✍ शिरोमणि दुबे
लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर देवादिदेव भोलेनाथ की परम भक्त थीं। उनके राजकीय पत्रों में ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। देवी अहिल्या ने अपने नाम से कोई भी राजाज्ञा नहीं निकाली लेकिन यह उनकी अंधश्रद्धा नहीं थी। लोकमाता मानती थी – सत्ता मेरी नहीं है, सम्पत्ति भी मेरी नहीं है जो कुछ है परमात्मा का है। लोकमाता अहिल्याबाई ने कभी नींद में सपने नहीं देखे। उनके जीवन में सपने नहीं संकल्प थे जिन्हें महारानी ने अपने जीवनकाल में पूर्ण करके दिखाया था। शिवजी की अनन्य साधिका देवी अहिल्या न केवल कुशल प्रशासक थी बल्कि उनकी सैन्य रणनीति का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे।
हमारा इतिहास दो घटनाओं का साक्षी है। एक जब पत्थर प्राणवंत हो उठे थे। पथराई अहिल्या राम की चरणरज के स्पर्श मात्र से जीवंत हो गई थी और दूसरी तब जब भारतीय संस्कृति के भाल पर कुमकुम का तिलक लगाने गांव की बेटी महल की वधु बनकर आई थी। जिसे पीढ़ियाँ देवी अहिल्याबाई के नाम से संबोधित करती आयी हैं। माँ अहिल्या इस सृष्टि की परांबा है। देवी की लोक-आराधना उन्हें राजमाता से लोकमाता के पद पर प्रतिष्ठित करती है। ग्राम्य जीवन की भोली-भाली अहिल्या का जन्म महाराष्ट्र के अहमद जिले के चौंडी गांव में 1725 और निधन माँ नर्मदा के किनारे महेश्वर में 1795 में 70 वर्ष की आयु में हुआ था।
लोकमाता की लोक प्रसिद्धि का प्रमुख कारण यह नहीं है कि उन्होंने देश भर में तीर्थों, धामों, ज्योर्तिलिंगों तथा सैंकड़ों मंदिरों के पुनर्निर्माण का कार्य कराया था। उनके शासन में नदियों पर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण कराया गया।
तीर्थयात्रियों के लिए धर्मशालाएं बनवाई गई थी। अन्नक्षेत्र, सदावर्त प्रारंभ किये गए थे। यातायात के लिए उच्च गुणवत्ता के रपटीले रास्तों, सड़कों का निर्माण कराया गया था। सैंकड़ों कूपों, बावड़ियों का खनन कराया गया। वृह्द स्तर पर वृक्षारोपण के कार्य किये गये। इतना ही नहीं लोक शिक्षा में विषेष रूप से स्त्री शिक्षा के लिए विद्यापीठों, गुरूकुलों का संचालन प्रारंभ किया गया। न केवल मंदिरों के लिए बल्कि पीरों-फकीरों को इबादत के लिए जमीन का आवंटन किया गया। महारानी के जीवन में स्वयं के लिए कोई स्थान नहीं था। उन्होंने अपने लिए एक कौड़ी भी बचाकर नहीं रखी। उनके पास जो कुछ था उसे लोक-आराधना में समर्पित कर दिया। इन्हीं गुणों के कारण अथाह सागर में उठती हुई उत्ताल लहरों की भांति अहल्या का जीवन जनसामान्य को रोमांचित कर देता है। महारानी के जीवन की अनेक घटनाएं बताती हैं यदि साधन भले की सीमित हो परन्तु यदि ध्येय पवित्र है तो स्वाभिमान के साथ स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए लोक हितैषी शासन चलाया जा सकता है। एक समरस, सुसम्पन्न, सुसंस्कृत राष्ट्र जीवन खड़ा किया जा सकता है।
उनके कृतित्व के दो पक्ष हैं पहला उनकी धार्मिक और न्यायिक वृत्ति है। उन्होंने महेश्वर जैसे छोटे गांव को अपनी राजधानी बनाकर 28 वर्षों तक धार्मिक विधि-विधान, नीति-न्याय का अवलंबन करते हुए न केवल संपूर्ण मालवा पर शासन किया अपितु बद्रीनाथ से रामेश्वरम् तक तथा द्वारिका से भुवनेश्वर तक मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया गया। महारानी ने गया में विष्णुपद मंदिर का भी निर्माण कराया था। वहीं दूसरी ओर काशी में नर्मदा के शिवलिंग को बाबा विश्वनाथ के रूप में स्थापित किया। लोकमाता अहिल्या नें गंगा, गोदावरी, सरयू तथा नर्मदा के तटों पर 34 घाटों का निर्माण कराया था। अयोध्या से नेमावर तक मंदिरों में नियमित पूजा-पाठ की व्यवस्था कराई गई तथा सात बड़े शहरों में अन्नक्षेत्र प्रारम्भ किये गये। यह सूची तो केवल बानगी भर है। लोकमाता के द्वारा कराये गये सभी कार्य उनकी धार्मिक चेतना के जीते-जागते उदाहरण हैं वहीं दूसरी ओर आदिशंकराचार्य के महान कृत्यों का भी स्मरण कराते हैं। जिसका उद्देश्य भारत के चारों शीर्षों पर चार धामों की स्थापना करके समूचे भारत को धार्मिक-सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय एकात्मता के सूत्र में आबद्ध करना था। पंड़ित खुशालीराम ने देवी अहल्या के गुणों का वर्णन करते हुए ‘देवी अहल्या कामधेनु‘ नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में देवी अहिल्या के सर्वधर्म समभाव तथा अंत्योदयी वृत्ति का उल्लेख मिलता है।
माँ अहिल्या परम शिवभक्त थीं तथा उनकी राजाज्ञाओं पर ‘श्रीषंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। लेकिन यह माता अहिल्या की भक्ति का प्रदर्शन नहीं था। जैसा कि प्रख्यात चिंतक काशीनाथ त्रिवेदी कहते हैं कि माता अहिल्या की धारणा थी कि सत्ता और सम्पत्ति मेरी नहीं है, वह जो कुछ है प्रभु का है और प्रभु के प्रतिनिधि स्वरूप नारायणी सृष्टि का है। वह प्रकृति को प्रभु का ही प्रतिनिधि मानती थीं। उन्होंने अपनी समूची संपदा देवतुल्य समाज के चरणों में अर्पित कर दी थी। देवी अहिल्याबाई अपने कार्यों से प्रजा में इतनी आदरणीय बन गई थीं कि लोगों ने उन्हें देवी का अवतार मान लिया था। 1787 के बंगाल गजट ने लिखा था- “महारानी अहिल्याबाई समाज द्वारा सम्पूर्ण देश में देवी के रूप में पूजित और प्रतिष्ठित होंगी।”
देवी अहिल्याबाई होल्कर के जीवन का दूसरा पक्ष स्वराज तथा दूदर्शिता पूर्ण निर्णयों के लिए याद किया जाता है। देवी अहिल्याबाई के पास खासगी, तथा राजकीय नाम से दो कोश संचालित थे। खासगी ट्रस्ट उनका निजी कोश था जो उन्हें अपने ससुर से विरासत में मिला था। उनके निजी कोश में उस समय 16 करोड़ रूपये जमा थे तथा इस ट्रस्ट के अंतर्गत आने वाले ग्रामों से भी नियमित आय होती थी। राजकीय कोश से प्रशासन तथा सेना का खर्च चलता था। लोकमाता ने अपने निजी कोश में जमा समस्त धन को सार्वजनिक हित के कार्यों में खर्च कर दिया। दुनिया में ऐसे उदाहरण बहुत विरले होते हैं। उनका जीवन सामाजिक न्याय के लिए समर्पित जीवन था। उनकी न्याय प्रियता शिखर पर थी। उन्होंने अपने एकलौते पुत्र मालेराव को अपराध के लिए मृत्यु दण्ड देने में एक क्षण का विलम्ब नहीं किया था। देवी अहिल्या को उनके ससुर मल्हार राव ने शस्त्र संचालन, घुड़सवारी तथा तलवार बाजी आदि का प्रशिक्षण दिया था। इसी का परिणाम था कि महारानी ने रामपुरा के युद्ध में 1771 में चन्द्रवतों के विरूद्ध मोर्चा संभाला और उन्हें युद्ध के मैदान से खदेड़ दिया था।
देवी अहिल्या बाई की सैन्य क्षमता तथा युद्ध कौशल के अनेक प्रमाण इतिहास में भरे पड़े हैं। उनकी सफल कूटनीति का प्रमाण यह है कि विशाल सैन्य बल से सुसज्जित आक्रमणकारी राघोवा को महारानी ने अकेले ही महल में आने के लिए विवश कर दिया। आये दिन अपराधों को अंजाम देने वाले भील-भिलाले, चोर-डाकुओं को महारानी ने समाज की मुख्य धारा में जोड़ दिया। महारानी अपमानित-उपेक्षित लोगों की सेवा को ईश्वर की सेवा मानती थी। महारानी की सूझ-बूझ तथा गहरी व्यावसायिक दृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वस्त्र उद्योग है जहां हजारों कारीगरों को आजीविका मिलती है। महेश्वर की साड़ियां विश्व प्रसिद्ध हैं।
वैदिक जप-तप-अनुष्ठान तथा शास्त्र और व्याकरण में पारंगत 20 पंडितों को देवी अहिल्याबाई ने आदरपूर्वक अपने राज्य में निवास का आग्रह किया था। उन्हीं विद्वानों के द्वारा हस्त लिखित ग्रन्थ तैयार कराये गये थे। उन्होंने अपने राज्य में पर्दा प्रथा को समाप्त कर दिया था। तथा स्त्रियों को अधिकार के लिए कानून में आवश्यक संशोधन किये गये। विधवाओं को पति की संपत्ति में अधिकार दिये गये तथा विधवा स्त्री को पुत्र को गोद लेने का अधिकार भी सुनिश्चित किया गया। अहिल्याबाई ने अपने राज्य में ड़ाक व्यवस्था प्रारंभ की तथा सन 1783 में पदमसी, नेनसी नामक कंपनी को महेश्वर से पूना तक डाक ले जाने का कार्य सोंपा गया।
लोकमाता अंग्रेजों की कुटिल चालों की तुलना रीछ से करती थी जो अपने दुश्मन पर सीधा हमला नहीं करता बल्कि उसे चिपटकर मार डालता है। इसलिए वह कहती थी कि फिरंगियों के माथे पर प्रहार करना चाहिए। देवी ने अंग्रेजों के षड़यत्रों के विरूद्ध सभी राजाओं-जागीरदारों की एकता का आह्वान किया था। उन्होंने फिरंगियों के भारत में प्रवेश को रोकने के लिए घाटों को बंद करने की सलाह दी थी। लोकमाता देवी अहिल्या के जनहितेषी एवं प्रजा वत्सलता के कार्यों की प्रशंसा केवल देश ही नहीं विदेशों के विद्वानों, इतिहासकारों, तथा राजनीतिज्ञों ने की है। पंडित नेहरू नें उन्हें ‘संत शासक‘ के रूप में सम्मान दिया है। श्रीमती एनीवेसेन्ट ने लिखा है कि देवी अहिल्या बाई की दृष्टि में हिन्दू व मुस्लिम समान थे। सर यदुनाथ सरकार ने महारानी को ‘श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ’ के रूप में प्रशंसा की है। विदेशी इतिहासकार जॉन मालकम ने उन्हें ‘देवी‘ की उपाधि से विभूषित किया है। जॉन की ने अहिल्याबाई को ‘दार्शनिक महारानी‘ की पदवी से सम्मानित किया है।
लोकमाता के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। वास्तव में उनका व्यक्तित्व हिमालय के शिखर जैसा है, उसका किसी बौद्धिक-गणितीय पैमाने से मापन संभव नहीं है। लोकमाता अन्त्योदय की आराधिका हैं। उनकी अभेद दृष्टि में अंतिम छोर पर खड़ा हुआ व्यक्ति पहले पायदान पर रहा है। लोकमाता संकल्प की साधिका हैं और सृष्टा भी हैं। संकल्प की पूर्णता के लिए उन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व होम कर दिया। यह सत्ता-सम्पत्ति लोक सेवा के लिए है। इसी मंत्र नें उन्हें राजमाता से लोकमाता बना दिया। महेश्वर का साड़ी उद्योग वस्तुतः लोकमाता की अन्त्योदय दृष्टि का बेजोड़ नमूना है।
(लेखक सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान, मध्य भारत के प्रादेशिक सचिव हैं।)