शिक्षा में भारतीयता के पोषक : दीनानाथ बत्रा

प्रणय कुमार

भारत के शैक्षिक-सामाजिक परिवेश में बहुधा ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति अपने जीवन-काल में ही शिक्षा-क्षेत्र में किए गए प्रयोगों, कार्यक्रमों, गतिविधियों एवं आंदोलनों के कारण चर्चा और आकर्षण का केंद्रबिंदु बन जाए। पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों को सामान्यतः अरुचिकर एवं नीरस विषय माना जाता है। जनसामान्य तो क्या प्रबुद्ध वर्ग भी उसके प्रति प्रायः उदासीन ही ररहता है। यह दीनानाथ बत्रा की प्रखर बौद्धिकता, गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक समझ, प्रभावी संप्रेषणशीलता और सर्वसाधारण को समझने-समझाने की अद्भुत कला थी कि उन्होंने पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों में बदलाव जैसे शैक्षिक मुद्दे को जन-सरोकार में परिणत कर दिया था।

ईक्कीसवीं सदी का बीता ढाई दशक शिक्षा-क्षेत्र में उनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति एवं निर्णायक व परिवर्तनकारी पहल के लिए याद रखा जाएगा। गत 7 नवंबर, 2024 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। वे शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के पूर्व अध्यक्ष, शिक्षा बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक, विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के पूर्व महासचिव एवं प्रख्यात शिक्षाविद थे। एक ओर उनके जीवन में तपस्वियों जैसी अपरिग्रही वृत्ति, ध्येयनिष्ठा, अनुशासनबद्धता थी तो दूसरी ओर उनमें अपने ध्येय के लिए संघर्ष व पुरुषार्थ करने का अद्भुत साहस एवं अडिग संकल्प था। इसलिए योद्धा-तपस्वी विशेषण उनके लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा।

बत्रा जी का पूरा जीवन त्याग, साधना व संघर्ष से भरा रहा। प्रारंभ में वे कुछ वर्ष संघ प्रचारक भी रहे। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पश्चात भी संघ के सेवाव्रती प्रचारकों की भाँति उनका जीवन-ध्येय ‘तेरा तुझको अर्पण’ का बना रहा। समाज व राष्ट्र के लिए आयु के अंतिम क्षण तक वे अहर्निश एवं अनथक कार्य करते रहे। संघ की शाखा में मिले संस्कारों के कारण विद्यार्थी-काल से ही उनके मन में समाज व देश के लिए कुछ शुभ, सुंदर व सार्थक करने की जो भावना पलती थी, समय व्यतीत होने के साथ-साथ वह और अधिक दृढ़ एवं बलवती होती चली गई। विभाजन की विभीषिका उन्होंने स्वयं झेली थी। विभाजन के कारण उन्हें परिवार समेत अपने जन्मस्थल डेरा गाजी खां (अब पाकिस्तान) छोड़कर भारत आना पड़ा था। विभाजन के कारण हिंदुओं के समक्ष उत्पन्न विषम एवं भयावह परिस्थितियों के वे केवल भुक्तभोगी या मूकद्रष्टा मात्र नहीं थे, अपितु उन्होंने दंगाइयों के शिकार हिंदुओं को पाकिस्तान से सुरक्षित भारत लाने तथा उनके पुनर्वास आदि में प्रत्यक्ष योगदान भी दिया था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक ब्रह्मदेव शर्मा ने अपने किसी उद्बोधन में कहा था कि “स्वयंसेवकों को शिक्षक या वकील बनना चाहिए, क्योंकि उनके पास देश व समाज का काम करने के लिए पर्याप्त अवसर एवं समय होता है”, तभी से उनके मन में शिक्षक बनने का संकल्प जगा। और यह संकल्प इतना सुदृढ़ था कि वे न केवल एक अच्छे, ख्यातिलब्ध एवं राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक बने, अपितु आगे चलकर संपूर्ण शिक्षा-जगत के लिए जीवंत प्रेरणास्रोत एवं अनुकरणीय आदर्श भी बन गए। शिक्षक एवं प्राचार्य के रूप में उनके व्यापक अनुभव एवं सुदीर्घ सेवाओं का लाभ केवल कुछेक विद्यालयों एवं वहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह विद्या भारती, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास एवं शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के माध्यम से संपूर्ण देश में पहुँचा।

शिक्षा के क्षेत्र में किए गए दीनानाथ बत्रा जी के प्रयोगों को भरपूर सफलता व सराहना मिली और विद्या भारती से लेकर अन्यान्य सरकारी एवं गैर सरकारी विद्यालयों में भी उन्हें अपनाया गया। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि व्यावसायिक दौड़ एवं आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा से दूर विद्या भारती आज जिस ऊँचे व श्रेष्ठ वैचारिक अधिष्ठान पर खड़ी है, उसकी पृष्ठभूमि में भाऊराव देवरस, कृष्णचंद्र गाँधी, लज्जाराम तोमर, ब्रह्मदेव शर्मा, दीनानाथ बत्रा जैसे अनेकानेक साधकों की साधना एवं विचार-दृष्टि ही मजबूत आधारशिला का कार्य करती रही है। अन्यथा पश्चिम से आयातित भौतिकता की आँधी, सिनेमा, टेलीविजन एवं ओटीटी से उपजी अपसंस्कृति की बयार तथा मार्क्स-मैकॉले की मानस संतानों द्वारा पोषित-पालित परकीय वैचारिकी के मध्य विद्या भारती जैसे पवित्र शैक्षिक अभियान व अनुष्ठान का उत्तरोत्तर आगे बढ़ना तथा उसे समाज का व्यापक समर्थन मिलना, सरल व संभव नहीं था। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की संकल्पना को साकार करने तथा उसके कार्य एवं संगठन को विस्तार देने में भी उनकी महती व अग्रणी भूमिका थी। शिक्षा बचाओ आंदोलन के तो वे प्रणेता ही थे।

दीनानाथ बत्रा जी का मानना था कि भारतीय शिक्षा-प्रणाली में शाश्वत-सनातन मूल्यों एवं संस्कृति का समावेश होना चाहिए। उनका कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य केवल सूचना या ज्ञान देना नहीं, अपितु चरित्र का निर्माण व संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होना चाहिए। भारतीय संस्कृति, परंपरा व मूल्यों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए वे संस्कृत-शिक्षा पर बल देते थे। ‘शिक्षा का भारतीयकरण’ पुस्तक में उन्होंने विस्तार से समझाया कि भारत की आजादी के ठीक बाद की सरकारों की भाषा-नीति के कारण अंग्रेजी का प्रभाव एवं वर्चस्व बना रहा और हिंदी एवं संस्कृत जैसी भारतीय भाषाएँ उपेक्षा की शिकार होती रहीं। उनके मतानुसार संस्कृत एवं संस्कृति का अध्ययन नहीं करने के कारण ही युवा पीढ़ी वेदों-उपनिषदों-महाकाव्यों में निहित एवं संचित अथाह ज्ञान-परंपरा से वंचित रही। उन्होंने विद्यालयी-शिक्षा में त्रिभाषा- सूत्र की पैरवी करते हुए कहा कि सबसे पहले स्थानीय भाषा (मातृभाषा), फिर हिंदी और तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत या कोई विदेशी भाषा लागू की जानी चाहिए।

दीनानाथ जी विद्यालयों में संस्कारयुक्त वातावरण की उपादेयता पर सदैव जोर देते रहे। उनके प्रयासों के कारण ही संपूर्ण देश में जन्मदिवस मनाने की परिपाटी में भारतीय परंपरा एवं आदर्शों के अनुकूल परिवर्तन देखने को मिला। जन्मदिवस या उत्सव आदि के दौरान उन्होंने मोमबत्ती जलाने-बुझाने की परंपरा को ईसाइयत एवं औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित बताया तथा उसके स्थान पर स्वदेशी एवं भारतीय परंपरा को अपनाने पर बल दिया। वे कहा करते थे कि जन्मदिवस पर मोमबत्ती जलाने-बुझाने के स्थान पर दीप-प्रज्ज्वलन करना चाहिए, स्वदेशी वस्त्र पहनना चाहिए, भारत की ऋषि-परंपरा का अनुपालन करते हुए हवन-यज्ञ का आयोजन करना चाहिए, गायत्री-मंत्र का पाठ करना चाहिए, प्रसाद-वितरण करना चाहिए, दीन-दुःखियों की सहायता करनी चाहिए अथवा गौमाता, भारतमाता या तुलसीमाता की सेवा करनी चाहिए। यह प्रकृति, पर्यावरण व सामाजिक सरोकारों से विद्यार्थियों को जोड़ने की उनकी अनूठी पहल थी। समाज में दिन-प्रतिदिन बढ़ती अनैतिकता एवं अनाचार की प्रवृत्ति पर अंकुश एवं विराम लगाने के लिए वे नैतिक शिक्षा को उपयोगी मानते थे।

दीनानाथ जी ने शिक्षा में स्वायत्तता की अनुशंसा की। उनकी मान्यता थी कि चुनाव आयोग एवं उच्चतम न्यायालय की तर्ज पर शिक्षा में स्वायत्तता होनी चाहिए। वे सदैव कहा करते थे कि शिक्षा के क्षेत्र में कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए, बल्कि राजनीति की शिक्षा होनी चाहिए। उनका पूरा जीवन अध्ययन, चिंतन, अनुशीलन को समर्पित रहा। यही कारण है कि अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद उन्होंने विपुल मात्रा में ज्ञानोपयोगी पुस्तकों की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘शिक्षा का भारतीयकरण, तेजोमय भारत, प्ररेणादीप – भाग 1, 2, 3 और 4, विद्यालय : प्रवृत्तियों का घर, शिक्षण में त्रिवेणी, शिक्षा परीक्षा तथा मूल्यांकन की त्रिवेणी, वैदिक गणित, आचार्य का आचार्यत्व जागे, वीरव्रत परम सामर्थ्य, आत्मवत् सर्वभूतेषु, माँ का आह्वान, पूजा हो तो ऐसी, हमारा लक्ष्य, विद्यालयों में संस्कारक्षम वातावरण, विद्यालय गतिविधियों का आलय, चरित्र-निर्माण तथा व्यक्तित्व के समग्र विकास का पाठ्यक्रम” आदि सम्मिलित हैं। इन सभी पुस्तकों में भारत की महान ज्ञान-परंपरा के दर्शन होते हैं। इनमें से भारतीय संस्कृति के शाश्वत स्वर मुखरित होते हैं।

वस्तुतः वे भारत और भारतीयता के प्रबल पक्षधर एवं पैरोकार थे। पक्षधर होना या पैरोकारी करना एक बात है, परंतु जिसके पक्ष में खड़े हैं, उसके लिए निरंतर अध्ययन करना, शोध करना, लिखना-पढ़ना और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए सड़क पर उतरकर आंदोलन करना या न्यायालय के दरवाजे खटखटाना दूसरी बात। जब हम छोटे-छोटे स्वार्थ, प्रलोभन, सम्मान-पुरस्कार के मोहपाश, पुलिस-प्रशासन एवं निरंकुश सत्ताओं के दबाव तथा अहं के टकराव आदि के कारण झुकते, समझौता करते या पाला बदलते बुद्धिजीवियों को देखते हैं तो बत्रा जी जैसे ध्येयनिष्ठ योद्धा का महत्त्व व वैशिष्ट्य समझ में आता है। वे अपने ध्येय एवं संकल्प के लिए बड़ी-से-बड़ी शक्तियों से लड़ने-भिड़ने-टकराने की सामर्थ्य रखते थे। विचारधारा को ताक पर रखकर सत्ता-प्रतिष्ठानों से समझौता-समन्वय करने का भाव उनमें कभी नहीं रहा, न ही प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचने के बाद उनमें बुद्धिजीवियों में पाई जाने वाली चयनित-सुविधावादी तटस्थता ही देखने को मिली। सबको साथ लेकर चलने की सांगठनिक कुशलता एवं कार्यकर्त्ताओं के हितचिंतन को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए भी उन्होंने कभी तत्त्व-दर्शन को दृष्टिपथ से ओझल नहीं होने दिया।

साहस उनका इतना प्रबल था कि 30 मई, 2001 को उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को नोटिस भेजकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में विद्या भारती के प्रति की गई प्रतिकूल, अपमानजनक एवं नकारात्मक टिप्पणी को हटाने की पुरजोर माँग की। उन्होंने तमाम प्रामाणिक तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों के द्वारा कांग्रेस द्वारा लगाए गए इस आरोप को निराधार सिद्ध किया कि “विद्या भारती की पाठ्यपुस्तकों में अल्पसंख्यकों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण हैं एवं वे जाति-व्यवस्था, सती-प्रथा एवं बाल-विवाह को उचित ठहराती हैं।” कांग्रेस के पास उनके अकाट्य तर्कों, प्रामाणिक तथ्यों एवं विपुल मात्रा में प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों आदि का कोई ठोस प्रत्युत्तर नहीं था।

सन् 2006 में उन्होंने एक जनहित याचिका दायर कर एनसीईआरटी की सामाजिक विज्ञान एवं इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में प्रकाशित सामग्री पर 70 आपत्तियाँ उठाईं। उन आपत्तियों के औचित्य एवं आधार का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनमें से कुछ सामग्री में लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल, अरबिंदो घोष एवं भगत सिंह को ‘उग्रवादी’ तथा प्राचीन काल में ब्राह्मणों एवं आर्यों को गोमांस का सेवन करने वाला तक बताया गया था। बत्रा जी ने सप्रमाण यह सिद्ध किया कि ये मनगढ़ंत, मिथ्या एवं भ्रामक बातें हैं और इनका ऐतिहासिक तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है। बौद्धिक सत्य के प्रति उनके आग्रह, संघर्ष व पुरषार्थ का ही परिणाम था कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी आपत्तियों का संज्ञान लेते हुए एनसीईआरटी को इन आपत्तियों का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाने का निर्देश दिया। कामुकता एवं भोगवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से क्षद्म वेष में बाजारवादी शक्तियों और उनके बौद्धिक समर्थकों ने जब विद्यालयी स्तर पर यौन-शिक्षा को संपूर्ण देश में अनिवार्य किए जाने की माँग उठाई, तब दीनानाथ बत्रा भारतीय समाज पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों एवं संभावित खतरों को समझने वाले प्रमुख व्यक्ति थे। तब उनके तार्किक प्रतिरोध के कारण ही कुछ प्रादेशिक सरकारों ने अपने राज्य में यौन शिक्षा को विद्यालयी स्तर पर अनिवार्य करने से मना कर दिया था।

सन् 2008 में उन्होंने शिक्षा बचाओ आंदोलन की ओर से दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में से एके रामानुजन के निबंध “थ्री हंड्रेड रामायणाज : फाइव एग्जांपल एंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन” को हटाने की माँग की, परिणामस्वरूप 2011 में विश्वविद्यालय के अकादमिक परिषद द्वारा उक्त निबंध को पाठ्यक्रम से हटा लिया गया। 3 मार्च, 2010 को उन्होंने वेंडी डोनिगर, पेंगुइन समूह, संयुक्त राज्य अमेरिका एवं पेंगुइन इंडिया की सहायक कपंनी को एक वैधानिक चेतावनी भेजकर “द हिंदुज : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री” में उल्लिखित सामग्रियों पर कई आपत्तियाँ उठाईं। उन आपत्तियों का संज्ञान न लिए जाने पर 2011 में उन्होंने डोनिगर एवं पेंगुइन प्रकाशन के विरुद्ध धार्मिक समुदायों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने तथा जान-बूझकर अपमानित किए जाने की मंशा से किए गए कृत्यों के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए के अंतर्गत मुकदमा भी दायर किया, अंततः फरवरी 2014 में पेंगुइन इंडिया को इस पुस्तक की मुद्रित सभी प्रतियाँ वापस लेने के लिए बाध्य होना पड़ा और बिना बिकी प्रतियों को नष्ट भी करना पड़ा।

सन् 2011 में ही उन्होंने वामपंथी विचारधारा से प्रेरित पत्रिका ‘द फ्रंटलाइन’ के संपादक एन. राम को ‘शॉर्टकट टू हिंदू राष्ट्र’ शीर्षक से आवरण-कथा प्रकाशित करने के लिए वैधानिक चेतावनी भेजी। भारतवर्ष की महान परंपरा में किसी की मृत्यु को वैचारिक मतभेद या विरोध आदि प्रकट करने का अवसर नहीं माना जाता, परंतु दीनानाथ बत्रा के प्रति ‘द फ्रंटलाइन’ पत्रिका की चिढ़ या घृणा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु के मात्र दो दिनों बाद उसमें “दीनानाथ बत्रा : द एजुकेशनिस्ट हू वेज्ड वार एगेंस्ट नॉलेज” शीर्षक से लेख छपा। उनके मरणोपरांत भी उनके विरुद्ध विषवमन करने में इस पत्रिका ने कोई संकोच नहीं दिखाया। उन्होंने वेंडी डोनिगर की एक और पुस्तक ‘ऑन हिंदुइज्म’ के लिए  एलेफ़ बुक कंपनी, मेघा कुमार की पुस्तक ‘सांप्रदायिकता और यौन हिंसा : अहमदाबाद 1969 से’ तथा शेखर बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘फ्रॉम प्लासी टू पार्टीशन : ए हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न इंडिया के लिए ओरिएंट ब्लैकस्वान को कानूनी नोटिस भेजा। उनके इन प्रयासों से जहाँ एक ओर जनसाधारण में हिंदू धर्म व सनातन संस्कृति के संरक्षण-संपोषण के प्रति व्यापक जागरुकता आई, वहीं अराष्ट्रीय एवं सनातन विरोधी शक्तियों में यह संदेश भी गया कि तथ्यहीन व निराधार सामग्री प्रस्तुत करने पर वैधानिक कार्रवाई झेलनी पड़ सकती है। सोचकर देखें कि सनातन विरोधी बौद्धिक शक्तियों एवं गतिविधियों पर उनकी कितनी सजग व सतर्क दृष्टि रही होगी तथा उनकी नैतिक शक्ति कितनी प्रबल रही होगी कि वे अकेले उन शक्तिशाली संगठनों एवं साधन-संपन्न प्रकाशकों से मोर्चा लेते रहे और उनके मनमानेपन एवं निरंकुशता पर एक सीमा तक लगाम लगाए रखा।

दीनानाथ बत्रा जी के महाप्रयाण के पश्चात यह विचार करना सर्वथा उचित रहेगा कि शिक्षा में जिन मूल्यों, विचारों एवं आदर्शों की स्थापना के लिए दीनानाथ बत्रा जैसे योद्धा-तपस्वी जीवनपर्यंत संघर्षरत रहे, उसमें कहाँ तक और कितनी सफलता मिली? क्या शिक्षा के भारतीयकरण एवं पाठ्यक्रम-परिवर्तन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है या उसकी गति बहुत धीमी एवं सुस्त है? सुखद है कि बत्रा जी जैसे अनेक शिक्षाविदों के सतत चिंतन, अध्ययन, अनुभव, प्रयास एवं पुरुषार्थ के बल पर देश को राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 जैसी युगांतकारी नीति तो मिल गई, पर क्या उसके क्रियान्वयन की गति एवं दिशा संतोषजनक है? ऐसे सभी प्रश्नों का यथार्थ, प्रामाणिक एवं समग्र उत्तर बत्रा जी को कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।)

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