भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 116 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – धर्माचार्य और शिक्षा-1)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

भारत एक धर्मप्राण देश है। सम्पूर्ण देश में धर्माचार्यों की विशेष ख्याति है। लोग उनकी बात मानते हैं। उनकी तपश्चर्या और उनके स्वाध्याय के कारण उनके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक होते हैं। इनके शिष्य भी इनकी प्रेरणा से जप, तप और स्वाध्याय में निरत रहते हैं। समाज धर्माचार्यों को अपना मार्गदर्शक मानता है। ऐसे धर्माचार्यों से समाज भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने की अपेक्षा रखता है।

भगवान शंकराचार्य की परम्परा

भारत में सभी धर्माचार्य भगवान शंकराचार्य की समृद्ध ज्ञान परम्परा में दीक्षित हैं। यह गुरु परम्परा अनेक पीढ़ियों से चली आ रही है। इनके आज के आश्रम भी उसी परम्परा में चल रहे हैं। सभी धर्माचार्य शंकराचार्य का आदर्श ही मानते हैं।

शंकराचार्य ने धर्म के क्षेत्र में बड़ा पराक्रम किया था। उस समय धर्म में विकृति आ गई थी, वह अव्यवस्थित हो गया था। धर्म के नाम पर विकृत कर्मकाण्डों से ग्रस्त था, तब शंकराचार्य ने धर्म को शुद्ध स्वरूप प्रदान कर उसे पुनः प्रतिष्ठित करने का पराक्रम किया था। छोटी आयु में ही अनेक कष्टों को झेलते हुए उन्होंने विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ किया और सबको परास्त कर दिग्विजयी बने। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान की सर्वोपरिता सिद्ध की। उनके अद्वैत के सिद्धान्त पर ही आज के सभी संन्यासी सम्प्रदाय चलते हैं। शंकराचार्य ने धर्म को केवल शास्त्रार्थ का विषय बनाकर नहीं रखा। उसे पंचायतन पूजा के रूप में घर-घर में स्थापित किया। अनेक स्तोत्रों की रचना की और व्यक्ति-व्यक्ति के कंठ और हृदय में उसे प्रस्थापित किया। ज्ञान, भक्ति और क्रिया का समन्वय कर धर्म की पुनः स्थापना की।

सभी धर्माचार्य भी धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं। यह सब मानते हैं कि धर्म व शिक्षा का अटूट सम्बन्ध है। धर्म के बिना शिक्षा को सही सन्दर्भ प्राप्त नहीं होता और शिक्षा के बिना धर्म को सुयोग्य साधन प्राप्त नहीं होता। दोनों का सम्बन्ध विच्छेद दोनों की हानि करता है। इसलिए धर्म और शिक्षा के विच्छेद को समाप्त कर संकटों का निवारण करना सभी धर्माचार्यों के अधिकार का विषय है। धर्माचार्यों के बिना यह कार्य और कोई कर भी नहीं सकता। यह साधारण कार्य नहीं है, इसके लिए सामर्थ्य चाहिए। यह सामर्थ्य तप व ज्ञान का है, यह सामर्थ्य निष्ठा का है। ऐसा सामर्थ्य धर्माचार्यों के पास है, इसलिए धर्माचार्य ही राष्ट्र के इस संकट को दूर कर सकते हैं।

धर्म आचरण का विषय है

धर्म जीवन का आधार है। धर्म से ही राष्ट्र जीवन बना रहता है। धर्म से ही समृद्धि आती है। धर्म से ही कल्याण होता है। धर्म से ही सुख मिलता है। धर्म से यश है, धर्म से ही सार्थकता है। ऐसे धर्म की उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट हो जाता है। इस धर्म का पालन करने से धर्म जीवित रहता है। धर्म आचरण का विषय है। धर्म का वाचिक स्वरूप सत्य है। धर्म का आचरण न करने से सत्य भी मिथ्या हो जाता है। अतः सत्य और धर्म के बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रहता पशु समान बन जाता है। मनुष्य केवल पशु ही नहीं बनता, वह पशु से भी नीचे गिर जाता है। पशु को नियंत्रित करने वाली तो प्रकृति होती है परन्तु मनुष्य को नियंत्रित करने वाला स्वयं मनुष्य होता है। जब मनुष्य स्वेच्छा से धर्म का नियंत्रण स्वीकार करता है तभी वह नियंत्रित होता है।

राष्ट्र जीवन के लिए धर्म की जो व्यवस्था होती है वह धर्माचार्यों के अधीन होती है। वे ही सामान्य जन को धर्म का पालन करने का निर्देश देते हैं। वे ही व्यवहार शास्त्रों की रचना करते हैं। उन शास्त्रों के अनुसार चलने से श्रेय व प्रेय दोनों की प्राप्ति होती है। सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिए किसी दण्ड विधान की आवश्यकता नहीं थी, किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी। धर्म लोगों के अन्त: करणों में स्वत: ही रहता था और मनुष्य के जीवन को निर्देशित करता था। उस समय जीवन सुखमय था। परन्तु अब कलियुग है, बिना दण्ड विधान और बिना शास्त्र के धर्म का पालन नहीं हो सकता। इनमें भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है। बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता। अर्थात धर्म स्वयं शासन करने वालों का शासक है।

धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिए प्रयास करने वाला भी यदि ये नहीं करेगा तो समाज कैसे चल पाएगा? अतः धर्माचार्य यह नहीं करेंगे तो कौन करेगा? समाज की वर्तमान स्थिति में धर्माचार्य उदासीन नहीं रह सकते, वे भी धर्म की प्रतिष्ठा चाहते हैं। इसलिए सामान्य जन की अपेक्षा धर्माचार्यों से है।

शिक्षा धर्मानुसारी बननी चाहिए

धर्म को जनसाधारण तक ले जाने के लिए शिक्षा एक सशक्त माध्यम है। परन्तु जब शिक्षा धर्मक्षेत्र से विस्थापित होकर राज्य के अधीन कर ली जाती है तब अनर्थ होने लगता है। शिक्षा धर्मानुसारी बने यह काम शिक्षकों का है, परन्तु आज के शिक्षकों को धर्माचार्यों का मार्गदर्शन और सहयोग चाहिए।

आज शिक्षा और धर्म दोनों का सन्दर्भ कुछ बदला हुआ है। शिक्षक ज्ञान की चिन्ता कम और छात्र की चिन्ता अधिक करता है। इसी प्रकार धर्माचार्य भी धर्म की चिन्ता कम और समाज की चिन्ता अधिक करते हैं। वैसे ऊपरी तौर पर तो यह चिन्ता ठीक लगती है परन्तु वास्तविकता में यह ठीक नहीं है। क्योंकि धर्म समाज के लिए नहीं होता अपितु समाज धर्म के लिए होता है। इसी प्रकार ज्ञान छात्र के लिए नहीं अपितु छात्र ज्ञान के लिए होता है। धर्माचार्य समाज को धर्म के अनुकूल बनाता है और शिक्षक छात्र को ज्ञान के अनुकूल बनाता है। छात्र ज्ञाननिष्ठ होना चाहिए, ज्ञान छात्रनिष्ठ नहीं। ठीक वैसे ही समाज धर्मनिष्ठ होना चाहिए, धर्म समाजनिष्ठ नहीं। यह सीधी-सी बात हमारी समझ में आनी चाहिए।

धर्माचारी को ज्ञानवान होना चाहिए और शिक्षक को धार्मिक होना चाहिए। धर्म और ज्ञान का सम्बन्ध विच्छेद कभी नहीं हो सकता। धर्म और ज्ञान एक सिक्के के दो पक्ष हैं। इसलिए वे एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। शिक्षक में ज्ञान का पक्ष ऊपर दिखाई देता है तो धर्माचार्य में धर्म का पक्ष ऊपर रहता है। शिक्षा को धर्मानुसारी बनाने के लिए धर्माचार्यों को नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहिए। यह उनका अधिकार और कर्तव्य दोनों है। शिक्षक वर्ग आपके नेतृत्व में चलने और सहयोगी बनने के लिए कटिबद्ध है।

यह कार्य एक भगीरथ कार्य है। यह सहज साध्य भी नहीं है। दो-चार व्यक्तियों का कार्य भी नहीं है। बहुत विचारपूर्वक अनेक समर्थ लोगों द्वारा करने योग्य काम है। अतः हम सबको दृढ़ निश्चय कर योजना बनानी चाहिए। अब तक बहुत विलम्ब हो चुका है, अब और विलम्ब नहीं करना चाहिए।

धार्मिक कर्मकाण्डों में वृद्धि

धर्मक्षेत्र में कार्यरत धर्माचार्य समझते हैं कि शिक्षा हमारा विषय नहीं है। शिक्षा राज्य की व्यवस्था में चलती है और चलनी भी चाहिए, ऐसा उनका अभिप्राय बना हुआ है। इसलिए वे शास्त्रों के अध्ययन व धर्मोपदेश को ही अपना मुख्य कार्य मानते हैं। परन्तु इस विषय में उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि शिक्षा ही धर्म को लोगों तक ले जाने का सशक्त माध्यम है।

धर्माचार्यों की यह अपेक्षा तो रहती है कि लोग धर्म के मार्ग पर चलें, परन्तु उनकी यह अपेक्षा पूरी नहीं होती। लोगों पर धर्माचार्यों के उपदेश का स्थायी प्रभाव नहीं होता। लोग उनका उपदेश सुनते हैं और शीघ्र ही भूल जाते हैं। दूसरी ओर आज धार्मिक कर्मकांडों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। देश के सभी विख्यात मन्दिरों में दर्शन हेतु लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती हैं। बारह मास ये मन्दिर दर्शनार्थियों से भरे रहते हैं। तीर्थस्थलों पर भी हमेशा भीड़ दिखाई देती है। लोग पदयात्रा करके भी तीर्थों पर दर्शन करने जाते हैं। कथाओं व सत्संगों के आयोजन भी पहले की अपेक्षा आज अधिक हो रहे हैं।

इसी प्रकार साधु-सन्तों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। टीवी में अनेक वाहिनियों पर पुराण कथाएं देखने को मिलती हैं। अनेक धारावाहिक पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं। कुल मिलाकर धार्मिक आयोजनों की संख्या में वृद्धि हुई है। परन्तु लोग धार्मिक नहीं हुए हैं। सामान्य व्यवहार में नीतिमत्ता का ह्रास हुआ है। उपदेश, तीर्थयात्रा, सत्संग आदि का कोई प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा है। इसके विपरीत दुराचार और अनाचार में वृद्धि देखने को मिल रही है। लोग सभ्यता भूलकर असभ्य होते जा रहे हैं।

धर्म नित्य जीवन के साथ जुड़ना चाहिए

लोग धार्मिक नहीं हो रहे हैं, इसका कारण यही है कि धर्म का नित्य जीवन के साथ सम्बन्ध विच्छेद हो गया है। धर्म एक तरफ और व्यवहार दूसरी तरफ की स्थिति बनी हुई है। वास्तव में धर्म नित्य जीवन के साथ जुड़ा होना चाहिए, परन्तु आज ऐसा होता नहीं है। होता इसलिए नहीं है कि नित्य जीवन के सारे कार्य किसी अन्य पद्धति से चलते हैं। जैसे शासन चलाने के लिए संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक जनप्रतिनिधि होते हैं। उनके लिए चुनाव होते हैं, आज की स्थिति ऐसी है कि धर्म के द्वारा दिए गए नीतिगत उपदेश से चुनाव नहीं जीते जा सकते। इसका अर्थ यह लिया जाता है कि चुनाव जीतना है तो अनीति के मार्ग पर चलना पड़ेगा।

जीवन की आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए विविध वस्तुओं का उत्पादन, वितरण, उपभोग आदि के क्षेत्र में नीति का कोई स्थान नहीं है। धर्म जिसे भ्रष्टाचार कहता है उस भ्रष्ट व्यवहार के बिना आज का अर्थ-तंत्र चलता ही नहीं। कानून भ्रष्टाचार को समर्थन नहीं देता परन्तु वास्तविकता यही है कि भ्रष्टाचार के बिना न उद्योग चलते हैं और न बाजार ही चलते हैं। लोगों के घरों में अनाचार सहज हो गया है। भोजन अपवित्र, वाणी अशुद्ध, इच्छाएं पशुवत और इच्छापूर्ति के तरीके भी निकृष्ट, दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यन्त अधार्मिक और अवैज्ञानिक है। आचार विचार में दिखावा अधिक और सच्चाई कम दिखाई देती है। एक ओर धार्मिक कर्मकांडों की भरमार, दूसरी ओर अधार्मिक आचार-विचारों का बोलबाला। सामान्य लोगों का जीवन दुभर हो गया है।

इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करने की आवश्यकता है। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक से समझना चाहिए। इस समस्या का मूल कारण धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट जाना है। शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है जबकि धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है। ये दोनों दिशाएं एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ चल नहीं सकता। अतः हमें आभासी मार्ग पर न चलकर सदैव वास्तविक मार्ग पर ही चलना चाहिए।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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