✍ वासुदेव प्रजापति
हमारे देश में धर्माचार्यों की बहुत बड़ी संख्या है। उनके बड़े-बड़े आश्रम चलते हैं। उन आश्रमों में धार्मिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के कार्य संचालित होते हैं। कुछ आश्रमों का कार्यक्षेत्र केवल भारत है तो कुछ का कार्यक्षेत्र विदेश भी है।
विभिन्न आश्रमों के विविध कार्य
कुछ आश्रमों में सेवा कार्य संचालित किए जाते हैं। अन्नसत्र चलाया जाता है, धर्मादाय चिकित्सालय चलाया जाता है। इनके साथ साथ शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाता है। जहां शिक्षा का प्रबन्ध है वहां प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के अनेक केन्द्र चलते हैं। उनका अपना विश्वविद्यालय भी चलता है। वहां उत्तम शिक्षा दी जाती है। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त श्रेष्ठ शिक्षक भी हैं। भारत के महामहिम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी उनके विश्वविद्यालय में आते हैं।
कुछ आश्रमों में विश्व शांति के लिए बड़े-बड़े यज्ञ आयोजित किए जाते हैं। अनेक मंत्री, विधायक, सचिव स्तर के अधिकारी अनेक उद्योगपति इन यज्ञों के आयोजन में यजमान बनकर सहभागी होते हैं। इनके महात्माजी विदेश यात्रा भी करते हैं। वैदिक धर्म में यज्ञों को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है इसलिए इनका यज्ञों पर बल रहता है। इनका तो मानना है कि अभी भी पर्याप्त मात्रा में यज्ञ-याग नहीं हो रहे हैं। ये चाहते हैं कि सरकार को हमारे काम में सहयोग करना चाहिए।
कुछ धर्माचार्यों का मानना है कि उच्च शिक्षित लोगों को उपनिषद का ज्ञान देने की आवश्यकता है, इसलिए वे उपनिषद के वर्ग चलाते हैं। ये वर्ग अंग्रेजी में चलते हैं। ऊंचा शुल्क देकर समाज के उच्च वर्ग के लोग उपनिषद पढ़ने के लिए आते हैं। उपनिषद के साथ-साथ वे वेदान्त दर्शन और श्रीमद्भगवद्गीता भी पढ़ते हैं। संस्कृत न जानने वाले, केवल अंग्रेजी भाषी लोग भी उपनिषद, गीता व वेदान्त पढ़ रहे हैं, यह शुभ संकेत है। परंतु यह सब करना ही धर्म है? आओ इसे जानते हैं।
धर्म आचरण का विषय है
धर्म कहने का नहीं करने का विषय है। स्वयं सत्य बोलने वाले लोग सत्यवादी हरिश्चंद्र या युधिष्ठिर की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते। अपना कर्तव्य ठीक से न निभाने वाले अथवा जानबूझकर छोड़ देने वाले केवल भजन सुनकर या भजन गाकर भक्त नहीं हो जाते। अपने स्वार्थ के लिए मंदिरों में जाने वाले दर्शनार्थी नहीं होते वे केवल प्रयोजनार्थी होते हैं। यह बात धर्माचार्य को समझनी चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म और परपीड़ा को सबसे बड़ा अधर्म कहा है। परहित ना करके केवल भजन-पूजन करने वाले धार्मिक नहीं हो सकते। लोगों का भला किस में है यह नहीं जानने वाले और अपने शिष्यों का या अनुयायियों को नहीं समझने वाले धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं? आचरण यदि पवित्र नहीं है लोगों की सेवा करने हेतु जो कभी कष्ट नहीं सहते, कर्तव्य का पालन करने के लिए जब त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग नहीं करते और अपने स्वार्थ के लिए लोगों का उपयोग करते हैं, संयम का पालन नहीं करते, वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर धार्मिक नहीं हो जाते।
सभी प्राणियों में एक ही आत्मतत्व है इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार न करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या वेदांत दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते, वे पंडित हो सकते हैं परंतु धार्मिक नहीं। व्यक्ति पहले धार्मिक होना चाहिए बाद में पंडित। परंतु यह बात उन्हें समझ में नहीं आती। सत्संग, कथा-वार्ता, यज्ञ-याग, तीर्थ-यात्रा, दर्शन-पूजन, धर्म ग्रंथों का अध्ययन यह सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हो। सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणाम स्वरूप होती है। बिना आचरण के ये केवल निरर्थक ही नहीं अनर्थक हो जाती है। क्योंकि यह आभासी विश्व निर्माण करती है, जिसमें सत्य इनके पीछे ढक जाता है।
धर्म अंतःकरण का विषय है
भूमि , भवन, सुविधा, कार्यक्रम आदि में धर्म नहीं होता। भजन-पूजन, संगीत, नृत्य-कीर्तन में भी धर्म नहीं होता। अध्ययन और प्रवचन में भी धर्म नहीं होता। सफेद या भगवे वस्त्रों में भी धर्म नहीं होता। यह सब अत्यंत भौतिक स्वरूप के पदार्थ हैं। धर्म तो अंतःकरण की प्रवृत्तियों में होता है।
मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त मिलकर अंत:करण कहलाता है। जब मन सद्गुणी बनता है, बुद्धि और अहंकार आत्मनिष्ठ बनते हैं, चित्त शुद्ध बनता है तब जाकर व्यक्ति धार्मिक बनता है। ऐसा व्यक्ति भजन-पूजन, कीर्तन और सत्संग करें या ना करें वह धार्मिक ही बना रहता है। वास्तव में धर्म की रक्षा तो ऐसा व्यक्ति ही करता है, ऐसे व्यक्ति का संग ही वास्तव में सत्संग है।
लोग अपना अंत:करण पवित्र कैसे बनाएं यह सीखाना ही धर्म सीखाना है। यह धर्माचार्य का कर्तव्य है। ऐसा करने से धर्म की रक्षा होती है। ऐसा धर्म ही फिर समाज की रक्षा करता है। आज इस बात का विस्मरण हुआ है, गाड़ी उलटी पटरी पर चल पड़ी है। धर्म का विचार वास्तव में व्यवहार, व्यवस्था और वातावरण के संदर्भ में करना चाहिए। इन सब के साथ यदि संबंध विच्छेद हो गया तो धर्म धर्म नहीं रहता वह धर्म का आभास मात्र होता है जो अधर्म से भी अधिक हानिकारक होता है।
धर्म की परीक्षा धारणा से होती है। जो धारण करता है वह धर्म है। जो जो बातें धारण नहीं करती वह धर्म नहीं है। धारण करने का अर्थ किसी भी पदार्थ, स्थिति या रचना को बनाए रखना, नष्ट नहीं होने देना, विकृत नहीं होने देना धारणा है। इस एक मापदंड पर मूल्यांकन करने से कोई भी क्रिया धार्मिक है अथवा नहीं और है तो कितनी धार्मिक है, इसका पता चलता है।
धर्माचार्यों की भूमिका
शिक्षाविद कहते हैं कि शिक्षा धर्म सिखाती है। जब शिक्षा धर्मानुसारी न रहकर अर्थानुसारी बन जाती है तब समाज जीवन उलटी दिशा में चलने लगता है। जीवन की सारी बातें उलटी ही होने लगती हैं। वर्तमान समय ऐसा ही है, पश्चिमी जीवन दृष्टि के प्रभाव के कारण भारत की सारी व्यवस्थाएं अर्थानुसारी बन गई हैं, इस कारण ही सारे संकट उत्पन्न हुए हैं।
इस स्थिति में धर्माचार्यों को शिक्षा और शिक्षा के माध्यम से समाज को धर्मनिष्ट बनाने का दायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। उनके अतिरिक्त यह कार्य कोई भी नहीं कर सकता। ऐसा करने के लिए धर्माचार्यों को अपनी संप्रदाय दृष्टि से मुक्त होकर धर्म दृष्टि अपनाने की आवश्यकता है। हम जानते हैं कि संप्रदाय धर्म का एक आयाम है। केवल संप्रदाय ही धर्म नहीं है, धर्म संप्रदाय से अधिक व्यापक है। व्यापक धर्म के प्रकाश में संप्रदाय भी अपनी सार्थकता प्राप्त करता है।
धर्माचार्यों का प्रथम कर्तव्य
आज समाज में धर्म को अत्यंत संकुचित बना दिया है। विशेष रूप से राजनीति के प्रभाव से धर्म विवाद के घेरे में आ गया है। इस विवाद से उसे मुक्त करने की महती आवश्यकता है। इस काम को धर्माचार्य ही कर सकते हैं। धर्म को विवाद के घेरे में फंसाने का काम साम्यवादियों ने किया है। धर्म अफीम की गोली है, ऐसा कहने से उनकी तोड़फोड़ वाली गतिविधियां शुरू हुई है जो अब कहीं पर भी धर्म नहीं चाहिए कहने तक पहुंच गई है। राजनीति इससे बहुत प्रभावित हो गई है जिससे धर्म संबंधित सारा मामला उलझ गया है।
धर्म को राजनीति और साम्यवाद के घेरे से बाहर निकलना धर्माचार्यों का प्रथम कर्तव्य है। धर्मनिरपेक्षता जैसी संकल्पना कितनी हास्यास्पद व अनर्थक है, यह भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से धर्माचार्यों को धर्म सभाओं का आयोजन करना चाहिए। देश के सभी धर्माचार्यों को अपना-अपना अहम् भूलाकर परस्पर संवाद बढ़ाना चाहिए। सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के लिए भी आपसी संवाद आवश्यक है।
धर्म सर्वप्रथम विश्व धर्म है और मानव धर्म है।
विश्व की व्यवस्था विश्व धर्म है। मानव मात्र का कर्तव्य मानव धर्म है। व्यवस्था धर्म के अनुकूल होना ही कर्तव्य धर्म है। हमने आज कानून को धर्म बनाया है, यह विपरीत गति है। इसके स्थान पर धर्म को कानून बनना चाहिए। धर्म का क्षेत्र राजनीति के क्षेत्र से अधिक व्यापक है और प्रभावी है। वह राजनीति से परे भी है इसलिए जीवन का संचालन राजनीति से नहीं अपितु धर्म से होना चाहिए। इन तथ्यों को जनमानस में बिठाने हेतु धर्माचार्यों को अपनी भूमिका सक्रियता पूर्वक निभानी चाहिए।
अपनी अपनी कमाई धर्म के आधार पर करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इसे अधिक व्यापकता से समझने और समझाने की आवश्यकता रहेगी। व्यक्तिगत स्तर पर अर्थ व्यवहार में नीतिमत्ता होना आवश्यक है। परंतु इससे भी अधिक व्यापक स्तर पर अर्थ दृष्टि और अर्थ नीति बदलने की आवश्यकता है। जब तक सरकारी स्तर पर और सामाजिक स्तर पर अर्थ नीति धर्म के अनुकूल नहीं बनती तब तक व्यक्तिगत स्तर पर नैतिक आचरण करना संभव नहीं है।
केवल अर्थ नीति ही नहीं समाज व्यवस्था में भी धर्म दृष्टि होना अत्यावश्यक है। आज अनेक धर्माचार्य, मठपति, संन्यासी आदि हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था बहुत अच्छी है और उसकी पुनः स्थापना होनी चाहिए ऐसा कहते हैं। परंतु उसकी सांगोपांग चर्चा के बिना उसे पुनर्स्थापित करना संभव नहीं होगा। यह व्यापक मूलगत और वर्तमान संदर्भ के प्रकाश में अध्ययन करने का विषय है। इसे ही हमारी परंपरा में स्मृति की रचना करना कहा है। आज ऐसी स्मृति की रचना करना इस युग की बहुत बड़ी आवश्यकता है।
नए शास्त्रों की रचना आवश्यक
आज विभिन्न विषयों के नए शास्त्रों की रचना करने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। ऐसी रचना करने के लिए वर्तमान शास्त्रों का अध्ययन करना कदाचित व्यावहारिक नहीं होगा। विश्वविद्यालय में ये सभी विषय पढ़ाए जाते हैं। इन्हें पढ़ाने वाले प्राध्यापक होते हैं। इन प्राध्यापकों के साथ संवाद करने की आवश्यकता रहेगी। प्राध्यापक इन विषयों का वर्तमान स्वरूप क्या है, यह बता सकते में समर्थ हैं। धर्म दृष्टि और विषयों का ज्ञान दोनों को मिलकर विषय का नया स्वरूप ला सकते हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा शास्त्र शिक्षा के विभिन्न आयाम के संदर्भ में आज क्या कहता है? यह जानने के पश्चात उसमें धर्म दृष्टि का कितना अभाव है और धर्म दृष्टि से शिक्षा के विभिन्न पहलुओं में क्या परिवर्तन करना चाहिए यह सब उन्हें धर्माचार्य बता सकते हैं। संवाद का यह स्वरूप पूरे देश भर में चलाना चाहिए।
धर्माचार्यों को अध्यापकों, माता-पिताओं, उद्योजकों, राजनीतिज्ञों तथा कारीगरों के साथ इस प्रकार के संवाद करने चाहिए। धर्म समाज जीवन से कटा हुआ नहीं रह सकता। वह केवल वैराग्य की बात नहीं कर सकता। उसे हितकारक सांसारिक समृद्धि की बात भी बतानी होगी। हितकारक समृद्धि, सर्वजन समाज का विषय है। यह विचार सर्वजन समाज के मानस में संक्रांत करना होगा जो धर्माचार्य ही कर सकते हैं।
अपने संप्रदाय की शिक्षा देना
धर्म का एक आयाम संप्रदाय है। संप्रदायों के संबंध में दो बातों का विचार करने की आवश्यकता है। प्रथम है सांप्रदायिक विद्वेष को समाप्त करने हेतु धर्माचार्यों को ही प्रयास करने होंगे। आज यह काम वे स्वयं नहीं करते इसलिए अन्य लोगों को करने पड़ते हैं। जबकि अन्य लोगों का यह अधिकार क्षेत्र नहीं है। दूसरी बात है अपने संप्रदाय के विधि-विधानों की शिक्षा देना। इस शिक्षा में क्रिया, भावना और ज्ञान तीनों पक्ष जुड़े होने चाहिए। उदाहरण के लिए शिव के उपासकों को शिव की पूजा कैसे करना यह क्रियात्मक रूप से सीखना चाहिए। शिव के गुण अपने में आने चाहिए, ऐसी कामना करना भी सीखना चाहिए और शिवतत्व क्या है? यह भी सीखाना चाहिए। इसके साथ ही एक शैव भक्त का व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार कैसा होना चाहिए, इसकी भी शिक्षा अवश्य देनी चाहिए।
इन आधारभूत सूत्रों पर जब धर्माचार्य चलना प्रारम्भ करेंगे तब उन्हें अपना कार्य स्वयं स्पष्ट हो जाएगा। वे जब भी इस दिशा में अपना कदम बढ़ाएंगे तो शीघ्र ही कल्याणकारी परिणाम देखने को मिलेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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