भारतीय ज्ञान का खजाना-27 (प्राचीन भारतीय खेल-१)

✍ प्रशांत पोळ

सामान्य रूप से हमारे देश में ऐसा माना जाता है कि विश्व में खेले जाने वाले अधिकतर प्रसिद्ध खेलों का प्रारंभ, पश्चिम के देशों में, विशेषतः युरोप में हुआ है। वही पर ये खेल विकसित भी हुए। प्राचीन काल में ग्रीस में ओलंपिक खेलों के आरंभ के साथ ही, खेल जगत के इतिहास का प्रारंभ हुआ।

किंतु अनेक लोगों को यह पता ही नही हैं कि विश्व का सबसे पहला, सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत में मिला है। जी हां, विश्व का सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत में है। गुजरात के कच्छ में, ‘खादीरइस द्वीपनुमा स्थान पर धोलावीरामें जब 1968 में उत्खनन हुआ, तब यह सत्य सामने आया। वर्तमान में यह ‘धोलावीरा’, युनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में है। इसकी विशेषता यह है कि यह कर्क रेखा पर स्थित है। धोलावीरा की नगर रचना देखकर इक्कीसवीं शताब्दी के अनेक नगर रचनाकार भी आश्चर्यचकित हुए है।

उत्खनन में मिले इस ‘धोलावीरा’ में एक नही, दो स्टेडियम मिले है। इनमें से बडा स्टेडियम, 1 लाख 65 हजार स्क्वेअर फीट का है, इसकी क्षमता दस हजार से ज्यादा दर्शकों की है। इसमें दर्शक दीर्घा भी बनाई गई है, जिससे दर्शक आराम से मैदान पर चल रहे खेलों को देख सके।

ग्रीस में ओलम्पिक का प्रारंभ हुआ, ईसा से पहले 776 वर्ष। परंतु उससे भी लगभग तीन हजार वर्ष पहले, अर्थात आज से 5,500 वर्ष पूर्व, भारत में बडे पैमाने पर, सार्वजनिक रूप से अनेक खेल खेले जाते थे। धोलावीरा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, प्रमाण हैं।

हमारे पूर्वजों ने अपनी जो जीवन शैली विकसित की थी, जो जीवनक्रम बनाया था, वह सर्वांगीण विकास का था। इसीलिए विज्ञान, शस्त्र और शास्त्र के साथ कला को भी प्राधान्य था। मनुष्य का सर्वांगीण विकास होने के लिए, शरीर और मन, दोनों सुदृढ होने चाहिये, यह हमारे पुरखों को अच्छी तरह से पता था। इसीलिए उस समय मल्लयुद्ध (कुश्ती), रथों की प्रतियोगिताएं, घुड़दौड़, धनुर्विद्या (आज की भाषा में ‘आर्चरी’) की प्रतियोगिताओं और खेलों के साथ ही, मानसिक एकाग्रता बढ़ाने के लिए अनेक बैठे-बैठे खेलने वाले खेल (indoor games) भी होते थे।

विश्व में सबसे ज्यादा प्रचलित और लोकप्रिय, बैठकर खेलने वाले दो इनडोर खेलों का उद्गम भारत में हुआ हैं। ये खेल हैं, शतरंज (चेस) और लुडो।

जी हाँ..! ये दोनो खेल पाश्चात्य नहीं है। बिल्कुल असली भारतीय खेल है। ‘लूडो’ यह खेल, आजकल युवाओं में ट्रेंडी है। आज के डिजिटल युग में सर्वाधिक खेला जाने वाला यह बोर्ड गेम है। यह ऑनलाईन खेले जाने के कारण विदेशों में रहने वाले मित्रों के साथ भी खेला जाता है। विशेष रुप से कोरोना काल में, लॉकडाउन के बाद, इस खेल की जबरदस्त मांग है।

‘लूडो’ यह इस खेल का असली नाम नहीं है। पचीसी या चौसर / चौपड़ नाम से यह खेल हजारों वर्षों से भारत में खेला जा रहा है। महाभारत में कौरव और पांडवों में जो द्युत हुआ था, वह भी इसी खेल के माध्यम से। अर्थात, प्राचीन काल में यह खेल, ‘जुआ’ के रुप में ही खेलते थे, ऐसा नही हैं। सामान्य लोग भी मनोरंजन के लिए यह खेल खेलते थे। लेकिन कई बार राज परिवारों में जुआ खेलने के लिए चौसर / पचीसी का उपयोग होता था।

यह खेल कब से खेला जा रहा है, यह बताना कठीन है। महाभारत में इसका उल्लेख जरूर आता है। परंतु विगत चार-पाच हजार वर्षों में, अनेक ग्रंथों में, पचीसी / चौसर का उल्लेख है। हड़प्पा और मोहन-जो-दडो के उत्खनन में, पचीसी / चौसर खेलने के लिए जो पांसे लगते हैं, वह पांसे मिले है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी चौसर जैसे खेलों का और उसे खेलने के लिए लगने वाले पांसों का उल्लेख मिलता हैं। वेरुळ (एलोरा) की गुफाएं, छठवीं से आठवीं शताब्दी में निर्माण हुई हैं। इनमें से उनतीस नंबर की गुफा में ‘भगवान शंकर और पार्वती चौसर खेल रहे हैं’, ऐसा दृश्य उकेरा गया है।

चीन के सॉंग राज परिवार के (वर्ष 970 से 1279) कागज पत्रों में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि, चीनी खेल ‘चुपू’ (अर्थात अपना चौसर / पचीसी) का उद्गम पश्चिम भारत में हुआ है। वर्ष 220 से 265, इस कालखंड में चीन पर ‘वी’ नाम के राज परिवार की सत्ता थी। इसी समय यह खेल भारत से चीन में आया और लोकप्रिय हुआ। इस खेल का पट, जिस पर खेल खेला जाता हैं, कपड़े से बनता था। इस कपडे पर, खेलने के लिए, सुंदर नक्काशी बनाते थे। कम से कम दो और अधिकतम चार लोग यह खेल खेल सकते थे। प्रारंभिक अवस्था में इस खेल को खेलने के लिए कौडियों का उपयोग किया जाता था। बाद में पांसों का चलन बढता गया।

वर्ष 1818 में अंग्रेजों का राज, भारत के अधिकांश भूभाग पर कायम होने के बाद, अनेक अंग्रेज अधिकारी, भारतीयों की रूढ़ी-परंपराएं समझने के लिए प्रयास करने लगे। उस समय उनको भारतीयों के पचीसी / चौसर इस खेल की जानकारी मिली। भारत में रहने वाले अंग्रेज अधिकारी यह खेल खेलने लगे। धीरे-धीरे यह खेल इंग्लंड में पहुंचा। वर्ष 1896 में इस खेल का अंग्रेजी नाम ‘लूडो’ रखा गया। लूडो का लॅटिन भाषा में अर्थ, ‘आय प्ले’ ऐसा होता है। और आज यह खेल, पूरी दुनिया में ‘लूडो’ नाम से ही लोकप्रिय हुआ है।

शतरंज (चेस)

आज दुनिया में प्रचलित जो ‘शतरंज’ खेल है, वह निर्विवाद रूप से भारत का है। सामान्य तौर पर हम लोग, अंग्रेजों ने यदि कोई बात की होगी, तो उस बात पर आंख बंद करके विश्वास कर लेते है। इसलिये इस विषय से संबंधित अंग्रेजी संदर्भ देखते है –

‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ यह मूलतः अंग्रेजों ने प्रारंभ किया हुआ समाचार पत्र हैं। इसके बुधवार, दिनांक 28 जुलाई 1940 के अंक के संपादकीय में लिखा है, ‘According to Sir William Jones, the first President of Royal Bengal Asiatic Society, it was in India, that Chess first originated and developed. The latest discovery appears to fortify the theory.’

(रॉयल बंगाल एशियाटिक सोसायटी के पहले अध्यक्ष, सर विल्यम जॉन के अनुसार, भारत में ही चेस का उद्गम हुआ और वह विकसित हुआ। नए शोध के अनुसार, इस विधान का महत्व स्पष्ट होता है।)

टाईम्स ऑफ इंडिया के इस संपादकीय में जिस सर विल्यम जोन का उल्लेख हैं, वे सज्जन वर्ष 1783 से 1789 तक, कलकत्ता हायकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। वे स्वयं संस्कृत और भारतीय संस्कृती के प्रगाढ़ अभ्यासक थे।

प्रोफेसर डंकन फोर्ब्स (28 अप्रैल 1798 से 17 अगस्त 1868) यह स्कॉटिश सज्जन, भाषा शास्त्रज्ञ और पौर्वात्य विषयों के तज्ञ के रूप में जाने जाते थे। 1823 में वह कलकत्ता अकादमी में जॉईन हुए, और तीन वर्ष तक वे वहां थे। उनका भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन था। आगे चलकर जब वह इंग्लंड में गए, तब उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की – ‘हिस्टरी ऑफ चेस’ (शतरंज का इतिहास). इस ग्रंथ में उन्होंने, ‘शतरंज का उद्गम भारत में ही हुआ है, और साधारणतः दो से तीन हजार वर्षों से यह खेल भारत में खेला जा रहा हैं’, ऐसा अनेक प्रमाणों के साथ प्रतिपादित किया।

परंतु उसके बाद, इस संदर्भ में जो शोध हुए उनमें, यह खेल चार से पांच हजार वर्ष पुराना होगा, ऐसा निर्णय शोधकर्ताओं ने दिया। शतरंज का पुराना नाम ‘अष्टपद’ था, बाद में उसे ‘चतुरंग’ कहने लगे।

‘शूलपाणी’ नाम के एक बंगाली विद्वान थे। उन्होंने पंद्रहवी शताब्दी में लिखे हुए ‘चतुरंग दीपिका ‘ इस ग्रंथ में, शतरंज जिससे निर्माण हुआ, ऐसे ‘चतुरंग’ का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ में दी हुई जानकारी के अनुसार, ‘चतुरंग’ का पहले का नाम  ‘अष्टपद’ था। इस अष्टपद का उल्लेख, हिनायन बुद्ध साहित्य में ईसा पूर्व 500 वर्ष, (अर्थात आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व) में मिलता है, ‘ब्रह्मजाल सूत्त’ और ‘विनय पिटका’ इन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख आता है। ईसा पूर्व 300 वर्ष में गोविंद राज ने लिखे हुए रामायण के बाल कांड में अष्टपद का उल्लेख है।

वर्ष 200 में लिखे हुए हरिवंश में अष्टपद का श्लोक है –

स रामकरमुक्तेन निहतो  द्युत मंडले।

अष्टापदेन बलवान राजा वज्रधरोपमः।।

(दुसरा अध्याय 61 / 54)

यह खेल बहुत पहले द्युत के रूप में खेला जाता था। ‘अश्विन माह की पूर्णिमा की रात में ‘अष्टपद’ खेलने से धनलाभ होता है’, ऐसे माना जाता था। इसे ‘चतुरंग बल’ भी कहते थे। इसमें ‘बल’ यह शब्द, ‘खेलने की गोटी’ के रूप में कहा गया है। इसमें पांसे का उपयोग किया जाता था। अर्थात, खेलने वाले के ‘नसीब’ का हिस्सा अधिक होता था। बाद में पांसे का उपयोग बंद हुआ। अब यह खेल पूर्ण रूप से ‘बुद्धी’ के आधार पर खेला जाता हैं।

 

शतरंज पर एक पुस्तक खूब चलती है – ‘द लॉज अँड प्रॅक्टिसेस ऑफ चेस’। हॉवर्ड स्टुंटन (Howard Staunton) ने इसमें शतरंज खेल के नियम और विशेषताएं विस्तार से बताई है। इस पुस्तक के पृष्ठ 5 पर उन्होंने लिखा है, ‘हिंदूओं का यह खेल अरबस्तान जिस रुप में पहले गया, उसके पहले अनिश्चित काल में हिंदूओं ने ही इसका रूपांतर किया था।’

ऐसे माना जाता है कि, ‘चतुरंग’ की रचना रावण की पत्नी मंदोदरी ने की है। ऐसा भी माना जाता है की हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाली, सीरिया देश की रानी ‘सेमिरामिस’ ने, इस खेल के सबसे बलशाली प्रधान को (बाद में यह वजीर कहलाया जाने लगा) ‘रानी’ बनाया, तब से, पाश्चात्य देशो में प्रधान (वजीर), यह ‘रानी’ (क्वीन) बन गया।

पहले यह खेल चार लोग मिलकर खेलते हैं, इसलिये केवल इसे ‘चतुरंग’ नहीं कहा जाता है, तो इस खेल में प्रधान (वजीर या क्वीन), हाथी, घोड़े और पैदल सेना रहती हैं, अर्थात ‘चतुरंग सेना’ होती हैं, इसलिये भी इसे चतुरंग कहा जाता था।

शतरंज का कालानुक्रम से सफर ऐसा रहा हैं –

  1. अष्टपद, चतुरंग का काल – पुराण काल से लेकर ईसवीं सन की पाचवीं शतब्दी तक।
  2. शतरंज के उत्क्रमण का काल – ईसवीं सन की पाचवीं से पंद्रहवी शताब्दी तक, लगभग 1,000 वर्ष।
  3. शतरंज के आधुनिक स्वरूप का काल – ईसवीं सन की पंद्रहवी से अठारहवी शताब्दी के अंत तक, चार सौ वर्षों का कालखंड।
  4. अब तक का काल – युरोपियन शास्त्रीय पद्धती का कालखंड, इसमें ‘चेस’ यह नाम दुनिया में लोकप्रिय हुआ।

पुणे में उत्तर पेशवाई में पेशवा बाजीराव (दुसरा) के राज्य में, पंडित त्रिवेगंडाचार्य थे। ये मूलतः तिरुपती के थे, लेकिन साधारण तीस वर्षों तक महाराष्ट्र में ही रहे। उन्होंने बाजीराव पेशवा के अनुरोध पर शतरंज की जानकारी देने वाली ‘विलासमणी मंजिरी’ यह पुस्तक लिखी। यह पुस्तक संस्कृत में है। बाद में यही पुस्तक, गणेश रंगो कुलकर्णी हल्देकर ने प्रकाशित की। इस पुस्तक को मराठी के प्रख्यात साहित्यकार, साहित्याचार्य न. चिं. केळकर जी की प्रस्तावना है।

इस पुस्तक में पंडित त्रिवेगंडाचार्य जी ने शतरंज इस खेल के बारे में विस्तार से जानकारी और उसका इतिहास दिया हैं। मनुष्य के बुद्धि विकास में इस खेल का महत्व भी विस्तार से लिखा है।

उन्नीसवीं शताब्दी में मराठी में पुस्तकें प्रिंट होने लगी, प्रकाशित होने लगी। इसी क्रम में अनेक पुस्तकें शतरंज पर भी लिखी गई। जैसे –

  • बुद्धिबळ खेळणारा चा मित्र – हरिश्चंद्र चंद्रोबा जोशी (वर्ष 1854)
  • बुद्धिबळ क्रीडा – विनायक राजाराम टोपे (वर्ष 1892)
  • बुद्धिबळाचे 1000 डाव – विष्णू सदाशिव राते (वर्ष 1893)

संक्षेप में कहे तो, आज के युग में बुद्धि के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले शतरंज (चेस) इस खेल का जन्म भारत में हुआ है, और यह भारत में ही विकसित हुआ है। बुद्धि को चालना देने के लिए हमारे पुरखों ने इसका अत्यंत कुशलता से उपयोग किया। इसी खेल में, भारत के डी. मुकेश ने विश्व शतरंज की चैंपियनशिप हासिल कर, अपना श्रेष्ठत्व सिद्ध किया हैं।

(क्रमशः)

और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना-26 (पिन-होल कैमरा का रहस्य)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *