— गोपाल माहेश्वरी
मधुकर, वसंत, शोभा, श्रीधर और सुषमा की समवयस्क बाल-मंडली में मित्रता का रिश्ता पक्कमपक्का था। वर्ष में कम-से-कम एक बार ये सभी कुछ दिन साथ-साथ बिताते और सभी का अनुभव था कि वे उनके बचपन के सबसे आनंदमय दिन होते थे। इस बार सभी श्रीधर के गाँव में एकत्र थे। हिन्दू महीनों के हिसाब से माघ मास चल रहा था और अंग्रेजी माह गिनें तो जनवरी समाप्त होकर फरवरी आने वाली थी।
पाँचों की बालमंडली गुड़ का शीरा, मक्की की राब और गौमाता का ताजा दूध पीकर निकल पड़ी ग्राम दर्शन के लिए। श्री ने पहले ही बता दिया था कि वे आज ज़रा लंबा घूमने जाएँगे इसलिए माँ ने चूल्हे पर सिकी मक्का की रोटियों और गुड़ तथा तिल मूँगफली की चरपरी चटनी के साथ हरी मिर्च और प्याज की एक पोटली बना दी थी दोपहर में कुएँ के पास बैठकर खा लेने के लिए। अब निश्चिंत होकर निकल पड़े थे ये बच्चे साँझ तक लौटेंगे यह बताकर।
ग्राम यात्रा आरंभ हो गई। कुम्हार गली में चार-पाँच घरों के आगे चाक पर घड़े बनाए जा रहे थे। एक और मिट्टी के खिलौने सूख रहे थे, उन्हें आजकल महीनों में एकाध कोई बच्चा जिसे मोबाइल अप्राप्त होता, ले जाता था। संभवतः इसीलिए सुषमा को वे खिलौने थोड़े उदास लगे। वैसे यह उसकी काल्पनिक अनुभूति थी पर महत्वपूर्ण यह था कि कुम्हार काका उन्हें बनाना नहीं छोड़ा था। बच्चों ने रामेसुर (रामेश्वर) काका से राम-राम की।
श्रीधर ने पूछा “काका! क्या हो रहा है?”
“इस बार गाँव में छः घरों में मंगल कारज है बिटवा। उसी के लिए तैयारी कर रहे हैं।”
“अरे वाह!” कहते बच्चे अगली गली में मुड़ चले। यह मोहल्ला धुनियों का था। दो ही घर थे उनके पर पूरा परिवार रूई धुनकर गादी-रजाई तैयार करने में लगा था।
एक घर से एक नारी कंठ की टेर सुनाई दी “किसना के बापू! मोदियों के घर परसों ही बारात आएगी। तनिक जल्दी हाथ चलाओ, दस जोड़ गादी रजाई देने हैं। देर न हो जाए गाँव की इज्जत का सवाल है।”
मंडली आगे बढ़ी तो ढोली मामा अपने ढोल ठीक कर रहे थे। मधुकर ने राम-राम करते हुए पूछा “मामा! पूरी तैयारी है? वाह!”
“हाँ भानेज! खुशी का डंका हमें ही बजाना है गाँव में। तुम्हें भी खूब नचाएँगे ढोल की ताल पर।” ढोली मामा ने ढोल पर डंका मारते हुए कहा।
“हाँ हाँ क्यों नहीं, “कहते हुए बच्चे आगे बढ़े। सामने महिलाओं का एक समूह मंगल लोक गीत गाते आ रहा था। कइयों के मुख घूँघट में ढँके थे पर स्वर सबके आकाश छू रहे थे। पास के ओटले (चबूतरे) पर खड़े होकर बच्चे उन्हें देखने लगे। शोभा ने बताया ये गाँव में कुएँ पूजने जा रही हैं। मधुर स्वर देर तक कानों में अमृत घोलते रहे।
पाँचों बच्चे गायों के चरने के लिए छोड़ी चरनोई भूमि (चारागाह) के पास वृक्षों के झुरमुट के बीच जा बैठे। तभी पास से बाँसुरी की मधुर धुन सुनाई पड़ी। एक ग्वाल बालक भैंस की पीठ पर बैठा अपनी ही मस्ती में बंसी बजा रहा था। घुटनों तक चड्डी उस पर आधी बाँह का मैला कुर्ता दरिद्रता की देवी उसके साथ-साथ घूमती रहती, पर इस समय वह संसार के सबसे सुखी बच्चे से भी अधिक संतुष्ट लग रहा था।
वसंत बोला “किसे सुना रहा है यह इस सुनसान में बाँसुरी! अपनी भैंस को?” मधुकर को यह व्यंग्य चुभा। वह बोला “सुनसान नहीं एकान्त कहो। यह अपने लिए बजा रहा है या संभवतः अपनी प्रकृति माँ के लिए, जिसने सारे स्वर प्रकट किए हैं। तेरा तुझको अर्पण।”
सुषमा ने कहा “स्वरों की देवी तो सरस्वती हैं न? क्या प्रकृति भी सरस्वती हैं?”
“बिलकुल है जो भी सृजन करता है वह सरस्वती का ही रूप है और प्रकृति से बड़ा रचनाकार कोई है ही नहीं।” श्री ने जोड़ा।
शोभा को अचानक कुछ याद आया। वह बोली “अरे, वसंत पंचमी आने वाली है सरस्वती माता का प्रकटोत्सव है। हमारे विद्यालय में उत्सव मनाया जाएगा। है न?”
सुषमा ने कुछ सोचते हुए कहा “क्या हम इस अवसर पर कुछ नया सोच सकते हैं?”
मधुकर ने उत्साह से समर्थन करते हुए कहा “क्यों न हम सरस्वती पूजा को अलग ढंग से भी करें?”
“कैसे?” चार कंठों से एकसी जिज्ञासा का स्वर फूटा।
मधुकर ने सुझाया “नगरों में बसने वाली नई पीढ़ी यानि हमारी वय के अधिकांश बच्चे ऊँची नौकरियों की आशा में पुस्तकों में घुसे रहते हैं, घंटों कम्प्यूटरों में आँखें गड़ाए रहते हैं। आधुनिक संसाधन से विकास की गति तीव्र हुई है इसमें संदेह नहीं। हमारे ज्ञान की शाखा-प्रशाखाएँ आसमान छू रही हैं पर मुझे लगता है हमारी जड़ें खोखली होकर क्षीणतर होती जा रही हैं।”
“तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?” शोभा ने पूछा।
“क्योंकि तकनीकी विकास के पश्चात् भी हमारी संवेदनाएँ, रसात्मकता, कलात्मकता अपना स्वभाव बदलती जा रही हैं। हमारी विदेशी सभ्यताओं के दुष्प्रभाव से हमारी सांस्कृतिक पहचान धूमिल हो रही है, हम भूलते जा रहे हैं अपनी मूल विशेषताएँ।”
मधुकर की बात पर सभी गंभीर होकर सोच रहे थे। क्षणभर चुप्पी के बाद सुषमा बोली “ऐसा तुम्हें अचानक क्यों लगा?”
“देखो आज सुबह से गाँव के वे सारे काम जो हमें बहुत भले लगे सब प्रौढ़ या बूढ़े लोग कर रहे थे केवल भैंस चराते बाँसुरी वादक को छोड़कर। बाकी काम कोई हमारे जैसे किशोर नहीं कर रहे थे।” मधुकर के स्वर में उदासी थी।
श्री ने बताया “उस बाँसुरी वाले बच्चे का नाम मोहन है। इसके पिता हुए अच्छा पेटी जिसे हम हारमोनियम कहते हैं बहुत अच्छा बजाते थे आसपास के सात गाँवों में ऐसा स्वर की पकड़ वाला कलाकार न था कोई। रामलीला हो या तेजाजी की कथा उनका बोलबाला था। धीरे-धीरे वे सब बंद होते गए और ग़रीबी इस लोककलाकार को निगल गई। मोहन विधवा माँ को पालता है यह भैंस चरा कर। भैंस चराता है माँ के लिए और स्वर साधता है स्वर्गीय पिता के सुख के लिए। ग़रीबी में पेटी बिक गई तो बाँसुरी साध ली।” मोहन की गाथा से बाकी आँखें भीग गईं।
“गाँव के बच्चे भी अब शहरों में पढ़ने जाते हैं। परंपरागत कुशलताएँ कौन सीखें?” श्रीधर ने कहा।
“यही तो वे सारे यदि पढ़-लिखकर महानगरों या विदेशों में चले गए, वहाँ की चकाचौंध में अपने गाँव अपनी माटी, अपनी संस्कृति और परंपराओं को भुला बैठे तो… कुछ वर्षों बाद यह सब इतना भी नहीं दिखेगा, जितना हम देख पा रहे हैं।”
“कोई उपाय जो अपने स्तर पर हम कर सकें।” वसंत ने समस्या से सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
“एक योजना सूझ रही है।” शोभा ने कहा तो सबकी आँखें में उत्सुकता से चमक उठीं।
सुषमा ने कहा “तो बताओ न?”
शोभा ने बताना आरंभ किया “क्यों न हम पहले अपने-अपने विद्यालयों के ऐसे भैया-बहिनों की सूची बनाएँ जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं। उनमें से विभिन्न रुचियों के बच्चे चयनित कर किसी गाँव में एक संस्कृति शिविर लगाएँ। जहाँ लोक भाषाओं, कलाओं परंपराओं का अध्ययन करें, सीखें।”
“यह भी तो सरस्वती पूजा ही है, और सरस्वती माता के लिए हमारे इन परंपरागत कौशलों को सीखने के लिए समय का समर्पण, धन के समर्पण से भी अधिक महत्वपूर्ण होगा।” सुषमा ने कहा।
“लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही बच्चे क्यों?” वसंत ने पूछा।
“क्योंकि उनकी जड़ें भले सूख रही हों पर गाँवों में हैं, तनिक सींचते ही जी उठेंगीं। नगरीय बच्चों की जड़ों को यहाँ तक लाकर जोड़ना बाद का चरण हो सकता है। ये गाँव के बच्चे ही उन्हें अपने-आप जोड़ लेंगे।” शोभा ने स्पष्ट किया।
“केवल साहित्य, संगीत, ललित कलाओं की ही नहीं सरस्वती माता तो समस्त प्रकार के सृजन की देवी हैं इसलिए लोकगीत गायन या ढोल बजाना, खिलौने या खाट व गाड़ी बनाने की कला के समान ही है।” मधुकर बोला।
“पर एक बात कहूँ? किसी भी योजना का कोई प्रादर्श सामने हो तो योजना शीघ्र समझ में आती है।” वसंत ने कहा।
शोभा और मधुकर एक साथ पूछ बैठे “क्या कहना चाहते हो भाई?”
“यही कि पहले हम पाँचों तो कुछ सीखकर जाएँ।” आम पर बैठी कोयल कूक उठी।
“मैं तो यहीं का हूँ।” श्री ने कहा तो सब मुस्कुरा उठे।
“ठीक है पर सीखना तुम्हें भी है समझे?” सब खिलखिलाकर हँस पड़े। बगुलों का एक समूह पेड़ से उड़ गया और चार मयूर जमीन पर उतर आए उनके चौमासे के समय झड़ चुके मोरपंख फिर से उगने लगे थे।
बच्चों को अपने स्तर पर कुछ सूझा था। शेष भगवती ग्रामशारदा जैसी कृपा करें।
बालमंडली ने देखा गायें लौट रही हैं। उनके पैरों से उड़ने वाली गोधूलि में नहाए ये बच्चे ऐसे लग रहे थे मानो संस्कृति के चंदन में लिपटे हों। सब गायों के गले में बँधी घंटियों की रुनझुन में आनंदविभोर थे।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
और पढ़ें : हम सब सैनिक हैं