बाइक 

✍ गोपाल माहेश्वरी

वैभव अभी सोलह वर्ष का ही हुआ था। इन दिनों उसके मामा आए हुए थे। उसके मामा के पास एक बाइक थी। वे कहीं भी जाते, तो प्रायः बाइक से जाते। एक-दो बार उनकी बाइक पर वैभव भी सवार हो लिया। बस, बाइक के फर्राटे का ऐसा चस्का लगा कि अब उसे अपनी साइकिल बिल्कुल न सुहाने लगी। उसने धीरे-धीरे बाइक चलाने की जानकारी पूछी, तो मामा बहुत प्रसन्न हुए कि वैभव नई बातें समझने और जानने के लिए कितना उत्साहित है। जल्दी ही वे “आओ करके सीखें” की स्थिति में आ गए। अब मामा पीछे और वैभव आगे। वैभव ने बाइक चलाना सीख ही लिया। हाँ, यह बात अभी घर में सभी से अवश्य छुपी हुई थी।

उस दिन मामा दोपहर में सो रहे थे कि मेज पर रखी बाइक की चाबी वैभव ने देख ली। बस, अब उसके उत्साह की सारी सीमाएँ टूट गईं। कुछ ही पलों में बाइक सूनी सड़क पर फर्राटा भर रही थी। वैभव को लग रहा था मानो उसने ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीत लिया हो। थोड़ी देर में बाइक सकुशल लौटाकर वह खड़ी कर ही रहा था कि देखा, मामा सामने खड़े हैं। उन्होंने भौंहें चढ़ाकर हाथों के संकेत से पूछा, “क्या कर रहे हो?” वैभव सकपकाकर बोला, “क्… क्… कुछ नहीं। बस आपकी बाइक पर कपड़ा लगा रहा था। सोचा धूल जम गई है, साफ कर दूँ।” मामा बच्चे न थे, समझ गए कि बाइक पर धूल अभी भी है और वैभव के हाथों में कपड़ा नहीं, चाबी है। पास आकर देखा तो माइलोमीटर और फ्यूल के कांटे ने भी सुनिश्चित कर दिया कि बाइक कहीं सैर करवा कर लाई गई है, लेकिन लाड़ले भानजे को कुछ कहने का मन नहीं हुआ।

वैभव का साहस बढ़ चला। अब मामा के सोए होने का अवसर कम पड़ने लगा, तो बाइक मामा से माँगी जाने लगी। मामा का लाड़-प्यार भी तो अंधा हो रहा था। मामा ने उसके जन्मदिन पर एक बाइक ही उपहार में दे दी। लाड़ लड़ाने के और भी तरीके हो सकते थे, पर मामा ने यही चुना। अपनी नई बाइक पर विद्यालय जाने वाला वह अकेला विद्यार्थी होगा। माँ ने टोका भी, “वैभव! अभी तो तुम्हारा ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं बना है, बेटा! पहली गलती मामा ने तुम्हें बाइक देकर कर दी, पर अब इसे लेकर विद्यालय जाने की गलती तुम मत करना।”

“विद्यालय के रास्ते में न कोई ट्रैफिक सिग्नल है न कोई ट्रैफिक पुलिस। फिर क्या डर है? धीरे-धीरे चलाऊँगा, तभी तो सीखूँगा।” वैभव ने उत्साह में बहुत ही लापरवाही भरा उत्तर दिया था। माँ इस उत्तर से बिल्कुल संतुष्ट न थीं। मामा तो जा चुके थे, पर नई बाइक वैभव को बेचैन कर रही थी और माँ ने उसकी चाबी छुपाकर रख दी। उस दिन जब वैभव के मित्रों की मंडली उसके घर आ धमकी और जिस बाइक की बातें वे वैभव से सुनते रहते थे, उसे आँगन में कवर से ढँकी खड़ी देखी, तो वे वैभव को छेड़ने लगे। एक बोला, “वैभव, तेरी दुल्हन घूंघट भी उठाती है या पर्दे की बीवी ही बनी रहती है?” यह मजाक बहुत तीखा भी था और भद्दा भी। घर में कोई सुनेगा, तो क्या सोचेगा, ये लोग ऐसी ही बातें करते हैं क्या? “ऐ, चुप कर। ये क्या घूंघट, दुल्हन लगा रखा है? ये घर है मेरा, चायवाले की टपरी नहीं।” वैभव दबे स्वरों में डपटते हुए बोला, किंतु किशोर मित्रों को ऐसी रोक-टोक और हिदायत रास नहीं आती, विशेषकर जब वे संस्कारहीन वातावरण में पल-बढ़ रहे हों।

पहला कुछ कहता, तब तक दूसरा मित्र बीच में कूद पड़ा, “अरे रे! बच्चे से दुल्हन की बात मत करो। इसकी बाइक तो खिलौने की है। चलाने की नहीं, दिखाने की है।” सब ठहाका मारकर हँसे। तभी माँ आ गईं। “कैसे हो, बच्चों!” माँ ने पूछा। एक ने कहा, “अच्छे हैं।” बाकी मित्र ‘बच्चे’ शब्द दुहराते हुए फुसफुसाते हुए हँस दिए। भला माँ को क्या पता था कि इनमें क्या बातें चल रही हैं। वे “मैं तुम्हारे लिए गर्मागर्म पकौड़े लाती हूँ,” कहते हुए रसोई की ओर बढ़ गईं। वैभव के पेट में अंगुली धँसाते हुए एक ने कहा, “बच्चे!” दूसरे ने गाल पर हाथ लगाकर कहा, “बाइक वाले बच्चे!” अब वैभव बुरी तरह खीज उठा था। यह मेरा घर है, कोई फुटपाथ नहीं। मेरी बाइक से सब जलते हैं, तभी तो ऐसा भद्दा मजाक कर रहे हैं। मन हुआ सबको धक्के देकर भगा दे, पर तभी पकौड़ों की प्लेट लिए माँ आ गईं। वे सहजता से बोलीं, “बहुत अच्छा हुआ तुम सब आए।” वैभव के मन में शोर उठा, ‘बहुत बुरा हुआ जो तुम सब आए।’

दुष्ट मित्रों की धूर्तता कम नहीं पड़ रही थी। एक ने बड़ी बनावटी गंभीरता से वैभव के काँधे पर हाथ रखा और बोला, “वैभव! अभी हम बच्चे ही हैं। बाइक चलाते तो नहीं हो न?” व्यंग्य किसी पैनी छुरी की ठंडी धार की तरह वैभव के मन में धँस गया।

वे लड़के तो बाइक की सीट को थपथपाते हुए लौट गए, पर वैभव उस रात सो न सका। मित्रों की बातें हथौड़े की तरह उसके मन पर चोट कर रही थीं। रात के चार बजे वैभव ने एक दुस्साहसिक निश्चय किया, ‘इन्हें एक बार तो दिखाना ही है कि वैभव बच्चा नहीं है। अब भी जब कि वे सभी साइकिलों पर हैं, वैभव के पास बाइक है, बाइक।’ बस यह कल ही दिखा देना है। ऐसा सोचकर उसने धीरे से अपने ही घर में चोरी करने की योजना बना ली – बाइक की चाबी के लिए माँ की अलमारी से चोरी और फ्यूल के लिए पिताजी के पर्स से चोरी।

लेकिन अब भी आँगन में खड़ी बाइक को ले पाना इतना सरल न था। व्यक्ति जब एक गलत मार्ग पर निकल पड़े, तो संभलना कठिन ही होता है। वैभव के मस्तिष्क की बाइक पर प्रेत सवार हो चुका था। उसने चुपचाप बाइक का कवर हटाया और बिना स्टार्ट किए चाबी घुमाकर बाइक बाहर खड़ी कर दी। फिर कवर के नीचे कुछ पुराना अटाला सामान ऐसे जमा दिया कि कवर से ढँका होने पर कोई एकदम समझ पाना कठिन रहे कि वहाँ अब बाइक नहीं, कुछ और है। “वैभव! तू गलत कर रहा है,” उसके मन के एक कोने से आवाज आई, पर आहत अभिमान के शोर ने उसे दबा दिया।

साढ़े पाँच बजने को थे। थोड़ी देर में जागने का समय होने वाला था जब वैभव सो रहा था। आज विद्यालय में शारीरिक व्यायाम प्रदर्शन का आयोजन था, इसलिए विद्यालय शाम चार बजे तक जाना था। वैभव ने किसी कार्यक्रम में भाग ही नहीं लिया था, जबकि पिछले वर्ष अपनी कक्षा के साहसिक प्रदर्शन में उसने नेतृत्व करते हुए कक्षा को प्रथम स्थान दिलवाया था। आज वह आठ बजे उठा। अपनी योजना का अगला चरण पूरा करने की शीघ्रता में फटाफट नहाया, भागते-भागते कुछ खाया और मित्रों से मिलने जा रहा हूँ कहते हुए निकल पड़ा।

कुछ ही पलों में कल के सभी मित्रों को मोबाइल से आंबेडकर चौराहे पर मिलने का आमंत्रण देकर वह पेट्रोल पंप पर फ्यूल डलवाने रुका। पेट्रोल भरने वाला एक अधेड़ उम्र का आदमी था। उसने पेट्रोल भरते-भरते टोका, “बबुआ! हेलमेट नहीं लिए हो?” “अपना काम करो न, काका! मुझे जिधर जाना है, वहाँ न ट्रैफिक पुलिस होती है, न सीसीटीवी कैमरे, ट्रैफिक सिग्नल तक नहीं हैं।” उसने असभ्यता से उत्तर दिया।

फ्यूल भरवाकर पैसे देने के लिए पर्स निकाला, तो पिताजी से चुराए पाँच सौ के नोट के साथ एक पर्ची नीचे गिरी। वैभव का तो ध्यान न गया, पर पेट्रोल भरने वाले ने पर्ची उठाकर उसे थमा दी। “यह कुछ गिरा है आपके पर्स से।” वैभव ने पर्ची ली और खोलकर देखा, तो सन्न रह गया। वह माँ की लिखावट पहचानता था। आशंकित मन से उसने पढ़ा:

“नियम बाधा नहीं होते, संरक्षक होते हैं। अनुचित बात को उकसाने वाले मित्र अच्छे कैसे हो सकते हैं? आंबेडकर प्रतिमा पर मिलो, तो सोचना – यातायात के नियम, लाइसेंस का प्रतिबंध सब हमारे ही लिए नहीं है कि हम मानें या न मानें; ये दूसरों की सुरक्षा के लिए भी हैं। हमारा नागरिक कर्तव्य है नियमों का पालन करना। किसी भ्रष्ट पुलिस वाले को सौ-पचास रिश्वत देकर शायद जुर्माने से बच सकते हो, पर अपनी या किसी की जान को खतरे में नहीं डाल सकते। आगे स्वयं समझना, तुम अब बच्चे नहीं हो।

– तुम्हारी माँ।”

वैभव बाइक को स्टार्ट भी नहीं कर पाया। धकेलते हुए ही घर लौट पड़ा। माँ सामने ही खड़ी मुस्कुरा रही थीं। वैभव माँ से लिपट गया। “तो आपको पता था, माँ?” गला भर्रा रहा था। “माँ को घर का हर परिवर्तन ध्यान में रहता है – बाइक कवर के नीचे रखें अटाला सामान का भी और बच्चों के मन में जमा अटाला विचारों का भी। बच्चे सो रहे हों, तब भी माँ को जागना होता है और जाग रहे हों, तब तो जागना ही पड़ता है। पकौड़े तलते हुए भी तुम्हारी बातें कानों तक आ रही थीं मेरे।”

“जासूसी?”

“नहीं, निगरानी। यह एक माँ का कर्तव्य है।” वैभव को ललचाने वाली बाइक ने अब जैसे शर्म के मारे कवर में मुँह छुपा लिया था। हाँ, कभी-कभी पिताजी के साथ इस पर सैर अवश्य हो जाती थी।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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