भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 50 (विषयों का अंगांगी सम्बन्ध)

 – वासुदेव प्रजापति

आज की शिक्षा व्यवस्था में सभी पठनीय विषयों को समान महत्त्व दिया जाता है। सभी विषय समान महत्त्व के नहीं हो सकते, कोई विषय प्रमुख होता है तो कोई उसका अंग होता है। विभिन्न विषयों के प्रयोजन भी भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः पठनीय विषयों पर विभिन्न सन्दर्भ में पुनर्विचार करने की आवश्यकता बनी हुई है।

शिक्षा का वर्तमान सन्दर्भ

छात्र के लिए दो तत्त्व प्रेरक होते हैं, एक रुचि और जिज्ञासा तथा दूसरा अर्थार्जन के अवसरों की उपलब्धता की आकांक्षा। रुचि, जिज्ञासा और अर्थार्जन की आकांक्षा जब परस्पर अनुकूल होते हैं, तब छात्र की शिक्षा सही व अर्थपूर्ण होती है। जब ये तीनों परस्पर अनुकूल व अनुरूप नहीं होते, तब शिक्षा यांत्रिक बन जाती है। वास्तव में तो सही और उपयुक्त प्रेरक तत्त्व तो रुचि व जिज्ञासा ही होने चाहिए, न कि अर्थार्जन की आकांक्षा। किन्तु वर्तमान में एक मात्र प्रेरक तत्त्व अर्थार्जन की आकांक्षा ही बना हुआ है।

छात्र के साथ ही उसके माता-पिता और परिवार के लिए विषय निर्धारण के प्रेरक तत्त्व तीन प्रकार के होते हैं। एक है छात्र का ज्ञानात्मक विकास, दूसरा अर्थार्जन के अवसरों की उपलब्धता और तीसरा छात्र व उसके परिवार की समाज में प्रतिष्ठा। इन तीनों में छात्र के ज्ञानात्मक विकास के कारण समाज में प्रतिष्ठा, यह परिवार व समाज के लिए सही व उपयुक्त स्थिति है। किन्तु वर्तमान में ऐसा नहीं है।

विषयों के चयन में समाज की भूमिका भी प्रमुख होनी चाहिए। समाज को अपनी ज्ञानात्मक, सांस्कृतिक व आर्थिक समृद्धि के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है, इसलिए समाज निर्धारक वह नियंत्रक के रूप में रहना चाहिए। परन्तु आज समाज के स्थान पर दो संस्थान, शासन व प्रबंध समिति नियंत्रक बने हुए हैं। सम्पूर्ण देश की शिक्षा व्यवस्था में शासन नियंत्रक है तथा शिक्षा संस्थान के स्तर पर प्रबन्ध समिति नियंत्रक है।

प्रजाहित शासन व्यवस्था का एकमात्र प्रयोजन होना चाहिए। प्रजा का ज्ञानात्मक व सांस्कृतिक विकास, व्यक्ति व देश की आर्थिक समृद्धि, सामाजिक सुरक्षा और सम्मान यह प्रजाहित का प्रथम स्वरूप है। देश की आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा, विश्व में देश की प्रतिष्ठा भी राज्य व्यवस्था का प्रयोजन होता है। शिक्षा संस्थानों के संचालकों की भूमिका शासन के सहयोगी की होनी चाहिए। परन्तु ये व्यक्तिगत अर्थार्जन, प्रतिष्ठा अथवा अन्य सामाजिक या राजकीय लाभ उठाने की बनी हुई है।

इस प्रकार विषयों के निर्धारण के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा शासकीय स्तरों की भूमिका और उनके सम्मिलित परिणाम अनुकूल नहीं हैं। परिणाम स्वरूप देश की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति सन्तोषप्रद व आनन्ददायक नहीं है, यह आज स्पष्ट दिखाई देता है। इसलिए विषयों के निर्धारण में व्यापक पुनर्विचार आवश्यक है।

शिक्षा का व्यापक सन्दर्भ

व्यक्ति को सुख चाहिए। सुख सबको प्रिय होता है, इसलिए सुख को प्रेय कहते हैं। प्रेय व श्रेय दोनों साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। श्रेय का अर्थ है कल्याण। व्यक्ति सुख व कल्याण दोनों चाहता है। अर्थात् व्यक्ति प्रेय व श्रेय दोनों को प्राप्त करना चाहता है। व्यक्ति के जीवन में प्रेय का सम्बन्ध इन्द्रियों से है, जबकि श्रेय का सम्बन्ध आत्मा से है। इन्द्रियाँ जब आत्मा के अधीन होती हैं तब श्रेय भी प्रेय बन जाता है। अर्थात् श्रेय व प्रेय एकरूप हो जाते हैं। श्रेय को प्रेय बनाना शिक्षा का वैयक्तिक स्तर का प्रमुख प्रयोजन है।

मनुष्य को सुख व कल्याण के साथ-साथ सुरक्षा चाहिए, सम्मान चाहिए, गौरव चाहिए और स्वतंत्रता भी चाहिए। सुरक्षा, सम्मान, गौरव व स्वतंत्रता इन चारों का सम्बन्ध शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक है। इन चारों में स्वतंत्रता परम प्रयोजन है, क्योंकि स्वतंत्रता का सम्बन्ध आत्मा से है।

इस सृष्टि में मनुष्य अकेला नहीं रह सकता, उसका जीवन इस सृष्टि पर निर्भर है। पंच महाभूतों पर उसका जीवन टिका हुआ है। सृष्टि में स्थित प्राण तत्त्व, मन तत्त्व तथा बुद्धि तत्त्व एवं चैतन्य के बिना उसके जीवन का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। विश्व के मानव समुदाय के स्नेह, सद्भाव तथा सहयोग के बिना उसका भौतिक व सावधिक जीवन सम्भव नहीं है। प्रेय व श्रेय को प्राप्त करने का दायित्व और क्षमता एकमात्र मनुष्य के पास है। सम्पूर्ण मानव समुदाय और चराचर मानवेत्तर सृष्टि जब तक श्रेय व प्रेय को प्राप्त नहीं करती तब तक मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से इनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए मनुष्य को व्यक्तिगत रूप में शेष मानव समुदाय और चराचर सृष्टि के साथ समायोजन करना आवश्यक है। शिक्षा ही मनुष्य को यह समायोजन करना सिखाती है। यही शिक्षा का व्यापक सन्दर्भ है।

जो व्यक्ति जितना इस सृष्टि से जुड़ा हुआ है, वह उतना ही अधिक अमीर है। यह संदेश देने वाली एक लघु कथा का संदेश हम ग्रहण करेंगे।

हम कितने गरीब हैं

एक दिन एक अमीर व्यक्ति अपने बेटे को एक गाँव की यात्रा पर ले गया। इस यात्रा में वह अपने बेटे को यह बताना चाहता था कि हम कितने अमीर व भाग्यशाली हैं, जबकि गाँव के लोग कितने गरीब हैं।

वे दोनों अमीर बाप-बेटे एक गाँव में गए और कुछ दिन एक गरीब किसान के खेत पर बिताए। कुछ दिन खेत पर बिताने के बाद वे फिर से अपने घर लौट आए। घर आकर उस अमीर ने अपने बेटे से पूछा, “तुमने देखा! गाँव के लोग कितने गरीब हैं और हम कितना अमीरी का जीवन जीते हैं”।

बेटा बोला- हाँ, मैंने भी देखा है। हमारे पास एक कुत्ता है और उनके पास चार हैं। हमारे पास एक स्वीमिंगपूल है और उनके पास एक पूरी नदी है। हमारे पास रात को जलाने के लिए विदेश से मंगवाई हुई महंगी रोशनी है और उनके पास रात को चमकने वाले अरबों तारे हैं। हम अपने लिए अनाज बाजार से खरीदते हैं और वे अपने लिए अनाज खुद अपने खेत में उगाते हैं। हमारा एक छोटा सा परिवार है, जिसमे पांच लोग हैं, जबकि उनका परिवार पूरा गाँव है। हमारे पास खुली हवा में घूमने के लिए एक छोटा-सा बगीचा है और उनके पास घूमने के लिए पूरी धरती है। हमारी रक्षा करने के लिए हमारे घर के चारों तरफ बड़ी-बड़ी दीवारें हैं और उनकी रक्षा के लिए उनके पास अच्छे-अच्छे दोस्त हैं।

बेटे का उत्तर सुनकर पिता की आँखे खुल गई। उसने आज बेटे की समग्र दृष्टि का मर्म समझा। वह अपने बेटे से बोला, तुम सही कह रहे हो। मैं तो अब तक यही समझता रहा कि भौतिक सुख-साधनों में ही अमीरी है, किन्तु आज तुमने मुझे भी समझा दिया कि असली अमीरी तो प्रकृति की गोद में है। बेटे ने अपने पिता का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि आपने मुझे वास्तविक सत्य के दर्शन करवा दिए कि गाँव वालों की तुलना में हम कितने गरीब हैं।

शिक्षा का तात्त्विक सन्दर्भ

इस सृष्टि की रचना समझने के लिए हमें प्रकृति, पुरुष व परमात्मा इन तीन तत्त्वों का विचार करना आवश्यक है। श्रीमद्भगवद्गीता इन तीनों तत्त्वों के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग करती है, और तीन विशेषण लगाकर उनमें भिन्नत्व दर्शाति है। ये तीन पुरुष हैं, क्षर पुरुष, अक्षर (कूटस्थ) एवं उत्तम पुरुष।

श्रीमद्भगवद्गीता ने क्षर व अक्षर को समझाते हुए बतलाया है कि यह सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि जड़ है, इस जड़ सृष्टि को क्षर कहा है। दूसरा तत्त्व चेतन है, जिसे अक्षर कहा है। यह चेतन तत्त्व सारे जड़ तत्त्व में अनुस्यूत होकर रहता है। यह  स्वयं कुछ नहीं करता, जड़ से करवाता है। इसलिए चेतन को ही कूटस्थ पुरुष भी कहा है। और तीसरा है, उत्तम पुरुष जो परमात्मा है। यह उत्तम पुरुष अर्थात् परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है। यह उत्तम पुरुष परमात्मा ही कूटस्थ पुरुष अक्षर और क्षर पुरुष प्रकृति में विभक्त हुआ है। और उत्तम पुरुष परमात्मा के विभक्त होने का प्रयोजन सृष्टि की रचना करना है। अतः हम यह कह सकते हैं कि सृष्टि रचना की यह प्रक्रिया उस अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त होने की प्रक्रिया है।

परमात्मा की इस सृष्टि में मनुष्य का अति विशिष्ट स्थान है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त सक्रिय रूप में व्यवहार करते हैं। इसीलिए मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति माना गया है। अपने सक्रिय मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त के द्वारा मनुष्य ने स्वयं की एक सृष्टि का निर्माण किया है। इस प्रकार दो सृष्टियों का अस्तित्व है, एक परमात्मा निर्मित सृष्टि और दूसरी मनुष्य निर्मित सृष्टि।

मनुष्य को छोड़कर शेष सारी सृष्टि प्रकृति के द्वारा नियंत्रित होती है, और अपने सहज स्वभाव से प्रेरित होकर प्रकृति के अनुकूल व्यवहार करती है। किन्तु मनुष्य ऐसा नहीं करता। क्योंकि परमात्मा ने उसे शरीर, मन, बुद्धि व अहंकार का सामर्थ्य जो दे रखा है, और साथ में स्वतंत्रता भी दी हुई है। स्वतंत्रता के साथ दायित्व जुड़ा होता है, और दायित्व के साथ कर्तृत्व तो होता ही है। स्वतंत्रता से प्रेरित होकर वह कर्तृत्व करता है। मनुष्य जो कुछ भी अच्छा-बुरा करता है उसे वह जानता है और उसका परिणाम भी वही भोगता है। परमात्मा ने अहंकार के रूप में व्यक्त होकर मनुष्य को स्वैच्छा और स्वतंत्रता तथा कर्तृत्व, भोक्तृत्व व ज्ञातृत्व लिए हैं। इन तीनों के साथ दायित्व भी जोड़ दिया है। ये सब मिलकर मनुष्य की सृष्टि बनती है। मनुष्य की इस सृष्टि में ज्ञान है, विचार है, भावना है, इच्छा है, राग-द्वेष है, लोभ-मोह है, हर्ष-शोक है, काम-क्रोध है, तो सृजन व निर्माण भी है। दया, करुणा, मैत्री, प्रेम, अनुकम्पा, सहानुभूति और कल्पना विलास भी है। ये सब मनुष्य निर्मित सृष्टि के प्रेरक तत्त्व हैं।

मनुष्य द्वारा अपनी सृष्टि बनाना, यह उसकी बुद्धि का क्षेत्र है। परन्तु उसकी बुद्धि स्वयंपूर्ण नहीं है, उसे भी आत्मा का अधिष्ठान चाहिए। आत्मिक अधिष्ठान अनुभूति का क्षेत्र है। किस की अनुभूति? इस सृष्टि के मूल स्रोत परमात्मा की अनुभूति, इस जीवन की अनुभूति, इस जगत की अनुभूति तथा अपनी स्वयं की अनुभूति होनी चाहिए। इस अनुभूति को, जिन्हें अनुभूति नहीं हुई है उन लोगों तक पहुँचाने के लिए शास्त्रों की रचना हुई है। इन शास्त्रों के आधार पर मनुष्य के सारे व्यवहार निर्देशित होते हैं। इन व्यवहारों को सुगम बनाने के लिए व्यवस्थाएं बनती हैं।

शिक्षा इन व्यवहारों एवं व्यवस्थाओं को तथा इनके पीछे रहे चिंतन को सर्वजन तक पहुँचाने का कार्य करती है। साथ ही साथ वह इन सबको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करने का कार्य भी करती है। यही शिक्षा का तात्विक सन्दर्भ है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : ज्ञान की बात 48 (व्यक्ति को समर्थ बनाना)

Facebook Comments

2 thoughts on “भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 50 (विषयों का अंगांगी सम्बन्ध)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *