✍ गोपाल माहेश्वरी
आज 23 जनवरी थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिवस। विद्यालय में आज विशेष सभा आयोजित थी। सेवानिवृत्त मेजर विश्वरंजन घोष विशेष मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। उनके सैन्य जीवन के अनुभवों की प्रस्तुति से बच्चों में उत्साह और रोमांच का सागर उफन रहा था। आंजनेय की ऑंखों के सामने की बार सैनिक मोर्चे के दृश्य कल्पना में उभर रहे थे। इच्छा थी कि मेजर विश्वरंजन घोष बोलते ही रहें और प्रतीक्षा थी कि प्रबोधन पूर्ण होते ही उनसे बातचीत हो सके। अंततः नेताजी के साथ घटी रहस्यमय विमान दुर्घटना से उनकी शौर्यमय जीवनयात्रा का दुखद प्रसंग बताकर उफनते दूध पर पानी की बूंदों जैसे प्रभाव के साथ जय हिन्द कहते हुए मेजर विश्वरंजन ने व्याख्यान समाप्त किया कि आंजनेय ने जय हिंद का नारा गगनभेदी ऊॅंचे स्वर में लगाया। जैसे तोप का गोला छूटा हो। सभा में उपस्थित प्रत्येक कंठ ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर इसे दुहराया।
कार्यक्रम समाप्त करके प्राचार्य जी मेजर साहब को अतिथि कक्ष की ओर ले चले। कक्ष में स्वल्पाहार चल ही रहा था कि विद्यालय के भृत्य गोपू काका ने एक चिट्ठी प्राचार्य जी को लाकर दी। चिट्ठी लेते हुए प्राचार्य जी ने धीरे से फुसफुसाया “कुछ बहुत आवश्यक है!” गोपू काका ने हाथ जोड़ दिए और दरवाजे के बाहर खड़े हो गए। चिट्ठी पढ़ते हुए प्राचार्य जी के मुख पर उभरे कुछ असमंजस के भाव देखकर मेजर ने पूछा ही लिया “कुछ खास हो तो आप जा कर देखें आचार्य जी!”
“कुछ बच्चे आपसे मिलना चाह रहे हैं मेजर साहब! लेकिन पहले एक बात बताइए……” प्राचार्य जी ने पहली बात का उत्तर मिलने के पहले ही अपनी न रुक रही जिज्ञासा व्यक्त कर दी “……आप तो मिलेट्रीमैन हैं ‘सर’ कहने के अभ्यस्त हैं आपने ‘आचार्य जी’ कैसे कहा!!”
मेजर विश्वरंजन मुस्कुराए “मैं विद्याभारती का पूर्व छात्र हूॅं आचार्य जी! गोरखपुर विद्यालय 1984 की बैच। खैर, बच्चों से अधिक तो मेरी भी इच्छा थी कि उनसे मिलूॅं, पर अतिथि की मर्यादा रोक रही थी।” प्राचार्य जी ने एक पर्ची पर कुछ लिखा और गोपू काका को देते हुए वंंदना दीदी को देने को कहा।
वंदना दीदी विद्यालय में अनुशासन की प्रतिमूर्ति मानी जाती थीं, आज के आयोजन की संयोजिका भी वे ही थीं। प्राचार्य जी का संदेश पढ़कर वे दस मिनिट में चयनित दस बारह भैया-बहिनों के साथ बैठक कक्ष में उपस्थित थीं। स्वल्पाहार समाप्त कर प्राचार्य जी मेजर साहब के साथ जैसे ही अपनी कुर्सियों के सामने पहुॅंचे बच्चों ने खड़े होकर एक साथ सैनिक प्रणाम यानि सेल्यूट करते हुए ‘जय हिन्द’ कहा। यहां तक तो ठीक था पर इतने बड़े सेना अधिकारी रहे प्रभावी व्यक्ति से बात आरंभ करने में हिचक स्वाभाविक भी थी।
प्राचार्य जी ने बात प्रारंभ करने को कहा तो मृत्युंजय ने आंजनेय को ही पीठ में अंगुली छुआकर खड़ा कर दिया। वह बोला “नमस्ते! मेजर साहब! क्या हम भी आपके जैसे……”
मेजर साहब समझ गए बच्चों की झिझक तोड़ते हुए आंजनेय के अधूरे वाक्य में हॅंसते हुए जोड़ा “……बिल्कुल क्योंकि मैं भी आपके जैसा ही था। ऐसे ही शिशु मंदिर में पढ़ता और हाॅं, खूब मस्ती भी करता था।”
सारे वातावरण में एक आत्मीयता की गंध घुल गई। सरस्वती शिशु मंदिर के हैं यह एक बात पता लगते ही सभी एक परिवार के सदस्यों जैसी सहजता में रम गए। बहिन विश्पला खड़ी हुईं तो मेजर ने बैठे-बैठे बात करने को कहा। वह बोली “काका! आप…”
मेजर ने फिर टोक दिया “उम्र के हिसाब से तो काका कह सकती हो पर नाता तो हमारा भैया बहिन वाला ही है न क्यों आचार्य जी! मैं ठीक हूॅं न?”
सभी खिलखिलाते हुए एकमत थे। विश्पला ने बात आरंभ की “भैया! क्या मैं भी सेना में जा सकती हूॅं?”
“विश्पला न जाएगी तो कौन जाएगा लोहे के पैर वाली?”
“लोहे के पैर वाली!!”
“क्या मतलब?” कुछ बच्चे असमंजस में थे।
मेजर मुस्कुराए और वंदना दीदी की ओर देखकर बोले “आप बताएंगी दीदी! आपने संचालन करते हुए आजाद हिन्द फौज की केप्टन लक्ष्मी के साथ प्राचीन भारत की वीरांगनाओं विश्पला, कैकई आदि का नाम भी लिया था।”
वंदना दीदी ने कहा “विश्पला वैदिक युग की महान वीरांगना थी। पैर कट जाने पर वह लोहे का पैर लगाकर भी युद्ध लड़ती रही। मुझे लगता है पूरी कहानी फिर सुना दूॅं अभी मेजर साहब से बातें करें?”
समय सीमित है यह ध्यान करते हुए विश्वरंजन ने चर्चा आगे बढ़ा दी। स्वाभाविक रूप से सेना, सेना में भर्ती, सेना की गतिविधियों, अनुभवों संबंधित जिज्ञासाओं पर प्रश्न प्रति प्रश्न होते रहे। तभी ठिगने कद का वामन पूछ बैठा “डाक्टर कहते हैं मेरी ऊॅंचाई तो अब बहुत नहीं बढ़ेगी, तो मुझे तो कोई अवसर ही नहीं होगा सेना में?”
गुरमीत ने कहा “मेरे पिता जी तो मोटर मैकेनिक हैं जी! मैं सेना में …”
“रहने दें रहने दे तू क्या करेगा वहाॅं।” विनोद ने उसकी बात भी पूरी न होने दी। मेजर साहब इतने घुल-मिल कर बात कर रहे थे कि प्राचार्य जी व वंदना दीदी की उपस्थिति का भी भान न रहा और विनोद ने गुरुप्रीत से हमेशा चलते रहने वाली छेड़छाड़ कर ली। वंदना दीदी की ऑंखों ने उन्हें तत्काल अनुशासित कर दिया।
अब मेजर मृत्युंजय भी अपनी पूर्व छात्र वाली अनुभूति से सेवानिवृत्त सेनाधिकारी की वर्तमान भूमिका में लौटते हुए खड़े हो गए। बाकी लोग भी खड़े होने लगे सबको लगा कि वे कहीं नाराज हो गए या कहीं और जाना है? पर उनके हाव-भाव तो ऐसे नहीं लग रहे थे!!
मेजर ने सबको बैठने का संकेत करते हुए कहा “सच्चा सैनिक कभी मोर्चा छोड़कर नहीं भागता पर मैं आप सब के पूछे अनपूछे प्रश्न समझ गया हूॅं, उनका ही उत्तर देने खड़ा हूॅं।” अब तो बच्चों की सारी इंद्रियाॅं ही जैसे कान बन गई न थीं, वे ऐसे एकाग्र होकर सुनने लगे।
मेजर विश्वरंजन बोल रहे थे “यह सच है कि आज जैसे विशेष अवसरों या मेरे जैसे किसी व्यक्ति से मिलकर आपकी अवस्था के बच्चों में बहुत उत्सुकता, उत्साह उफनने लगता है। यह भी सही है कि ऐसे ही बच्चों में से अनेक कल भारत माता की रक्षा के लिए सैनिक बनेंगे। यह भी समझ लो कि अपने राष्ट्र की रक्षा करते-करते प्राण भी देना पड़ें तो जीवन का इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा? पर यह भी समझना चाहिए कि केवल शरीर पर वर्दी, हाथ में बन्दूक और सीमा-पर मोर्चा ही देश की आवश्यकता नहीं है। न यह ही देशभक्ति का एकमात्र माध्यम। देश के लिए मरना महान कर्तव्य है, पर देश के लिए जीना उससे कम बड़ी देशभक्ति नहीं है। सैनिक बनने की क्षमता और परिस्थिति या मनःस्थिति भी सबमें नहीं हो सकती है और न ही सारे लोगों के सैनिक बनने की देश को आवश्यकता ही है पर हर एक देशवासी में एक देशभक्त सैनिक अवश्य होना चाहिए।”
मृत्युंजय ने अंगुली उठाकर कुछ पूछने की अनुमति चाही। मेजर ने संकेत से अनुमति दी “बात कुछ और खोलकर बताएं, बिना वर्दी के देशभक्त सैनिक कैसे?”
उसे बैठने का संकेत करते हुए मेजर ने कहा “अच्छा लगा आप लोग केवल सुन नहीं रहे, समझ भी रहे हो। देखो हम डाक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, किसान, शिक्षक, वकील, कलाकार या श्रमिक कुछ भी बनें हमारा पहला लक्ष्य राष्ट्र-हित, राष्ट्र की उन्नति और राष्ट्रीय स्वाभिमान रहे उसके बाद अपना हित, उन्नति, अपना लाभ रहे तो हम बिना वर्दी के भी सैनिक ही हैं। सैनिक का प्रमुख लक्षण है, बिना डरे, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ-हानि का विचार किए, किसी भी लिए गए या सौंपे गए, राष्ट्रीय या सामाजिक काम को पूरा किए बिना, कदम पीछे न हटाना। सेना कठिनाई या खतरों से डरती नहीं, भागती तो कभी नहीं, वह उनका समाधान खोजती है। शक्ति, बुद्धि, युक्ति का उपयोग कर विजय ही सुनिश्चित करती है। वैसे ही राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी अपनी योग्यताओं के साथ हर नागरिक एक सैनिक ही तो है यदि वह इस भावना से काम करता है। सेना की पहचान है अनुशासन और देशभक्ति, लेकिन यह तो हर भारतवासी की पहचान होनी चाहिए। हमारा संविधान हमें अपने प्रमुख कर्त्तव्यों का बोध कराता है और हमारा सनातन धर्म उससे भी पहले से और विस्तार से हमारे कर्त्तव्यों की शिक्षा देता है।”
अब विश्पला की अंगुली उठी कुछ पूछने के लिए, अनुमति पाकर उसने पूछा “धर्म की बात कही आपने, क्या धार्मिक संघर्ष हमारे देश को कमजोर नहीं कर रहे हैं? ऐसे ही संविधान के लिए भी संसद से सड़क तक कितना शोर मचाया जाता है? आए दिन………”
“बैठो, धर्म तो कर्त्तव्यों का ही पर्याय है, संघर्षों का पूर्ण समाधान है। धर्म वैश्विक संविधान हैं जो लड़ाई-झगड़े विवाद करते हैं, वे धर्म को जानते ही नहीं या जानते भी हैं तो मानते नहीं। हमारा सनातन हिंदू धर्म एक जीवन-पद्धति है, यह तो सर्वोच्च न्यायालय तक कह चुका है। पूजा पद्धतियों की विविधता के बाद भी धर्म एक है। कुंभ मेले में देख लो और सांप्रदायिक मतभेदों को धार्मिक विवाद कहना तो उसे कुपरिभाषित करना ही हुआ। रही बात संविधान की तो उस पर शोर वे मचाते हैं जो उसे समझना नहीं चाहते। शोर कभी विमर्श तो नहीं होता न?”
आंजनेय ने पूछा “क्या सीमाओं की रक्षा की भांति आपके बताए बिना वर्दी के सैनिकों का भी कोई दायित्व है?”
“हाॅं, क्यों नहीं? सीमाऍं केवल भूगोल की नहीं होती न, वे किसी देश का मानचित्र पर खींचा जा सकने वाला रेखांकन मात्र है। बिना वर्दी के और वर्दी वाले सैनिकों करके लिए भी संविधान, सीमाऍं निर्धारित करता है। हमारी संस्कृति, हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान, अपने स्व का बोध, उसका गौरव ये सब हर नागरिक का सैन्यभाव से निर्वाह करने, रक्षित रखने का लक्ष्य है। हमारे नागरिक कर्तव्य हमारे राष्ट्रीय धर्म का आधुनिक संस्करण है और हमारा सनातन संस्कृति बोध इसी का विस्तृत महाग्रंथ। इनके संरक्षण, सम्मान और आचरण में हम सैनिकों की भांति सजग, सतर्क और सन्नद्ध रहें तो हम सब देश के बिना वर्दी पहने भी सच्चे सैनिक ही कहलाएंगे।”
सभी के मुखमंडल समाधान और सुनिश्चय के तेज से दमकते देख विश्वरंजन जी अपनी बात पूरी करके बैठ गए। तब प्राचार्य जी ने धन्यवाद के साथ वार्ता समाप्त की। हर बच्चे के मन में अब एक ही लक्ष्य सुदृढ़ था बिना वर्दी या वर्दी पहन कर पर बनना है देश का सच्चा सैनिक।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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