– डॉ. विजयदत्त शर्मा
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी साहित्य के एक ऐसे कवि थे, जिनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता, मानवता और भारतीय संस्कृति की गहरी छाप देखने को मिलती है। उनका साहित्य दर्शन मानव कल्याण, मानव मूल्यों की रक्षा और उत्थान के साथ-साथ भारतीयता की अभिव्यक्ति का प्रतीक है। निराला ने काव्य को एक ऐसी साधना के रूप में देखा, जो मानवीय मूल्यों की रचना, रक्षण और पोषण करती है। उनके साहित्य में मानव हित की भावना केंद्र में है, जो संस्कृत के ‘साहित्य’ शब्द के अर्थ – ‘साहितेन इति साहित्यम्’ (जिसमें मानव हित साधने की क्षमता हो) को सार्थक करता है।
निराला का काव्य दर्शन उनके नाम के साथ ही ‘निराला’ (अद्वितीय) है। उनकी रचनाओं में सूर्य की तपिश, कान्ति की कोमलता, और युगीन चेतना का समन्वय देखने को मिलता है। उन्होंने द्विवेदी युगीन राष्ट्रभाव, छायावादी रहस्यवाद, और प्रगतिवादी सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति को अपने काव्य में समेटा। इस प्रकार, उनका साहित्य राष्ट्रभाव, रहस्यभाव और प्रगतिशीलता का अनूठा संगम है। एक प्रचलित अवधारणा है कि ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का सिद्धांत दार्शनिक डार्विन का है, लेकिन निराला इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि यह विचार हजारों वर्ष पूर्व कृष्ण द्वारा गीता में व्यक्त किया गया था। ‘निराला’ कहते हैं- ‘योग्य जन जीता है’/पश्चिम की उक्ति नहीं/गीता है-गीता है/ स्मरण करो बार-बार/जागो फिर एक बार।
निराला का समय भारतीय इतिहास में उथल-पुथल का दौर था। उनकी जीवन यात्रा (1899-1961) स्वाधीनता संग्राम, सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति, और मोहभंग की पीड़ा से गुज़री। इन तीनों चरणों में उनकी चिंतन धारा भारतीयता, राष्ट्रीयता और मानवीयता की त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित हुई। उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ – ‘अनामिका’, ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘अणिमा’, ‘बेला’, ‘नए पत्ते’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘गीतपुंज’, और ‘सांध्यकाकली’ – भारतीयता, मानवीयता और राष्ट्रीयता की गहरी छाप लिए हुए हैं।
निराला की साहित्यिक चेतना कोमल और करुणा से परिपूर्ण है। उनके प्रकृति चित्रण, नारी सौंदर्य के वर्णन, और अतीत की भारतीय संस्कृति के गौरव गान में यह चेतना स्पष्ट झलकती है। उनकी कविता ‘जुही की कली’ में प्रकृति के सौंदर्य के बीच नारी सौंदर्य की झलक मिलती है, तो ‘प्रेयसी’ में प्रेमिका की मनोदशा का मनोहारी चित्रण है। ‘पंचवटी’ प्रसंग में उन्होंने माता सीता को अपनी माता के रूप में स्वीकार किया है। नारी के पत्नी और प्रेमिका रूप का चित्रण उनकी कविताओं ‘बादल भाग-3’, ‘प्रिया के प्रति’, ‘स्मृति’, ‘राम की शक्ति पूजा’, और ‘तुलसीदास’ में मिलता है।
निराला की काव्य चेतना का प्रथम प्रस्फुटन छायावादी कोमलता के साथ हुआ। इस दौर की रचनाओं में सौंदर्य प्रियता, प्रकृति चित्रण, और विरहानुभूति का भाव प्रमुख है। उनकी कविता ‘तुम और मैं’ में प्रकृति की रहस्यमयी और दार्शनिक पृष्ठभूमि को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है – “किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर/ आती हो तुम सजी मंडलाकार? / एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर,/ गाती हो ये कैसे गीत उदार?”
निराला मानवीय संस्कृति के अनन्य उपासक थे। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति के मानवीय और शौर्यपूर्ण रूप के दर्शन होते हैं। ‘यमुना के प्रति’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘दिल्ली’, और ‘खण्डहर के प्रति’ जैसी कविताओं में उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को जगाने का प्रयास किया है। ‘यमुना के प्रति’ कविता में वे पाठकों के मन में भारतीयता का भाव जागृत करना चाहते हैं। माँ भारती की अर्चना-वंदना करते हुए ‘भारती, जय विजय करे’ की आकांक्षा अभिव्यक्त करते हैं। वे सरस्वती माता वीणा वादिनी से प्रार्थना, अपने लिए नहीं बल्कि भारत के लिए करते हैं – प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
निराला का साहित्य अनेक दृष्टियों से ‘निराला’ (अनोखा) है। उनकी रचनाओं में राग-विराग, लोक संग्रह, और मानवीय मूल्यों की विचित्रताओं का समावेश है। उनके काव्य संग्रह – ‘अर्चना’, ‘अणिमा’, ‘अनामिका’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘नए पत्ते’, ‘परिमल’, ‘बेला’, और ‘हलाहल’ – में भारतीयता और मानवीयता की गहरी छाप है। उनकी कहानियाँ, उपन्यास, निबंध, जीवनी, और अनुदित साहित्य भी उनकी साहित्यिक विविधता को दर्शाते हैं।
निराला की साहित्य साधना का केंद्र शाश्वत मानव मूल्य हैं। वे भारत के गौरव गान करते हैं, लुप्त गौरव को जगाते हैं, और समरसता के पक्षधर हैं। उनकी कविताएँ ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘भारत जस विजय करें’, और ‘जागो फिर एक बार’ में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है। उनका राष्ट्र चिंतन कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप में उनकी सभी रचनाओं में मिलता है।
निराला का काव्यात्मक ‘निरालापन’ उनकी कविताओं में विशेष रूप से तब दिखाई देता है, जब वे मानवता और भारतीयता के मूल्यों के हनन पर आक्रोश व्यक्त करते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में उन्होंने पूंजीवादी शोषण पर करारा प्रहार किया है। ‘बेला’ कविता में वे भारत के दीन-हीन वर्ग को उठाने की मानवीय और राष्ट्रीय अभिलाषा व्यक्त करते हैं।
निराला की कविताओं में रहस्यवादी, दार्शनिक और आध्यात्मिक चेतना की झलक भी मिलती है। उनकी रचनाएँ भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों की रक्षा का संकल्प लिए हुए हैं। उनके शब्द –
“जग को ज्योतिर्मय कर दो, / प्रिय कोमल पद – गामी भेद उतर, / जीवन – मृत वस – तृण, गुल्मों पृथ्वी, / हँस-हँस निज पथ आलोकित का मूल्य-जीवन भर दो।” – इन पंक्तियों में उनकी भारतीय संस्कृति और मानव मूल्यों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता झलकती है। निराला का साहित्य आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि उनकी रचनाएँ मानवीय मूल्यों, राष्ट्रीय चेतना और भारतीयता की अमर गाथा कहती हैं।
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