भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 118 (भारतीय ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु करणीय उपाय)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

भारतीय ज्ञान का अर्थ होता है, हमारे देश का ज्ञान अर्थात हमारा देशीय ज्ञान। भारत भूमि में जन्मा हमारा अपना ज्ञान। भारत के द्रष्टा ऋषियों ने जिसकी अनुभूति की, वह अनुभूत ज्ञान। इसलिए भारत में भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए।

हमारा ज्ञान अनुभूतिजन्य है

भारतीय ज्ञान की विशेषता यह है कि वह अनुभूतिजन्य ज्ञान है। वह केवल बुद्धि से या निरीक्षण से या भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में जन्मा हुआ ज्ञान नहीं है। इसलिए भारतीय ज्ञान अधिक यथार्थ है और एकात्म भाव को पुष्ट करने वाला है। ऐसा नहीं है कि भारत के अतिरिक्त और किसी देश में दर्शन अर्थात अनुभूति नहीं हो हुई है। आइंस्टीन की अनुभूति का उदाहरण इतिहास में प्रसिद्ध है परंतु वह अपवाद मात्र है।

भारत में अनुभूतिजन्य ज्ञान की ही प्रतिष्ठा है। जब तक अनुभूति का प्रमाण नहीं है तब तक उसे मान्यता नहीं है। अनुभूति के आधार पर ही शास्त्र प्रामाण्य की प्रतिष्ठा होती है। अनुमान या तर्क को भी अनुभूति का आधार होना चाहिए। अनुभूति नहीं होती है तब तक तर्क भी अप्रतिष्ठित हो जाता है। परंतु वर्तमान भारत के बौद्धिक जगत में अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं है। सर्वत्र तर्क की प्रतिष्ठा ही दिखाई दे रही है। इसका कारण यह है कि हमने यूरोप और अमेरिका की ज्ञान प्रक्रिया को स्वीकार कर लिया है। जो हमारा हीनता बोध है।

श्री रमन महर्षि, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ आदि वर्तमान समय के ऐसे उदाहरण है, जिन्हें अनुभूतिजन्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। इतिहास में तो ऐसे अनेक उदाहरण हैं। जब तक इन सब के ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं होगी तब तक भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा हुई, ऐसा नहीं माना जाएगा। आज की स्थिति में विश्वविद्यालयों में अथवा संसद में भारतीय अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा होने की संभावना दिखाई नहीं देती। क्योंकि उनकी ऐसी मानसिकता ही नहीं है। जब तक शासन की मान्यता नहीं मिलती तब तक लोक में उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती। यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है।

जब तक शासन की मान्यता नहीं तब तक कोई शिक्षित नहीं माना जाता। उसे सरकारी तो क्या निजी नौकरी भी नहीं मिलती। बिना नौकरी के भी अर्थाजन हो सकता है, ऐसी कल्पना भी लोगों के मन में नहीं आती। आज एक ऐसा चक्र बना दिया गया है जिसमें पहले शासकीय मान्यता वाले विद्यालय में प्रवेश फिर विश्वविद्यालय का प्रमाण पत्र, उस प्रमाण पत्र पर आधारित नौकरी और नौकरी ही अर्थार्जन का मुख्य साधन, ऐसा एक चक्र बना हुआ है। इस चक्र में शासन के द्वारा जो ज्ञान प्रमाणित नहीं है, ऐसे किसी भी ज्ञान की प्रतिष्ठा होना असंभव है।

भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा हेतु उपाय

वर्तमान में ज्ञान की यात्रा का चक्र उलटा चला है। वह मार्ग प्रदक्षिणा का न होकर उलटी दिशा में चलने वाला है। प्रदक्षिणा का मार्ग हमेशा भगवान को दाहिनी ओर रख कर चलता है। इसका संकेत यह है कि हमारे मार्गक्रमण में भगवान हमेशा हमारे साथ रहते हैं। अर्थात हमारे ज्ञान क्षेत्र का अधिष्ठान अध्यात्म है। वर्तमान के ज्ञान क्षेत्र को ठीक करने के लिए हमें दिशा बदलनी पड़ेगी। सर्वप्रथम हमें अपनी गति को रोक कर अर्धवृत्त करना होगा। उसके बाद जो सही मार्ग है उस पर चलना होगा। इस प्रकार दिशा बदलने के बाद ही हम शिक्षा को भारतीय बना सकेंगे और भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा कर पाएंगे।

वर्तमान समय में समाजमन पर टीवी के विज्ञापनों का अत्यधिक प्रभाव है। छोटे बच्चे और अबोध लोग टीवी में जिस पदार्थ का विज्ञापन आता है उससे प्रभावित होकर वस्तुएं खरीदते हैं। दैनन्दिन उपयोग की वस्तुओं पर इसका सर्वाधिक प्रभाव होता है। टीवी के विज्ञापन हमारे उपभोग का नियमन करते हैं। इसलिए कुछ लोगों का अभिप्राय बनता है कि हमें जो भी बात समाजमन तक पहुँचानी है उसे टीवी के माध्यम से पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए। केवल विज्ञापन ही नहीं तो विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम हम टीवी के माध्यम से प्रस्तुत करें तो समाजमन को प्रभावित कर सकते हैं।

इस प्रकार से समाज प्रबोधन करने में दो अवरोध आएंगे। एक यह कि टीवी के माध्यम से जो प्रभाव होता है वह बहुत ऊपर-ऊपर का अस्थाई होता है। दैनन्दिन उपयोग की वस्तुओं के लिए भले ही उसका तात्कालिक प्रभाव होता हो परंतु गंभीर और दूरगामी परिणामों के लिए टीवी का उतना उपयोग नहीं होता जितना हमें लगता है। दूसरा अवरोध यह है कि टीवी का और उसके जैसे माध्यमों का उपयोग इतना अधिक खर्चीला होता है और टीवी की दुनिया इतनी अधिक स्पर्धा से भरी हुई है कि उसका उपयोग करते-करते हम थक जाते हैं। बहुत प्रयास करने के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते। बाजार में जिसे पैसा कमाना है उसके लिए टीवी का उपयोग लाभदायक है।

ज्ञान साधना आवश्यक है

ज्ञान के क्षेत्र की प्रतिष्ठा के लिए तपश्चर्या करनी होती है, साधना करनी पड़ती है। देशभर में ऐसे तपस्वी और साधक स्वभाव के लोगों को निवेदन करना होगा कि समाज हित के लिए और ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए वे साधना करें। यह साधना ज्ञान की साधना होगी। गंभीर अध्ययन करने वाले लोगों द्वारा यह साधना संभव हो सकती है। आज समाज में साधक लोग भी हैं और गंभीर अध्ययन करने वाले लोग भी हैं। परंतु होता यह है कि जो साधना करते हैं वे अध्ययन नहीं करते और जो अध्ययन करते हैं वे साधना नहीं करते। फलस्वरूप दोनों में से एक का भी प्रभाव नहीं होता।

गंभीर स्वरूप का अध्ययन करने वाले लोग पद और पैसे से मिलने वाले सम्मान की अपेक्षा रखते हैं। ऐसी सुविधा नहीं मिली तो वह अपने आप को असुरक्षित अनुभव करते हैं। परंतु ऐसा करने में उन्हें व्यवस्था पर निर्भर करना पड़ता है और अपने हिसाब से वे अध्ययन नहीं कर पाते। किसी के अधीन होकर और सुविधा की चिंता करते-करते साधना नहीं हो सकती। जो वास्तव में साधक होते हैं उन्हें शिक्षा का विषय, भारतीय ज्ञान का विषय ध्यान में ही नहीं आता। उन्होंने कभी इस विषय में गंभीरता पूर्वक सोचा भी नहीं होता। वे अधिकांश अपनी ही मुक्ति के लिए या अपने ही कल्याण के लिए साधना करते हैं।

अतः दोनों बातें जिनके पास हैं ऐसे लोगों को निवेदन करना होगा। पूर्व में भी विश्व कल्याण हेतु अनेक तपस्वियों को देवताओं ने निवेदन किया था और उन तपस्वियों ने लोक कल्याणार्थ अपने आप को प्रस्तुत किया था। मुनि दधीचि का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने अपने तपोबल से अपने ही शरीर को विसर्जित कर वृत्रासुर का नाश कर सके ऐसा वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डियां दे दी थीं। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में मिलते हैं। आज भी ऐसे लोग अवश्य मिलेंगे, ऐसे लोगों को पुनः लोक कल्याण की दृष्टि से गहन अध्ययन में लगना चाहिए।

हमारे शास्त्र ग्रंथों का सार्थक अध्ययन हो

आज के विश्वविद्यालयों में भारतीय शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन तो होता है परंतु वह अध्ययन केवल डिग्री प्राप्त करने के उद्देश्य से होता है। उदाहरण के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र हो या पतंजलि के योग सूत्र हों या ईशावास्य उपनिषद हो इनका अध्ययन तो होता है परंतु वह अध्ययन सार्थक नहीं होता। फलस्वरूप विश्वविद्यालयों में होने वाला भारतीय शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा कराने वाला नहीं है। वह अधिक से अधिक उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी अवश्य देता है। परंतु वह समाज के लिए उपयोगी कैसे बनेगा इसका विचार ही नहीं होता।

उदाहरण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद में मनुष्य के व्यक्तित्व के विषय में या आत्मा के विषय में क्या लिखा है? इसकी जानकारी मिल जाती है। परंतु व्यक्तित्व की जानकारी, विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास की संकल्पना स्पष्ट कर, शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकास कैसे होगा? यह बताने में अध्येता अक्षम होता है। कदाचित यह उसका विषय ही नहीं है।

वेदों में पंचमहाभूतों को देवता कह कर उनकी स्तुति की गई है। मनुष्यों के द्वारा किए जाने वाले यज्ञों में देवताओं का हिस्सा रखा जाता है और उन्हें स्वीकार करने के लिए उनकी स्तुति की जाती है। आज संपूर्ण विश्व में पर्यावरण की बड़ी समस्या इन पंचमहाभूतों के संबंध में ही है। परंतु इस समस्या के समाधान के लिए वेदों में हल ढूंढने की कल्पना भी नहीं की जाती, होता इसका विपरीत है। जो देश पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या निर्माण करते हैं वे ही देश समस्या निर्माण नहीं करने वाले देशों को परामर्श देते हैं।

हिंदू शास्त्र ग्रंथ ही भारतीय ग्रंथ हैं

भारतीय शास्त्र ग्रंथों को ये हमारे शास्त्र ग्रंथ हैं ऐसा कहने का साहस बहुत कम लोग कर पाते हैं। ये शास्त्र ग्रंथ प्राचीन हैं, वे इतना ही कह पाते हैं। इन्हें हिंदू शास्त्र ग्रंथ तो कोई नहीं कहता। क्योंकि धर्म के समान ही हिंदू शब्द को भी विवाद का विषय बना दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने भले ही कहा हो कि हिंदू संज्ञा का प्रचलित पंथ संकल्पना से कोई संबंध नहीं है। वह तो भारतीय जीवन दृष्टि पर आधारित एक जीवन शैली है। तब भी बौद्धिक जगत इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

हिंदू कहकर उसे धर्मनिरपेक्ष भारत में आधिकारिक स्थान नहीं दिया जा सकता, यह उनका तर्क होता है। इस तर्क के पीछे भी उनकी बौद्धिक निष्ठा नहीं होती अर्थात इस विषय में शास्त्रार्थ करने के लिए वे कभी तैयार नहीं होते। जिन शास्त्रों का वे अध्ययन और अध्यापन करवाते हैं उन शास्त्रों का पक्ष लेकर वे कुछ भी करना नहीं चाहते। इस अर्थ में भारतीय शास्त्र ग्रंथ आज अनाथ से हो गए हैं। विश्वविद्यालयों ने ही उनकी ऐसी स्थिति की है।

मठ-मंदिरों में शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन

हमारे देश में भारतीय शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन करने का एक और प्रयास भी हो रहा है। देश के मठ और मंदिरों में तथा संन्यासियों के मिशन में यह अध्ययन होता है। संन्यासियों के लिए अभी भी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन करना अनिवार्य है। साथ ही उनके अनुयायियों के लिए भी इन ग्रंथों के अध्ययन का आयोजन होता है। यह अध्ययन अधिकांश दर्शनों का होता है, उसमें भी विशेष रूप से वेदान्त दर्शन का अधिक होता है। परंतु यह अध्ययन भी औपचारिक स्वरूप का ही सिद्ध होता है। संन्यासी अपनी मुक्ति के लिए या साधकों की मुक्ति के लिए अध्ययन करते हैं और करवाते हैं। परंतु मुक्ति का अर्थ क्या है इस विषय में किसी की स्पष्टता नहीं है। उनकी जीवन शैली और कार्यशैली मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करने वाली नहीं दिखाई देती। इसी प्रकार हमारे देश में सहस्रों वेद पाठशालाएं चलती हैं। जहां वेदों का अध्ययन होता है। परंतु वहां केवल वेदों का कंठस्थिकरण होता है, वेद मंत्रों का अर्थ समझना नहीं होता। इसलिए उन्हें लागू करने का विचार करना तो बहुत दूर की बात है। वेद पाठशाला में पढ़कर छात्र या तो दूसरी पाठशाला में पढ़ाते हैं या पौरोहित्य का कार्य करते हैं या ज्योतिष आदि का व्यवसाय करते हैं। देश में बदलाव कैसे आ सकता है? इसका विचार करना नहीं सिखाया जाता।

इस प्रकार के अनेक प्रयास देश भर में चलते हैं। परंतु वे अपने आप में आधे-अधूरे ही हैं। वे भारतीय ज्ञानधारा को टिकाए हुए हैं। इनके कारण से ही ज्ञान धारा पूर्णतया लुप्त नहीं हुई है। यह उनका समाज पर बहुत बड़ा उपकार है। अतः इनके आधार पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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