– गोपाल महेश्वरी
ज्वालामुखी पिता की बेटी, ज्वाला बनकर ही पलती है।
उसे कहाँ भय जल जाने का, जिसमें क्रांति-ज्वाल जलती है।
भगवान की पूजा करते समय असावधनी से यदि आपका हाथ जलती हुई अगरबत्ती से छू जाए तो क्या होता है? आपका हाथ तुरंत पीछे खिंच जाता है। है न? लेकिन यह गाथा स्वतंत्राता की उस पुजारिन की है जो धधकती चिता में एक नहीं, दो बार झोंकी जाकर भी अपने निश्चय से तिल भर भी पीछे नहीं हटी।
बात 1857 की है। यह वह युग था जब अंग्रेजों से अपने देश को स्वतंत्रा करवाने के लिए सारा देश क्रांति की आग में तप रहा था। स्वतंत्रता समर का इतिहास लिखने वाले वीर सावरकर जी ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा यह जानकर आपको गर्व होगा कि अनेक इतिहासकारों ने यह स्वीकारा है कि हमारा राष्ट्र पूरी तरह पराधीन कभी हुआ ही नहीं। 1857 के भी सौ वर्ष पहले से देश की स्वतंत्राता की लड़ाई चल रही थी लेकिन 1857 का संघर्ष इतना व्यापक था कि उसे अंग्रेज़ों के विरुद्ध क्रांति का उदात्त बिन्दु कहना अनुचित नहीं होगा।
नाना साहब पेशवा इस महासमर के प्रमुख नेतृत्वकर्त्ता थे। कानपुर से कुछ किलोमीटर दूर बिठूर में उनका महल क्रांति का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। क्रांति का आरंभ योजना के समय से पहले हो जाने से क्रांति के प्रयत्न प्रभावित भी हुए थे अतः योजनाओं में तात्कालिक परिवर्तनों के लिए क्रांतिकारियों को गुप्त बैठकें करनी होतीं, गुप्त रूप से देशभर में सन्देश पहुँचाने होते थे।
यह एक ऐसा ही अवसर था जब अंग्रेज़ सैनिकों को छकाते हुए नाना साहब अपने साथियों सहित बिठूर से बाहर अज्ञात स्थान पर गए हुए थे और उनकी तेरह वर्ष की बेटी मैना महल में थी कि अंग्रेज़ सेनापति ‘हे’ ने सेना सहित महल को घेर लिया। उसे आदेश था कि नाना साहब को बन्दी बनाकर महल को आग लगा दी जाए। ‘हे’ ने आग लगाने के पूर्व महल को लूट लेना ठीक समझा। ऐसा करते समय ही उसे नन्ही मैना दिखाई दे गई। मैना उसे कुछ जानी-पहचानी सी लगी। उसने कड़क कर पूछा- “ऐ छोकरी! कौन है तू?” “मैं नाना साहब की बेटी हूँ, मैना! आपकी बेटी ‘मेरी’ की सहेली। मैना भी हे को पहचान चुकी थी पर उसने अपना परिचय छुपाया नहीं।
“नाना कहाँ है? हम उन्हें ले जाने आए हैं?” हे ने पूछा।
“वह मैं नहीं बता सकती।” निर्भीक एवं स्पष्ट उत्तर।
हे चिढ़ गया “हम यह महल जलाकर राख कर देने वाले हैं। जान बचानी हो तो बता दो नाना कहाँ है?”
उसी समय उसका वरिष्ठ अधिकारी कॉवन आ धमका। उसे नाना को पकड़ कर उन पर घोषित एक लाख रुपये का इनाम पाने की बड़ी लालच थी। हे भूल गया कि मैना उसकी बेटी की उम्र की, उसकी बेटी मेरी की सहेली है।
कॉवन के आदेश पर मैना को खम्बे से बाँध्कर कोड़ों से पीटा गया लेकिन वह तो मानो वज्र जैसा हृदय रखती थी कि उसके मुंह से एक भी गुप्त भेद प्रकट न हुआ। उसे कानपुर ले जाकर जलती चिता में झांक देने का आदेश हुआ। महल तो पहले ही तोप से उड़ा दिया गया था।
नन्ही मैना धू-धू जलती लपटों में जल रही थी पर क्रांतिकारियों का पता बताकर देश से गद्दारी उसे स्वीकार न थी। अधजली मैना को एक बार चिता से बाहर खींच कर फिर पूछताछ की, पर परिणाम अटल था। क्रोध में भरे कॉवन ने चिढ़कर उसे पुनः चिता में डालकर जीवित ही जला दिया।
नन्ही बालिका मैना मातृभूमि की स्वतंत्रता के यज्ञ की आहुति बनकर सदा के लिए अमर हो गयी।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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बहुत ही प्रेरणा दायक, इतिहास में हम सबको क्यो नहीं पढ़ाया गया ।
हमारे देश में आजादी के बाद बहुत बड़ा षडयंत्र रचा गया ।
दु:खद ही नहीं, शर्मनाक भी ।