भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 52 (विषयों में परस्पर सम्बन्ध)

 – वासुदेव प्रजापति

आज विद्यालयों व महाविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों का सम्बन्ध शास्त्रों से है। सभी शास्त्र परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित हैं, जैसे निर्माण के शास्त्रों का सम्बन्ध व्यवस्था के शास्त्रों के साथ है। व्यवस्था के शास्त्रों का सम्बन्ध व्यवहार के शास्त्रों के साथ है। व्यवहार के शास्त्रों का सम्बन्ध तात्त्विक शास्त्रों के साथ है और तात्त्विक शास्त्रों का सम्बन्ध अध्यात्म शास्त्र के साथ है। ठीक ऐसे ही सभी पठनीय विषयों में भी परस्पर यही सम्बन्ध है। आज परीक्षा में सभी विषयों के प्रश्नपत्र समान समय व समान अंक के होते हैं। इसका यह अर्थ निकलता है कि सभी विषय समान हैं और स्वतन्त्र हैं। ऐसा मानना सही नहीं है, वास्तविकता यह है कि सभी विषय एक दूसरे पर निर्भर हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए सभी विषय परस्पर अनुकूलन बनाए रखते हैं। इसे ही हम अंग-अंगी सम्बन्ध कहते हैं।

हमारे शरीर में ‘अंगांगी सम्बन्ध’ है

हमारा यह स्थूल शरीर है। इस शरीर के अनेक अंग हैं और उन अंगों के अनेक उपांग हैं। अंग और उपांगों से मिलकर बना हुआ यह शरीर एक यंत्र है। जैसे – हाथ इस शरीर का एक अंग है, अंगुलियां, कोहनी, कन्धा इसके उपांग हैं। ये अंग व उपांग समान व स्वतन्त्र नहीं हैं, अपितु एक दूसरे पर निर्भर हैं और पूरक हैं। इसके अनेक उदाहरण हम सब प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। कोई व्यक्ति पैदल चल रहा हैं, चलते-चलते उसके पैर में कांच चुभ जाता है। कांच पैर में चुभता है परन्तु हाथ तुरन्त उस कांच को निकालता है। हाथ यह नहीं कहता मैं क्यों निकालू, कांच तो पैर में लगा है। कांच लगा तो खून निकला, दर्द होने लगा और आँख में से आंसूं निकलने लगे। आँख आंसू क्यों निकाल रही है? उसे तो कुछ भी नहीं हुआ, कांच तो पैर में चुभा है। सभी अंग पैर की सहायता करने में लगे हैं। मन बैचेन है, उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। उसका रोम-रोम कांपने लगता है। तब बुद्धि हिम्मत बंधाती है, उपाय सुझाती है, अस्पताल ले चलने का कहती है। डाक्टर पट्टी बांधता है, दवाई देता है तब जाकर सभी अंगों को राहत मिलती है। क्यों? क्योंकि सभी अंग व उपांग बाहर से दिखने में भले ही अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु आन्तरिक संरचना में सभी परस्पर जुड़े हुए हैं, एक हैं। सब अंगों के कार्य अलग-अलग होते हुए भी वे परस्पर पूरक हैं। इसलिए दूसरे के कष्ट में सभी दुखी और दूसरे के सुख में सभी सुखी होते हैं। हाथ, पैर, आँख, कान व नाक ये सभी अंग हैं और शरीर इन सबका अंगी है। सभी अंग अपने अंगी इस शरीर के अनुकूल व्यवहार करते हैं, इसे ही हम अंग-अंगी सम्बन्ध कहते हैं।

अध्यात्मशास्त्र अंगी व अन्य शास्त्र अंग हैं

सभी शास्त्रों में अध्यात्म शास्त्र प्रमुख है। क्योंकि वह सृष्टि के मूल स्रोत परमात्मा को जानने का शास्त्र है, इसलिए वह अंगी है। प्राकृतिक शास्त्र व सांस्कृतिक शास्त्र, अध्यात्म शास्त्र के अंग हैं। सम्पूर्ण भौतिक विश्व और समस्त मानव समुदाय के व्यवहार और भावना का नियमन और निर्देशन करने वाला धर्मशास्त्र सभी सामाजिक शास्त्रों का अंगी है और सभी सामाजिक शास्त्र धर्मशास्त्र के अंग हैं। इसी प्रकार समाजशास्त्र अंगी है तो राज्यशास्त्र व अर्थशास्त्र समाजशास्त्र के अंग हैं। राज्यशास्त्र अंगी है तो न्यायशास्त्र व दण्ड विधान राज्यशास्त्र के अंग हैं। अर्थशास्त्र अंगी है तो वाणिज्यशास्त्र व उत्पादनशास्त्र उसके अंग हैं।

ठीक इसी प्रकार शरीर विज्ञान अंगी है तो आरोग्यशास्त्र अंग है। आरोग्य शास्त्र अंगी है तो आहारशास्त्र अंग है। प्राण विज्ञान अंग है तो प्राणिशास्त्र और वनस्पतिशास्त्र अंग हैं। अर्थात् सभी विषय परस्पर अंग व अंगी भाव से जुड़े हुए हैं।

अंगांगी सम्बन्ध का दूसरा आयाम

इस अंग-अंगी भाव को हम दूसरे आयाम से समझेंगे। यह आयाम है, अनुभूति से लेकर निर्माण तक के चरणों का। यह तो हम जान गए हैं कि परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र अध्यात्म शास्त्र है, जो सब शास्त्रों से ऊपर और सबके मूल में है। अध्यात्म शास्त्र का सम्बन्ध अनुभूति से है। अनुभूति का अगला चरण तत्त्व चिन्तन है। तत्त्व ज्ञान के आधार पर व्यवहार होता है। व्यवहार की सुगमता के लिए व्यवस्था बनती है। व्यवस्था के अनुसार रचना होती है, और रचना बनाने के लिए निर्माण किया जाता है। इस प्रकार अनुभूति से लेकर निर्माण तक के सारे चरण उत्तरोत्तर अंग बनते जाते हैं। जैसे अनुभूति अंगी है तो शेष सारे अंग हैं। अर्थात् अध्यात्म शास्त्र अंगी है तो तत्त्व शास्त्र अंग है। तत्त्व शास्त्र अंगी है तो सभी व्यवहार शास्त्र उसके अंग हैं। व्यवहार शास्त्र अंगी है तो सभी व्यवस्था शास्त्र उसके अंग हैं। व्यवस्था शास्त्र अंगी है तो सभी रचना शास्त्र उसके अंग हैं। और सभी रचना शास्त्र अंगी हैं तो सभी निर्माण शास्त्र उसके अंग हैं। अनुभूति से निर्माण तक के सभी चरणों में अंगांगी सम्बन्ध है। इस प्रकार सभी विषयों के परस्पर सम्बन्ध का एक सुग्रथित जाल बनता जाता है।

अंगांगी सम्बन्ध का शैक्षिक आयाम

शैक्षिक दृष्टि से अंगांगी सम्बन्ध का यह आयाम भी विचारणीय है। शिक्षा का सम्बन्ध आयु की अवस्थाओं के साथ भी है। आयु की अवस्थाएँ अधोलिखित हैं- गर्भ अवस्था, शिशु अवस्था, बाल अवस्था, किशोर अवस्था, तरुण अवस्था, युवा अवस्था प्रौढ़ अवस्था और वृद्ध अवस्था। इन अवस्थाओं में ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के विभिन्न रूप होते हैं। गर्भावस्था और शिशु अवस्था में ज्ञानार्जन संस्कार रूप में होता है। बाल्यावस्था में ज्ञानार्जन क्रिया, अनुभव और प्रेरणा के रूप में होता है। किशोरावस्था में ज्ञानार्जन विचार, विश्लेषण, परीक्षण-निरीक्षण के रूप में होता है। तरुण व युवावस्था में ज्ञानार्जन चिन्तन-मनन और निर्णय के रूप में होता है।

एक ही विषय का ज्ञान हम विविध रूपों में प्राप्त करते हैं। इन रूपों में भी एक विशिष्ट प्रकार का अंगांगी भाव रहता है। अध्यात्म का मूल सूत्र लेकर एक ही तत्त्व को संस्कार रूप में ग्रहण करते हैं। उसी संस्कार को कृति में लाते हैं। उस कृति से अनुभव लेते हैं, प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उस अनुभव पर विचार व विश्लेषण करते हैं। उस विश्लेषण पर विचार कर विवेक द्वारा निर्णय लेते हैं। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने में सभी रूप एक दूसरे के साथ अंग-अंगी रूप में जुड़े रहते हैं। ज्ञान को व्यापक रूप में प्रसारित करने के लिए और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करने के लिए यह अंगांगी सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है।

इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ज्ञान के सभी रूपों की यह शृंखला लम्ब और क्षितिज दोनों रूपों में बनती है। यह शृंखला जितनी सुदृढ़ होती है, उतनी ही मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की और सामाजिक जीवन की सफलता पक्की करती है। ऐसे व्यक्ति को जीवन में श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति होती है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 50 (विषयों का अंगांगी सम्बन्ध)

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