– डा. हिम्मत सिंह सिन्हा
सुभाष चन्द्र बोस भारत के क्षीतिज पर उज्ज्वल नक्षत्र बनकर उभरे – कवियों ने ऐसा यशोगान किया है। जनवरी 1992 में इस महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने की घोषणा की गई। यद्यपि यह घोषणा काफी विलम्ब से की गई, फिर भी भारत माता के इस सपूत का सम्मान करना सर्वथा उचित ही है । इनकी जीवनी आत्मा-उपसर्ग की एक ऐसी कहानी है जो निर्जीव एवं हतोत्साहित व्यक्तियों के हृदयों में भी स्फूर्ति, आशा और प्राणों का संचार कर सकती है। सुभाष बोस ने देश की स्वाधीनता के संग्राम में अपने जीवन का समग्र न्यौछावर कर दिया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के पूर्वज पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के कदालिया गाँव के निवासी थे। आपका जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक के एक चित्र गुप्त वंश में हुआ था। पिता कटक में सरकारी वकील थे। कटक में ही सुभाष चन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा हुई। सन 1913 में मिशनरी स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप प्रांत भर में द्वितीय रहे थे। इसके बाद सुभाष बाबू कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में भर्ती हुए, वहां आपने बी.ए. में दर्शन शास्त्र लिया। स्वभावतः एक गम्भीरता आपके व्यक्तित्व में आ गई। ऐसे प्रतिभाशाली सहपाठी का सभी छात्र आदर किया करते थे। सुभाष बाबू की नेतृत्त्व एवं संगठन शक्ति यहाँ विकसित हो रही थी। एक मित्र के अपमान के प्रतिकार में आप प्रोफेसर सी.एफ.ओरन से भिड़ गए। बाद में आप स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश पाकर सन 1919 के दर्शन में प्रथम श्रेणी में बी.ए. उत्तीर्ण किया। इसके बाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से भी आपने बी.ए. किया।
सुभाष बाबू के पिता राजभक्त व्यक्ति थे। उन्होंने काफी आशाओं के साथ सुभाष बाबू को आई.जी.एम. के लिए भेजा था। सन 1920 में आई.जी.एम. परीक्षा में चौथे स्थान पर आकर उन्होंने सभी को अचम्भित कर दिया। लेकिन देश की राजनीति में जो उथल-पुथल मची थी और देश के वातावरण में जो देशभक्ति की आंधी चल रही थी। उससे प्रेरित होकर सुभाष बाबू भी अंग्रेजी राजद्रोही हो गए और आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ दी। उस समय भारत में सर्वोच्च पदों पर ज़िला मजिस्ट्रेट, कलक्टर, उपायुक्त के पद पर तथा उससे ऊपर सारे प्रशासक अंग्रेज ही थे क्योंकि आई.सी.एस. की कठिन परीक्षा पास करना हर एक के बस की बात नहीं थी। इतने ऊँचे पद को लात मारकर सुभाष ने अपने भाई शरत चन्द्र को लिखा – मैंने आई.सी.एस. की परीक्षा इसलिए पास की थी कि गोरे लोगों को पता चल जाए कि भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है। परन्तु साम्राज्य वादियों की नौकरी करने की बजाए मैं भारत माता की दासता के बन्धन काटना अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ। त्याग पत्र देकर आप देश बन्धु की सेना में स्वयंसेवक बन गए। फिर राष्ट्रीय विद्या पीठ में आचार्य और कांग्रेस स्वयंसेवक दल के कप्तान बन गए। प्रिंस आफ वेल्स जब भारत आए तो उन के स्वागत का सुभाष ने बहिष्कार किया और इस सम्बन्ध में सुभाष बाबू को प्रथम बार गिरफ्तार करके 6 माह की सजा दी गई।
सन 1922 में आपको बंगला-आर्डिनेन्स के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। तीन वर्ष के इस जेल प्रवास से क्षय रोग हो जाने के कारण सुभाष बाबू का स्वास्थ्य अत्यधिक गिर गया। सरकार उनके जीवन के साथ कुछ अपमान जनक शर्तों का खेल खेलना चाहती थी पर सुभाष जैसे स्वाभिमानी देशभक्त के लिए यह असहनीय था। अन्त में हठी सुभाष के आगे अंग्रेज सरकार को घुटने टेकने पड़े। 15 मई 1927 को आप कलकत्ता लाकर रिहा कर दिए गये। अपने जेल प्रवास में ही वह प्रांतीय आरा सभा के सदस्य चुन लिए गए। सन 1928 को कलकत्ता कांग्रेस में पंडित नेहरु के जुलूस में चलने वाले स्वयंसेवक दल के सेनानी सुभाष चन्द्र बोस की कीर्ति-कोमुदी दिग्दिगान्त को सुरभित कर उठी। सुभाष बाबू देश के नेताओं के सम्पर्क में आ गए। बाद में पंडित नेहरु द्वारा बनाई गई ‘इन्डिपेंडेन्स लीग’ के प्रचार में आपने पंडित नेहरु को खूब सहयोग दिया।
लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस ने अपना ध्येय स्वीकार कर लिया था। इसी बीच सुभाष कलकत्ता के मेयर बन चुके थे। आपके नेतृत्त्व में कलकत्ता में भी जुलूस निकला। पुलिस ने जुलूस पर लाठी चार्ज किया। सुभाष बाबू साथियों सहित बन्दी बना लिए गए। आपको एक वर्ष की सजा दी गई। देश में पुनः आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था। चारों ओर कानून तोड़े जा रहे थे। सरकार बौखलाई हुई थी। जेल में सुभाष बाबू को यातनाएं सहन करनी पड़ी। परन्तु आप ने माफी नहीं मांगी। पुनः आप रुग्ण हो गए। पुराना क्षय रोग पुनः खड़ा हो गया। सरकार की इस शर्त पर किए गए कि रिहा होते ही सीधे यूरोप चले जाएं, वह तुरन्त रिहा होते ही अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विटरजरलैण्ड चले गए।
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जब सुभाष भारत लौटे तो रचनात्मक कार्यक्रम का समय आ गया था। कांग्रेस ने काऊंसिल प्रवेश स्वीकृत कर लिया था। प्रान्तों में मंत्रिमण्डल बन रहे थे। सुभाष बाबू को इन कार्यक्रमों में कोई रूचि नहीं थी। दूसरी ओर आपका स्वास्थ्य तो ठीक नहीं था। स्वास्थ्य सुधार हेतु उन्हें पुनः दो-ढाई महिने के लिए विदेश जाना पड़ा। यूरोप में ही आपने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति का भंडाफोड किया। सन 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष का पद सबसे बड़ा सम्मान माना जाता था, जो भारतीय जनता अपने सर्वप्रिय नेता को दे सकती थी।
अध्यक्ष बनने के समय सुभाष बाबू की आयु मात्र 41 वर्ष की थी। सन 1935 के संघ शासन को हरिपुरा अधिवेशन में बिल्कुल अव्यवहारिक बता दिया गया। सुभाष बाबू व्यक्तिगत रूप से भी इस संघ शासन के कट्टर विरोधी थे। इसी भय से कि कहीं दक्षिण पंथी संघ शासन व्यवस्था स्वीकार न कर लें। अगले वर्ष आपने कांग्रेस के इहिास में पहली बार नामजद सदस्य के विरूद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और विजयी हुए। यह संघर्ष बड़ा ही उग्र था। कहा जाता है कि पट्टामि सीतामैया की पराजय पर स्वयं गांधी जी ने कहा था कि वह उनकी हार हुई है। सुभाष बाबू के अध्यक्ष निर्वाचित हो जाने के पश्चात भी दक्षिण पंथी कांग्रेसियों से उनसे खुलकर असहयोग किया। सुभाष को इससे मर्यान्तक पीड़ा हुई। अन्त में जब समझौते की कोई सूरत न दिखाई पड़ी तो उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। उनके स्थान पर राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष बन गए।
1939 में युद्ध के काले बादल घिर चुके थे। कांग्रेसी मंत्री मण्डलों ने त्याग-पत्र दे दिए थे। गांधी जी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारम्भ करने की धुन में थे। उसी समय सुभाष बाबू ने बंगाली जनता को हालवेल स्मारक (काल कोठरी) को हटा देने एवं सामूहिक आन्दोलन प्रारम्भ करने के लिए आदेश दिया। सरकार सुभाष बाबू के संकेत पर ही बंगाल में उठते हुए तूफानों को देखकर भयभीत हो गई और उसने सुभाष बाबू को जेल में डाल दिया। ऐसे अवसर पर सुभाष बाबू जेल में नहीं सड़ना चाहते थे। उन्होंने अनशन प्रारम्भ कर दिया। अन्त में सरकार ने एक महीने के लिए सुभाष बाबू को छोड़ दिया। परन्तु उनके घर पर कड़ा पहरा लगा दिया। फिर भी वह भाग निकलने में सफल हुए। 26 जनवरी 1941 को उनके गृह कैद से भागने की बात सारे देश में आग की तरह फैल गई। जनवरी मास सन इकतालिस, मच गया शोर, वह भाग गया!
सुभाष ने निश्चय किया कि भारत के बन्धन काटने के लिए सशस्त्र युद्ध करना ही एक मात्र उपाय है – “अब पानी से नहीं रक्त से चाह रही माँ करना स्नान, तोड दासता की जंजीरें करो मुक्ति का गान”। इस ध्येय को लेकर वह साम्राज्य विरोधियों से मिले और अन्त में 21 अक्तूबर 1943 को सुभाष बाबू ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थाई सरकार स्थापित कर दी। जापान, इटली, चीन आदि ने इस सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। सुभाष चन्द्र बोस आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति घोषित किए गए। बाद में बर्मा में रंगून को इस सरकार की स्थाई राजधानी बनाकर गुलाम भारत पर आक्रमण किया। अण्डमान निकोबार को स्वतंत्र कराके वह इम्फाल तक आ गए। अंग्रेजी सेना के पैर उखड़ गए। परन्तु बाद में साधनों के अभाव के कारण उन्हें कुछ पीछे हटना पड़ा। ब्रिटिश सरकार के विशाल साधनों के सामने उन्हें रंगून छोड़ना पड़ा। अभी वह अपनी आज़ाद हिन्द सेना को पुनः निर्णायक आक्रमण करने के लिए तैयार कर रहे थे कि टोकियों से यह हृदय विदारक समाचार 23 अगस्त 1945 को सुनने को मिला कि एक विमान दुर्घटना में ग्रस्त होकर सुभाष चन्द्र इस संसार को छोड़ गए हैं। भारतीयों को आज तक इस पर विश्वास नहीं आ रहा। किन्तु यह निर्विवाद है कि सुभाष बाबू युग-युग के लिए अमर हो गए।
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(लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से प्रोफेसर सेवानिवृत है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र में शोध निदेशक है।)
It is natural phenomenon that iAny person who loves his mother can become enemy to any body. Respected Sh. SUBASH BOSE loved his country more than mother , so all his behavior was obvious with any body particularly the BRITISHERS for whom he took pledge to do any thing because writers and philosophers say, ” Every thing is possible and true in love and war ” .
More over, the courage and dedication of i should say, BABU SUBHASH BOSE was enormous to spread and develop nationalism in the younger generation by sacrificing any or everything including the blood for which he used the words,
” Tum mujhe khoon do, mein tumhe aazaadi doonga “.
Truly or Really independence was declared in 1943, That was the actual freedom. Also, BRITISHERS felt the saying of subash ji ,
INDIAN DOESN’T LACK IN TALENTS.
India became free in 1943. We should consider the day