भारत की स्वतन्त्रता में नागा वीरांगना रानी माँ गाईदिन्लियु का योगदान

 – पंकज सिन्हा

एक वीरांगना थी। कालांतर में उनके अपने ही नहीं, अपितु जो भी उनके संपर्क में आया, वे सभी उन्हें रानी माँ ही कहने लगे। रानी माँ एक स्वतन्त्रता सेनानी थी। उनका जन्म मणिपुर राज्य के लंकऊ ग्राम में २६ जनवरी १९१५ को हुआ था। वे रोंगमेई नागा समाज से आती है। उनका जन्म ही अद्भूत परिस्थिति में हुआ था। समस्त नागा समाज ब्रिटिश शासन के अत्याचार से त्रस्त था। कहते हैं रानी माँ एक अलौकिक आत्मा की धनी थी। यही कारण था कि बचपन में ही उस बालिका ने हसते-खेलते अनेक अंधविश्वासों को अपने ग्राम में ही नहीं तो अपने नागा गोष्ठी से भी हमेशा के लिए समाप्त करवा दिया था। उस रानी माँ वीरांगना का नाम था – गाईदिन्लियु

भारत परतंत्र था। ब्रिटिशों ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। ब्रिटिश विभेदक, अन्यायी, अत्याचारी और चतुर थे। उत्तर-पूर्व के तथाकथित जनजाति समाज के ऊपर ब्रिटिश शासक का घोर अत्याचार एवं क्रूरता असहनीय था। नागा समाज शांति से भारत के सुदूर पर्वतीय वनों में जीवन यापन करते आ रहे थे। धर्मानुकूल उनका व्यवहार था। पूर्वजों की परम्पराओं पर अटूट आस्था, श्रद्धा एवं भक्ति उनका दैनंदिन संस्कार था। उनकी जीवन शैली प्रकृति के साथ शुद्ध प्रेम का परिचायक था। भोले-भाले तथा सहज-सरल स्वभाव के धनी परंतु आधुनिक दुनिया से अनभिज्ञ नागा समाज प्रकृति के प्रेम रस के गीतों, उन गीतों की प्रकृति धुन पर नृत्य एवं प्रकृति रचनानुकूल उद्भूत हुई लोक कथा आधारित परम्परागत पूजा पद्धति पर अटूट आस्था रखते थे।

क्रूर ब्रिटिश शासक वर्ग एवं उसके अनुयायियों के लिए नागा समाज का शान्तिप्रिय संगठित जीवन आंख की किरकिरी बनती जा रही थी। व्यवस्था के नाम पर नागा समाज का परम्परागत जीवन शैली को नष्ट कर उन्हें हतोत्साह करने का कुचक्र ब्रिटिश शासक ने उस समय नागा पर्वतीय क्षेत्रों में प्रारम्भ कर दिया था। नागा समाज ने अपनी अस्मिता एवं भूमि की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया था। फिर क्या था, ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों और कहर से नागा समाज कराह उठा। ब्रिटिश सैनिकों ने ग्राम के ग्राम उजाड़ दिये, अग्नि के भेंट चढ़ा दिये थे।

ग्रामवासियों ने ब्रिटिशों का सामना किया था। परंतु निरीह ग्रामवासियों के ग्राम-ग्राम में खून की नदियां बहने लगी थी। नागा समाज यायावर अवस्था में भटकने के लिए विवश हो गया था। वर्षा, शीत तथा ग्रीष्म काल में नागा समाज अपने ही कर्म भूमि से अलग-थलग कष्टमय जीवन यापन करने लगा था। अपार कष्टों का सामना करता हुआ नागा समाज ने अपनी भूमि का परित्याग नहीं करने का संकल्प किया था। उसी समय नागा समाज ईश्वर की पूजा-आराधना करते हुए परमपिता को पुकारा रहे थे – “हे ईश्वर, हमें ब्रिटिशों के अत्याचारों से मुक्ति दिलवाओ। ब्रिटिश का हमारी भूमि पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। हमें ब्रिटिशों से स्वतन्त्रता चाहिए। हमें अपने देश की स्वतन्त्रता चाहिये। हमें शक्ति दो प्रभु, हमें वीरता का आशीर्वाद दो प्रभु।”

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ईश्वर शुद्ध प्रेम-भक्ति का ही मार्ग है। ऐसी ही परिस्थिति में गाईदिन्लियु का जन्म हुआ था। जैसे-जैसे गाईदिन्लियु बड़ी होती गयी, उसमें अध्यात्मिकता और वीरता के भाव प्रकट होते गए। ग्रामवासियों के साथ ब्रिटिशों के बारे में चर्चा करने लगी थी। एक दिन उस बालिका ने ग्रामवासियों से कहा – “पुईलोन ग्राम में एक वीर युवक जादोनांग ब्रिटिश शासन से लोहा ले रहा है। आप कुछ लोग उस ग्राम में जाएँ और सहायता मांगे।” वीर जादोनांग का संदेश गाईदिन्लियु को मिल चुका था। उसने ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार का कर नहीं देने की घोषणा करवा दी थी। कालांतर में ब्रिटिश सरकार ने वीर जादोनांग को फांसी पर लटका दिया और ११ वर्षीय बालिका गाईदिन्लियु को भी गिरफ्तार करने का आदेश प्रसारित किया था।

बालिका गाईदिन्लियु की वीरता का एक प्रसंग ऐसा है – एक बार अंग्रेज़ सिपाही नागा पर्वतीय क्षेत्र में गाईदिन्लियु को खोज रहे थे। गाईदिन्लियु अपने बहादूर सखियों के साथ उन्हें चकमा देते हुए गुरिल्ला युद्ध द्वारा सैनिकों को मौत का घाट उतारते जा रही थी। एक बार एक अंग्रेज़ सिपाही ने गाईदिन्लियु को ज़ोर से पकड़ लिया और बोला तुम ही गाईदिन्लियु हो। आज तुम्हें गिरफ्तार करके ही रहेंगे। गाईदिन्लियु का शेरनी रूप सामने आया। उसने अंग्रेज़ सिपाही को पलटी मारकर चित्त कर दिया। उसके शरीर पर चढ़कर शेरनी गर्जन किया। हाँ, मैं ही गाईदिन्लियु अंग्रेजों का काल हूँ। और अपने हाथ के दाव से अंग्रेज़ सिपाही का गला काट दिया।

अब तक गाईदिन्लियु एक वीरांगणा बन चुकी थी। सम्पूर्ण नागा समाज के ग्रामों में जागरण का शंख फूकती जा रही थी। ग्राम के ग्राम गाईदिन्लियु के पक्ष में एकत्रित होते जा रहे थे। गाईदिन्लियु ने युवा वर्गों को गुरिल्ला युद्ध की कला का स्थान-स्थान पर प्रशिक्षण भी देती जा रही थी। ब्रिटिश सरकार का अभिमान गाईदिन्लियु के गुरिल्ला युद्ध कला से चूर-चूर हो रहा था। आए दिन ब्रिटिश सैनिकों के शव जंगलों में मिलते रहते थे। ब्रिटिश सैनिक गाईदिन्लियु की अलौकिक शक्ति एवं गुरिल्ला युद्ध में उसकी वीरता से भयभीत रहने लगे थे। ब्रिटिश के कई शिविरों को गाईदिन्लियु के वीर देशभक्त सिपाहियों ने अपने अधीन कर लिया था। ग्राम-ग्राम में गाईदिन्लियु का पानी स्पर्श मात्र से युवा-युवतियाँ अपने-आप को वीरता से लड़ने का संकल्प लेते जा रहे थे।

वीरांगणा गाईदिन्लियु में विलक्षण नेतृत्व की प्रतिभा थी। वीरांगणा गाईदिन्लियु अब १७ वर्ष की एक कुशल योद्धा बन चुकी थी। वह मात्र सैनिक युद्ध के द्वारा ही देश को स्वतंत्र करने का विचार नहीं रखती थी। वह ग्राम-ग्राम में जा कर जन-जन को अपने स्वधर्म और स्वतन्त्रता की सुरक्षा का आवाहन भी करती जाती थी। ब्रिटिश सरकार नागा समाज की वीरता से परिचित थी। खोनोमा और हंगरूम युद्ध में ब्रिटिश सैनिको की पराजय उन्हें याद था। ब्रिटिश सरकार ने अपने द्वितीय अस्त्र ईसाई मिसनरी एवं डॉ. हरालु जैसे गद्दार प्रवृति वालों की सहायता से वीरांगणा गाईदिन्लियु को १८ मार्च १९३२ को गिरफ्तार करने में सफल हुई। वीरांगणा गाईदिन्लियु को ब्रिटिश जज हिंग्निश ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई। वीरांगणा गाईदिन्लियु ने गुवाहाटी, इम्फाल, शिलांग, आईजल और तुरा जेल में १५ वर्षों तक कष्टमय जीवन बिताया।

भारत ने १५ अगस्त १९४७ को राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त किया। जेल से अनेकों देशभक्तों को मुक्ति मिली। त्वरित मुक्ति यदि नहीं मिली तो वह थी वीरांगणा गाईदिन्लियु। उनकी मुक्ति अक्तूबर १९४८ में हुई। यह कैसी विडम्बना थी कि एक देशभक्त नागा वीरांगणा गाईदिन्लियु को स्वतन्त्रता का वह दिन देखने का भाग्य में नहीं था, जिसके लिए उन्होने ब्रिटिश सरकार को नागा पहाड़ियों में नाको में दम कर रखा था। इतना ही नहीं उस वीरांगणा को जेल से निकलने के बाद अपने ग्राम लंकऊ, मणिपुर और नागा हिल्स में भी जाने की अनुमति नहीं थी। वह ३२ वर्ष की वीरांगना युवती गाईदिन्लियु को त्येनसंग के यिंगरूप ग्राम में ९ वर्षों तक छुप कर रहना पड़ा। बाद में भी कट्टरपंथियों और ईसाई मिशनरियों से अपने हेराका पंथ के अनुयायियों की सुरक्षा और संवर्धन में धर्म रक्षा के लिए स्वतंत्र भारत में भूमिगत होना पडा था। भारत सरकार को उस देशभक्त वीरांगना गाईदिन्लियु को लेकर शायद धर्म-निरपेक्षता की समस्या रही होगी।

वीरांगना गाईदिन्लियु को १९७२ में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा ताम्रपत्र, १९९६ में भारत के राष्ट्रपति हस्ते पद्मभूषण एवं १९९९ में घोषित राष्ट्रीय शक्ति पुरस्कार में भारत के ५ महिला विभूतियों कन्नगी, माता जीजाबाई, देवी अहिल्याबाई, रानी लक्ष्मीबाई और रानी माँ गाईदिन्लियु का भी नाम सुशोभित है। देश की अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी देशभक्त रानी माँ को सम्मानित किया है।

वीरांगना रानी माँ गाईदिन्लियु की विशेषता

१. स्वतंत्र भारत में जेलियांगरोंग हेराका पंथ की सुरक्षा एवं संवर्धन के लिए राजनैतिक स्तर पर भारत के प्रधानमंत्रियों से लेकर समस्त राजनीतिज्ञों के साथ दृढ़ता से वार्ता करने वाली देशभक्त।

२. भारत के अनेक स्वयंसेवी संगठनों के साथ जीवंत संपर्क बना कर अपने नौनिहालों और हेराका पंथ के विकास हेतु दृढ़ता के साथ अहम भूमिका का निर्वाह करने वाली देशभक्त।

३. मेरा जीवन ही मेरा संदेश – भारत माता के प्रति अटूट आस्था पद्मविभूषीत रानी माँ गाईदिन्लियु के रग-रग में समाहित थी। वह १५ अगस्त स्वतन्त्रता दिवस और २६ जनवरी गणतन्त्र दिवस पर कहीं न कहीं अवश्य ही उपस्थित रहती थी। अपने ग्राम में रहने पर ग्राम में ही आयोजन करती रहती थी। उनके ग्राम में १९९२ का अविस्मरणीय स्वतन्त्रता दिवस पद्मविभूषीत रानी माँ गाईदिन्लियु की देशभक्ति का एक प्रखर उदाहरण है।

पत्रकारों ने उनसे प्रश्न किया था – आपने अपना जीवन किसके लिए समर्पित किया? उनका उत्तर था – मैंने हमेशा भारत की एकता एवं अखंडता के लिए ही अपना जीवन समर्पित किया है। उसके अनुकूल ही जीवन जीती हूँ।

दूसरा प्रश्न था – आपने अपना बहुमूल्य जीवन में किसके लिए संघर्ष किया था। उनका उत्तर था – मैंने अपनी मातृभूमि और जेलियांगरोंग समाज की सनातन परम्परा की सुरक्षा एवं स्वतन्त्रता के लिये ही संघर्ष किया था।

पत्रकारो ने उनसे देश के लिए संदेश देने का आग्रह किया था। उन्होने संदेश में कहा था – मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।

१७ फरवरी १९९३ को उन्होने अपने ग्राम में अपने शरीर का त्याग किया। पद्मविभूषीत रानी माँ गाईदिन्लियु के देशभक्त शव को भारत सरकार ने राष्ट्रीय ध्वज से सजाया और २१ तोपों की सलामी देकर उनको अंतिम प्रणाम अर्पित किया था। ‘भारत माता की जय’ निनाद से सम्पूर्ण नागा समाज का ग्राम गूंजित था। सम्पूर्ण नागा समाज के इतिहास में भारत माता की सेवा में समर्पित जीवन स्वर्णिम अक्षरों में इतिहासकारों द्वार लेखन ही पद्मविभूषीत रानी माँ गाईदिन्लियु के प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।

(लेखक विद्या भारती नागालैंड प्रान्त के संगठन मंत्री है।)

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