व अथर्ववेद में  ऋषि ने कहा, वंदेमातरम् में बंकिम बाबू ने भारतभूमि के लिए कहा, अब सावरकर स्वतंत्रता के लिए कह रहे हैं। वैदिक भारत सम्पूर्ण धरा को सनातनधर्मी अर्थात् हिन्दू मानता है। बंकिम के समय भारत विश्व का एक बड़ा पर पराधीन राष्ट्र है लगभग वही स्थिति सावरकर के समय भारत की है अंतर इतना है कि 1857 की क्रांति की ज्वाला अँग्रेजी शासन को अत्यंत गहरे तक झुलसाकर भी भस्मसात् किए बगैर ही शांत हो रही थी और अब लोकमान्य तिलक महाराज, सावरकर जैसे युवानों के माध्यम से उस राख में नई समिधाएँ डाल कर यज्ञाग्नि पुनः प्रज्वलित करने में प्रयत्नरत थे।

बंकिम के साहित्य धर्म से राष्ट्रीय हिन्दू को भारतमाता नामक सर्वशक्तिमती देवी मिली तो सावरकर इस गीत में स्वतंत्रता को ही एक देवी के रूप में आराध्या बना लिया। साहित्य में मानवेतर प्रकृति का मानवीकरण बहुप्रचलित है स्वतंत्रता भी एक अमूर्त भाव सृष्टि है सावरकर ने इस भाव को देवी स्वरूप में परिकल्पित किया है। यह प्रयोग या यों कहे यह साक्षात्कार, मानवीकरण का ही सर्वोत्कृष्ट भारतीय स्वरूप देवीकरण है।

savarkar

साहित्यिक कर्म की दृष्टि से देखें तो सनातन वैदिक परंपरा का यह नव्याचार ही था। बंकिम की निरूपित भारत माता भी दुर्गारूपिणी है और सावरकर की स्वतंत्रता देवी भी, वह दशभुजा यह अष्टभुजा। सावरकर के इस गीत के संबंध में मराठी साहित्य गगन के ज्वाजल्यमान नक्षत्र श्री शिरवाड़कर जी का इस गीत को लेकर बड़ा गौरवास्पद कथन है कि इस एक गीत के मूल्यांकन के आधार पर ही सावरकर स्वभाषा के महाकवि मान्य किए जा सकते हैं। इस गीत का भावगांभीर्य और सांस्कृतिकता देखें तो यह अन्तःस्तर तक भारतीय है। आध्यात्मिकता भारत का प्राणतत्व है और यह स्वतंत्रता की देवी आध्यात्मिकरूप से भी वरदा है ऐसी उसकी वंदना इस गीत में है –

मोक्ष मुक्ति ही तुझी च रूपे तुलाच वेदान्ती।

स्वतंत्रते भगवति योगिजन परब्रह्म वदती।।

पंक्तियाँ देशिक ही नहीं देहिक व आत्मिक मुक्ति की भी बात कहतीं हैं। भाषा के स्तर पर भी सावरकर अत्यंत सतर्क और सार्थक साहित्यसाधक है। रेखांकित करने योग्य वार्ता यह भी कि बंकिम बाँग्लाभाषी कवि हैं। ‘वंदेमातरम्’ कथितरूपेण बाँग्ला गीत ही है पर उसमें बहुतांश शब्दावली संस्कृत एवं बाँग्ला की उभयनिष्ठ है। लगभग पूरा वंदेमातरम् गीत संस्कृतभाषा में ही है या संस्कृत में भी है, कुछ शब्द बाँग्ला के हैं। ऐसा ही ‘जयोस्तु ते’ गीत  में है कि मूलतः यह मराठी या महाराष्ट्री भाषा का गीत है पर लगभग लगभग संस्कृत में है, कुछ शब्द मराठी के हैं। मराठी या बाँग्ला में अधिकांश शब्द संस्कृत भाषा के ही हैं ऐसा आदर्श रखते हुए इन रचनाकारों के सामने साहित्य का एकात्मभाविक राष्ट्रसंगठक भाषायी उद्देश्य भी रहा ही होगा। इन गीतों के जनक जानते थे कि पराम्बा की कृपा से अवतरित ये काव्य, प्रादेशिक सीमाओं से परे सांस्कृतिक अखंड भारत के स्वातन्त्र्य आराधकों का युगों तक कंठहार बनेगा अतः इन परमराष्ट्रीय भावों को भारत की भाषा जननी संस्कृत भगवती के वर्ण स्वरूप में प्रकटित किया। कठिन शब्दावली, संस्कृतनिष्ठ भाषा कौन समझता है? जन जन के लिए सुबोधता की छद्म ढाल बनाकर खिचड़ी और अपस्तरीय भाषा के पक्षधरों को, हम भारतीयों को अपनी पुरा वांग्मयी आर्ष परंपरा से विच्छिन्न कर देने का कुत्सित प्रयास हमें समझना होगा। यह एक उदाहरण से और स्पष्ट होगा कि यह जानते हुए भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ महाराष्ट्री भूमि पर प्रथमतः साकार हुआ है पर इसका प्रसार भविष्य में सार्वदेशिक होगा संघनिर्माता डा. हेडगेवार जी और तत्कालीन संघ विचारक सहयोगियों ने संघ प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का भाषिक स्वरूप संस्कृत ही रखा केवल अंतिम पंक्ति भारतमाता की जय हिन्दी में है। फरवरी 1939 में श्री नारायण नरहरि भिड़े द्वारा रच कर राष्ट्रार्पित यह प्रार्थना गीत भी वन्देमातरम् और जयोस्तु ते गीतों की समगोत्रीय रचना ही है। तीनों गीतों में शुद्ध संस्कृत ही रखना भी असंभव तो न था पर अन्य भारतीय, क्षेत्रीय भाषाओं से संस्कृत की नाभिनाल संबंध बोध योजना ही मानो इन राष्ट्रीय साहित्यधर्मियों की भावना रही होगी यह निश्चित है।

सावरकर का साहित्य में उनकी लगभग दस सहस्त्र पृष्ठ की सामग्री है। सावरकर प्रणीत लगभग चालीस पुस्तकें हैं जिनमें जोसेफ मेझिनी नामक इटली के प्रसिद्ध क्रांतिकारी के जीवन चरित्र पर लिखित उनकी कृति आरंभिक पुस्तक बताई जाती है। ‘द इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस :1857’,  जो बाद में ‘1857 का स्वतंत्रता समर ‘ शीर्षक से प्रकाशित हुई, भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ, कमला, गोमांतक, हिन्दुत्व, कालापानी, हिन्दू पदपादशाही, सन्यस्त खड़्ग, उत्तर क्रिया, उःश्राप इत्यादि विशेष प्रसिद्धि प्राप्त कृतियाँ हैं। यहाँ इनके नामोल्लेख इन कृतियों के रचनाकाल के क्रम में नहीं लिख रहा हूँ पर प्रायः कुछ लंदन में बैरीस्टर बनने हेतु पढ़ने के प्रकट कारण और क्रांति व बम आदि निर्माण का प्रशिक्षण लेने के तिलक प्रेरित अभियान के गुप्त कारण लंदन प्रवास और शेष दसवर्षीय अंदमान के कारागृह और बाद में अधिकांश रत्नागिरि में व्यतीत निरुद्धिकाल में लिखित ग्रंथ हैं। इनमें काव्य है, इतिहास है, जीवनी है, उपन्यास हैं, लेख हैं, भाषण भी हैं।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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