– रवि कुमार
“आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्” अर्थात आरोग्य परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा आहार आवश्यक है। बाल्यावस्था में हम सभी ने सुना है, बोला है और पढ़ा है – “स्वास्थ्य ही धन है”। इस धन के संचय के लिए आहार में सभी तत्वों का होना आवश्यक है। अच्छे आहार के साथ-साथ आहार संयम भी आवश्यक है। आहार संयम में दो प्रकार की बातें आती है – स्वाद संयम और भोजन संयम।
इस संबंध में कुछ प्रश्नों के विषय में विचार करते है। घर में गाय-भैंस आदि रहती हैं। जब वे अस्वस्थ होते है तो आहार लेना बंद कर देते हैं। ऐसा क्यों होता है? हम मनुष्य विवाह आदि कार्यक्रम में जाते है। वहां रात्रि में अधिक मात्रा में खाया जाता है। अगले दिन निवृति में भी कभी-कभी कठिनाई होती है। प्रातः व अगले समय कम खाने की इच्छा होती है। ऐसा क्यों होता है? कभी-कभी स्वाद के चक्कर में अधिक खाया जाता है और पाचन ठीक नहीं होता। खाते-खाते व बाद में अंदर से पुकार आती है की अधिक नहीं खाना चाहिए था। शरीर स्वतः स्वस्थ रहना चाहता है और उसी अनुसार हमें संकेत भी देता रहता है। हम संकेत समझ कर उसी प्रकार का आहार-व्यवहार करेंगे तो स्वास्थ्य संबंधी समस्या नहीं होगी।
भारतीय परंपरा में आहार संयम की दृष्टि से कुछ व्यवस्थाएं निर्माण की गई है। उनका नाम है – व्रत व उपवास। हम सोचेंगे कि ये व्यवस्थाएं आध्यात्मिकता की दृष्टि से हैं। व्रत व उपवास का आहार संयम से क्या संबंध है? सम्बंध है! भारत में भौतिकता व आध्यात्मिकता को समन्वय करके चिंतन किया गया है। हम सब के व्यवहार में हैं कि व्रत व उपवास के साथ आहार का भी नियम रहता है। व्रत व अपवास में आहार संयम का भी पालन करना आवश्यक होता है। व्रत, उपवास एवं आहार संयम से पूर्व ये स्वाद संयम क्या है? ये जानना भी आवश्यक है।
रस अर्थात स्वाद का सम्बन्ध जिह्वा से है जिसके कारण मनुष्य मन और बुद्धि से नियंत्रण खो बैठता है। जीभ के स्वाद से दो बड़े नुकसान होते हैं। एक, सामने स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ आ जाए, परहेज होने के बावजूद भी मनुष्य उसे खा लेता है। दूसरा, भोजन स्वादिष्ट है तो अधिक मात्रा में खाता हैं। अपथ्य खाना और अधिक खाना दोनों ही स्थितियों में स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसा संयम के अभाव का परिमाण होता है। अच्छा स्वादिष्ट भोजन उत्तम आहार होगा ही, ऐसा नहीं है।
भारत के विभिन्न प्रान्तों व क्षेत्रों में वैविध्यपूर्ण खाद्य संस्कृति है। हमारा आहार भौगोलिक स्थिति, शारीरिक अवस्था और ऋतु के अनुसार बदलता है। वर्तमान में हमारी इस वैविध्यपूर्ण एवं संतुलित खाद्य संस्कृति पर पश्चिम का आक्रमण व प्रभाव हो रहा है। फास्टफूड, जंकफूड, ब्रेड-बिस्किट-केक, मेगी, मंचूरियन, पिजा, बर्गर जैसे पदार्थ लोग बड़े चाव से खाते हैं और खाने के लिए बड़े लालायित रहते हैं। उत्तेजक मसलों से युक्त पदार्थ व मांसाहार का प्रचलन भी बढ़ रहा है। ये सब जिह्वा के स्वाद पर संयम न होने का ही परिणाम है।
महात्मा गांधी जी ने एक बार प्रार्थना के बाद प्रवचन में कहा था, “जिह्वा पर काबू रखना ब्रह्मचर्य का प्रथम सोपान है। हम यदि जिह्वा को नियंत्रण में रख सकते हैं तो किसी भी बात को साध्य कर सकते हैं”। संयम एक दो दिन में साध्य होने वाली बात नहीं है, वह एक निरन्तर प्रक्रिया है।
भोजन के बारे में संयम सीखने के लिए हमारे मनीषियों ने अनेक उपाय बताए हैं और स्वयं के आचरण व उपदेश के द्वारा इसको परंपरा व जन समुदाय में स्थापित किया है। ये उपाय व्रत बन गए हैं।
एकासन व्रत – चौबीस घंटे में एक बार एक आसन पर खाना। इसके बाद पूरा दिन भोजन का स्मरण भी नहीं करना।
बेसना व्रत – चौबीस घंटे में केवल दो समय एक आसन पर बैठकर खाना।
उणोदर – खाते समय जितनी भूख है, उससे कम खाना।
मर्यादित संख्या में व्यंजन ग्रहण करना – एक समय में दो या तीन व्यंजन ही ग्रहण करना। यथा दाल और चावल अथवा रोटी और सब्जी अथवा रोटी और दाल।
एकान्न भोजन – खाते समय एक ही अन्न पदार्थ को ग्रहण करना।
अलूणा – बिना नमक के भोजन करना।
एक बार परोसा हुआ भोजन करना – थाली में एक बार भोजन परोसा है, उतना ही भोजन करना।
गिन कर ग्रास खाना – खाते समय ग्रास गिनना व निश्चित किए हुए ग्रास ही खाना। अन्न का अंदाज व कितने ग्रास में क्या खाना इसकी कुशलता भी इसमें जरूरी है।
अवचित वार – किसी परिचित या अपरिचित के यहां भोजन के लिए जाना। वे भोजन के समय स्वयं पूछेंगे तो ही भोजन के लिए बैठना। व्रत के भाग रूप में घर पर जो भी हो और जितना हो, उतना और वैसा ही खाना।
उपवास
उपवास का शाब्दिक अर्थ – ‘पास में रहना’ अर्थात ईश्वर के समीप रहना। दिनभर ईश्वर के समीप रहने के लिए भोजन का भी त्याग किया जाता है, उसे ‘उपवास’ कहते है। फलाहार, जलाहार, निराहार – निर्जल (बिना आहार के), द्रव्य (दूध, जूस आदि) आहार पर दिनभर रहना, वर्षभर के अनेक अवसरों व दिवसों के साथ अनेक संदर्भों में उपवास की परंपरा है।
उपवास कितनी मात्रा में रखना? वर्ष में 365 दिवस हैं। वर्षभर में 100 दिन का उपवास स्वास्थ्य के लिए हितकर है। सप्ताह में एक दिन उपवास, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, नवरात्र, शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी आदि मिलकर लगभग 100 दिन बनते हैं। सप्ताह में एक दिन का भी क्रम बनने से 52 दिन का उपवास सम्भव होता है।
स्वाद संयम, भोजन संयम और शरीर स्वास्थ्य यह उपवास का उद्देश्य होता है। लोग इस मूल उद्देश्य को एक ओर रखकर विविध व्यंजनों का उपभोग कर ‘टेक्निकल उपवास’ करते हैं। परंतु यह सच्चा उपवास नहीं कहा जायेगा। नवीन पीढ़ी में व्रत व उपवास के सम्बन्ध में जागरूकता नहीं है। आहार संयम को शरीर के उत्तम स्वास्थ्य के साथ जोड़कर नवीन पीढ़ी में स्थापित करने की आवश्यकता समय व युग की मांग है।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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