– रवि कुमार
एक स्थान पर अखिल भारतीय बैठक के लिए रेल यात्रा में जाना हुआ। रेल के डिब्बे में एक पति-पत्नी एवं उनके साथ लगभग 3 वर्ष की बेटी भी थी। मार्ग में खाद्य पदार्थ बेचने वाले भी आते रहते हैं। एक आइसक्रीम बेचने वाला भी आया। पति ने अपने व पत्नी के लिए आइसक्रीम खरीदी। पत्नी बेटी को पति के पास छोड़कर उसी डिब्बे में उनके परिचित परिवार के पास यह कहकर चली गई कि वह आइसक्रीम बाद में खाएगी। पति ने आइसक्रीम खाते हुए बेटी से पूछा कि क्या वह आइसक्रीम खाएगी? इस पर बेटी ने मना किया। पति ने आइसक्रीम खा ली। कुछ समय पश्चात पत्नी वापिस आई और उसने पति से पूछा कि क्या बेटी ने भी आइसक्रीम खाई? पति का उत्तर था कि बेटी का आइसक्रीम खाने का मन नहीं था और मैंने भी अधिक प्रयास नहीं किया क्योंकि उसकी आयु अभी छोटी है। इस पर पत्नी ने स्वयं आइसक्रीम खाते हुए बेटी को जबरदस्ती आइसक्रीम खिलाई और ये कहती रही कि मेरी बेटी आइसक्रीम क्यों नहीं खाएगी। यह प्रसंग आज की आधुनिकता का है। आधुनिकता के नाम पर स्वास्थ्य को ताक पर रखना आम बात हो गई है।
‘स्वस्थ बालक स्वस्थ राष्ट्र’ ऐसा कहते हैं। परन्तु क्या आज की आधुनिक जीवन शैली में यह पंक्ति व्यावहारिक होती दिखाई देती है? इसका व्यावहारिक न होने का मुख्य कारण बालकों के सम्बन्ध में आहार के सामान्य नियमों का पालन न करना और आधुनिकता की दौड़ में जैसा समाज में चलता है, उसी प्रवाह में बहते हुए व्यवहार करना है। स्वस्थ बालक देश का भविष्य है। यह बात ध्यान में रखकर माता-पिता को बालक के जन्म के बाद उसकी विशेष संभाल करना आवश्यक है।
आयुर्वेद शास्त्र में बालक के जन्म के पश्चात् उसकी तीन अवस्थाएँ बताई गई हैं – 1. क्षीरप 2. क्षीरान्नाद 3. अन्नाद। क्षीरप बालक केवल स्तनपान पर ही निर्भर रहता है। अतः इस अवस्था में माता को पौष्टिक आहार की विशेष आवश्यकता रहती है। क्षीरान्नाद अर्थात दूध व अन्न दोनों पर निर्भर रहने वाला बालक। छह मास की आयु के बाद बालक को अन्नप्राशन संस्कार की व्यवस्था है। इस अवस्था में बालक की हलचल बढ़ने के साथ-साथ पाचन शक्ति भी बढ़ती है। छह मास के बाद माँ के दूध के अलावा अन्य प्राणियों (गाय, भैंस) का दूध भी बालक को पिलाते हैं। एक वर्ष के बालक को सभी प्रकार के लघु धान्य- गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा को दूध-घी आदि के साथ तरल मात्रा में दे सकते हैं। अन्नाद अर्थात सम्पूर्ण रूप से धान्य पर निर्भर रहने वाला बालक।
छोटी आयु में बालक जो भी खाएं वह सुपाच्य हो। भोजन में ऐसा कोई भी खाद्य पदार्थ न खिलाएं जिसे पाचन होने में अधिक श्रम लगे अथवा पाचन ही न हो सके। रसदार फल, विभिन्न सब्जियों के सूप, अन्न व दूध मिलाकर तरल पदार्थ, ऋतु अनुसार फल व सब्जी का सेवन हितकर रहेगा। इस अवधि के दौरान शरीर में हड्डियों का विकास होता है, इसलिए कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थ यथा दुग्ध उत्पाद (दूध, पनीर, दही) और पालक का सेवन करना अति आवश्यक हैं, क्योंकि इन पदार्थों में कैल्शियम भरपूर मात्रा में होता है। बच्चों में कैलोरी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट और वसा युक्त खाद्य पदार्थों में साबुत अनाज जैसे गेहूं, चावल, मेवा, वनस्पति तेल; फल एवं सब्जियों में केला, आलू व शकरकंद; बच्चों के शरीर में मांसपेशियों के निर्माण, विकास और एंटीबॉडी के निर्माण के लिए प्रोटीन युक्त आहार- दाल का पानी, दलिया; विटामिनस के लिए विभिन्न फलों और सब्जियों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
मीठे पदार्थ यथा मिठाई, चाकलेट, आइसक्रीम, ठंडा पानी ज्यादा लेने पर जुकाम रहेगा और पोषण कम होगा। बालक को दही अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिए। वह चर्बी बढाता है। दही देना भी है तो कम मात्रा में दोपहर से पूर्व दें। दूध-प्याज, खिचड़ी-दूध आदि विरुद्धाहार कभी नहीं दें। बालक को मैदे से बनी वस्तुएं जैसे ब्रैड, बिस्किट आदि हानि पहुंचाते हैं। मैदा चेतना तंत्र को कमजोर करता है। आजकल के फ़ास्ट फ़ूड, जंक फ़ूड से तो बालक को दूर ही रखना चाहिए। फ़ास्ट-जंक फ़ूड का सेवन तो स्वयं रोगों को आमंत्रण होगा। ठंडे पेय पदार्थ भी स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। बालक को बासी भोजन की बजाय ताजा पका हुआ भोजन देना चाहिए। रोटी बनाने के लिए प्रातः गुंथा हुआ आटा फ्रिज में रखकर सायंकाल बनाना भी बासी भोजन की श्रेणी में आएगा। अतः ताजा आटा गूँथ कर ताजी रोटी बनानी चाहिए।
आधुनिकता की आहार पद्धति भी ठीक नहीं है। प्रत्येक बालक को घर का भोजन खाने की आदत डालनी चाहिए। ऐसे में माता को चाहिए कि वह बालक को गर्म, पौष्टिक भोजन स्वयं अपने हाथों से परोसे। समय-समय पर भोजन में विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन बनाएं जिससे बालक के मन में माँ के हाथ का भोजन खाने का आकर्षण बना रहे। विशेष अवसरों पर स्वादयुक्त विशेष व्यंजन घर पर ही बनाए जाएँ न कि पूरा परिवार बाहर खाने के लिए जाएँ।
विद्यालय जाते समय साथ में टिफिन देने की व्यवस्था आम हो गई है। टिफिन प्लास्टिक का न होकर किसी धातु का हो। सामान्यतः स्टील का टिफिन सभी स्थानों पर उपलब्ध रहता है। प्लास्टिक के टिफिन में भोजन देने से भोज्य पदार्थ में प्लास्टिक के अंश आ जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। टिफिन में रोटी आदि रखने के लिए सूती कपड़े का उपयोग करे न कि फोएल पेपर का। फोएल पेपर में एल्युमिनियम का अंश होता है जो स्वास्थ्य विनाशक है। टिफिन में वहीं भोज्य पदार्थ खाने के लिए डाले जिसे निर्माण के 3-4 घंटे बाद भी खाया जा सके। छोटी आयु के बालक को दूध पिलाना है तो बोतल की बजाय कटोरी व चम्मच से पिलाएं। बोतल से दूध पिलाने से संक्रमण का खतरा बना रहता है।
आजकल बालक टी.वी. देखते देखते आहार लेते हैं जो उनके शरीर व मन को हानि पहुंचाता है। टी.वी. देखते देखते बालक ने कितना और क्या खाया है यह बालक को स्वयं व उसकी माता को पता ही नहीं चलता। चलते-चलते अथवा खड़े होकर खाना भी आम बात हो गई है। पालथी मारकर, धैर्यपूर्वक, शांत चित्त से, प्रसाद ग्रहण करने के भाव से भोजन खाने की आदत बालकों को लगानी आवश्यक है।
उपरोक्त बातें कुछ परिवारों को आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में शायद व्यावहारिक न लगे। परन्तु माता-पिता की भाग-दौड़ के पीछे का उद्देश्य भी तो बालकों का भविष्य बनाना ही होगा! बाल्यकाल के आहार की उचित चिंता भविष्य की अनेक समस्याओं का निदान बन सकती है। बालक स्वस्थ होगा तो राष्ट्र भी स्वस्थ बनेगा क्योंकि आज का बालक कल का भविष्य है।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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Very nice