– विकास कुमार पाठक
हिन्दी कथा साहित्य को उसको उत्कर्ष तक पहुंचाने में प्रेमचन्द की केन्द्रीय भूमिका है। इसलिए ही जब हम गद्य साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधाओं उपन्यास और कहानी की चर्चा करते हैं तो प्रेमचन्द्र उसमें शीर्ष पर खड़े हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में प्रेमचन्द्र ने इन दोनों विधाओं को एक नया स्वरूप प्रदान किया है- कथा विन्यास और शिल्प-संरचना दोनों ही स्तरों पर। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य जगत के शीर्ष विद्वान उन्हें ‘कथा सम्राट’ के नाम से अभिहित करते हैं।
प्रेमचन्द्र का साहित्य अपने युग की वास्तविक अभिव्यक्ति जान पड़ती है। उनका समग्र वाङ्मय अपने युगीन परिवेश एवं परिस्थिति का साक्षात्कार है। “बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कहानी के क्षेत्र में प्रेमचन्द का प्रवेश क्रान्तिकारी कदम था। बीस-पच्चीस वर्ष के इस नवयुवक ने उर्दू तथा अंग्रेजी के माध्यम से भारत के प्राचीन कथात्मक ग्रन्थों, पुराणों तथा पश्चिम के कथा-साहित्य को आत्मसात् करके जब कलम उठाई तो पहले उपन्यास और फिर कहानियों के लेखन में प्रवृत्त हुआ। प्रेमचन्द का यह आरम्भिक कहानीकार – प्रमुख रूप से तीन शक्ति एवं ज्ञान-स्रोतों से निर्मित हुआ था। भारत का प्राचीन साहित्य, अंग्रेजी भाषा से आने वाले रूसी, फ्रेंच, इंग्लिश आदि का कथा-साहित्य, नया ज्ञान-विज्ञान तथा अपने युग की परिस्थितियाँ एवं जागरण आन्दोलन। प्रेमचन्द्र के योवन-काल का यह ऐसा ही समय था जब ये तीनों स्रोतों संशलिष्ट रूप में युग के सांस्कृतिक जागरण के रूप में पूरे देश को आन्दोलित कर रहे थे और स्वराज्य, स्व-संस्कृति, स्व-भाषा के साथ देशी अस्मिता के लिए भारतीय समाज संघर्ष कर रहा था। इस प्रकार प्रेमचंद के आविर्भाव काल में भारत को प्राचीन परम्पराओं, मूल्यों और जीवन-दृष्टि के साथ आधुनिक जीवन के ज्ञान-विज्ञान के साथ सम्मिलन से सुरक्षित रखने साथ भारतीयता के अनुकूल पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान को अपनाने की दृष्टि थी। प्रेमचन्द के कहानीकार की निर्मित उसके संस्कार तथा सृजन-प्रक्रिया उसका उहानी-दर्शन एवं कहानी – साहित्य युग की इसी भारतीय दृष्टि से हुआ था। प्रेमचन्द्र जीवन-पर्यन्त इसी सिद्धांत पर चलते रहे कि हमने चाहे उपन्यास और कहानी का कलेवर योरूप से लिया है, लेकिन उसमें भारतीय आत्मा सुरक्षित रहे।”1
“प्रेमचन्द्र ने ‘सोज़ेवतन’ (सन् 1908) अपनी प्रथम कहानी-संग्रह के माध्यम से कहानी विधा में कदम रखा। यह मूलतः उर्दू भाषा में रचित कहानी-संग्रह था, जिस पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन इन्हीं उर्दू कहानियों से उनके हिन्दी कहानी में भी आगमन के संकेत मिलने लगते हैं। प्रेमचन्द्र ने ‘सोजेवतन’ की एक प्रति ‘सरस्वती’ के सम्पादक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को भेजी और उन्होंने ‘सरस्वती’ के दिसम्बर 1908 के अंक में इसकी पाँच कहानियों की ‘मनोरंजक’, ‘उपदेशपूर्ण’ एवं ‘स्वदेश’ भक्ति के पवित्र भावों के कारण बड़ी प्रशंसा की और लिखा कि आजकल ऐसे किस्सों की बड़ी आवश्यकता है।”2 निश्चय ही प्रेमचन्द की कहानियों का कलेवर सन् 1900 से 1907 के बीच लिखे गए कहानियों से भिन्न था। क्योंकि प्रेमचन्द से पूर्व जो कहानियाँ लिखी जा रही की वह युगीन परिवेश प्रधान कम मनोरंजन प्रधान अधिक थी।
प्रेमचन्द की कहानियों के संदर्भ में कमल किशोर गोयनका लिखते हैं- “प्रेमचन्द हिन्दी के पहले ऐसे कहानीकार थे जिन्होंने कहानी की रचना के साथ-साथ कहानी आधुनिक शास्त्र को भी स्वरूप प्रदान किया। प्रेमचंद ने यद्यपि ‘सोजेवतन से कफन’ कहानी तक जो लगभग तीन सौ कहानियों की रचना की थी उनसे भी उनका कहानी शास्त्र समझा जा सकता है। लेकिन यहा महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि वे ‘सोजेवतन’ की कहानियों की रचना के साथ ही आधुनिक कहानी के सिद्धांत उसके स्वरूप तथा उसकी भाषा-शिल्प के रूप की भी रचना कर रहे थे। यह एक अद्भुत घटना है कि कहानी की रचना के साथ कहानी के आधुनिक शास्त्र का उद्भव और विकास भी साथ-साथ हुआ और कभी ऐसा भी हुआ कि अपने शास्त्रीय चिन्तन का अतिक्रमण करके उन्होंने कहानी को शास्त्रीयता से मुक्त कर दिया। प्रेमचन्द्र कहानी सम्राट थे तो वे कहानी के शास्त्रकार भी थे लेकिन उनकी विशेषता यह थी कि वे दोनों ही क्षेत्रों में गतिशील बने रहे और अपने युग की धड़कनों तथा समाज एवं राष्ट्र की नमी व्याकुलताओं तथा परिस्थितियों से गहराई से जुड़े रहे। वे हिन्दी के पहले ऐसे कथाकार थे जिन्होंने साहित्य के पुराने प्रतिमानों तथा कसोटियों का भंजन किया और नए युग के नए प्रतिमान स्थापित किये। प्रेमचन्द्र के साहित्य में आगमन के समय बीसवीं शताब्दी का आरम्भ हो चुका था और युग की परिस्थितियों एवं देश की चिन्तन धारा में तेजी से परिवर्तन हो रहा था। मध्य युग की पराजय, हताशा, चाटुकारिता, भद्दा मनोरंजन, विलासिता भक्ति-भाव तथा दासता की जंजीरें टूटने के लिए व्याकुल हो रही थीं और पश्चिम के नए ज्ञान विज्ञान के साथ स्वदेशी तथा आत्म-गौरव की रक्षा का प्रबल भाव उदित हो रहा था। भारत की उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी की इस नयी चेतना को आत्मसात् कर हिन्दी साहित्य में उतरने वाले प्रेमचंद पहले लेखक थे। अत: वे हिन्दी कहानी और उपन्यास को नयी शताब्दी के नये साहित्यिक प्रतिमान के रूप में स्थापित करने में सफल हुए। बीसवी शताब्दी के इस क्रान्तिकारी लेखक ने पुरातन से वही ग्रहण किया जो नयी शताब्दी के लिए उपयोगी था तथा नवीन युग से भी वही स्वीकार किया जो इस पुरातन भारतीय चेतना से सम्पृक्त हो सकता था। प्रेमचन्द्र की दृष्टि निश्चय ही नवीनता की ओर थी, परन्तु उसकी नवीनता पूर्णतः न हो पश्चिमी थी और न आधुनिकता की नकल थी, न उसमें अविवेकी होकर बहने का पागलपन था, परन्तु उसमें पुरातन की पवित्र भारतीय आत्मा तथा श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को अक्षुण्ण रखने का संकल्प था।”3 निश्चित रूप से प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य में जिस प्रकार की कथा संरचना की बुनावट की है, उसमें ‘भारतीय आत्मा’ के स्वरूप एवं श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को सहज ही देखा जा सकता है। चाहे वह ‘दो बैलों की कथा’ में ‘हीरा-मोती’ का चरित्र हो या ‘ईदगाह’ में ‘हामिद’ का, चाहे ‘पुल की रात में’ ‘हल्कु’ का चरित्र हो या ‘गोदान’ में ‘होरी’ का- ये सभी पात्र उसी श्रेष्ठ भारतीय जीवन-दर्शन को रूपायित करते हुए परिलक्षित होते हैं।
प्रेमचन्द्र मानवतावादी साहित्यकार हैं। उन्होंने मानवता के खिलाफ उठने वाली सभी तरह की आवाजों को पूरी बेबाकी के साथ अपने उपन्यासों एवं कहानियों में चित्रित किया है। वास्तव में, प्रेमचंद के पूरे कथा साहित्य में एक त्रिकोण उभर कर आता है, जिसके तीनों छोर पर क्रमशः स्त्री, दलित और किसान मजदूर हैं। प्रेमचन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य, चाहे वह कहानी हो या उपन्यास, सभी में कृषकों/मजदूरों का दुख दर्द प्रमुखता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। आदि से अंत तक कृषक जीवन के संघर्ष को चित्रित करता हुआ उनका महाकालात्मक उपन्यास ‘गोदान’ समस्त भारत के ग्राम जीवन, पूँजीवादी व्यवस्था, हरिजन व्यथा, विषय स्त्री जीवन के भावपूर्ण चित्रण में सक्षम हैं, इसलिए कालजयी रचनाओं की श्रेणी में आता है। हरिजन व्यथा को केन्द्र में रखकर उनकी कुछ कहानियाँ (अकुर का कुआँ, कफन, मंदिर और कुछ उपन्यास (रंगभूमि, गोदान) तत्कालीन सामाजिक दुर्दशा और पतन का चित्रण करते हैं। यहीं नहीं ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ के देश में स्त्री की दारुण स्थिति से प्रेमचन्द ने निस्तर मुठभेड़ की है।
प्रेमचन्द्र सर्वधर्म समभाव के समर्थक साहित्यकार थे इसलिए उनके विचारों में सभी धर्मों की स्वीकार्यता का भाव पड़ता है। अपने कथा-साहित्य के पात्रों के चयन से लेकर उनके चरित्र-चित्रण तथा संवादों में ये तत्व सर्वत्र दर्शित होते हैं। उनके लिए ‘राष्ट्रीयता की पहली गर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेद और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोझा है। प्रेमचन्द यह भी मानते हैं कि हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें जन्मजात वर्णों की तो गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा न कोई हरिजन न कायस्थ, न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होने या सभी हरिजन। निश्चित रूप से राष्ट्रीयता के संदर्भ में प्रेमचन्द का यह भाव या विचार वर्तमान समय की एक भारत श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को ही रेखांकित करता हुआ दिखाई देता है, जो कि किसी भी राष्ट्र के उत्थान के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
प्रेमचन्द्र के साहित्य-दर्शन के संदर्भ में कमल किशोर गोयनका लिखते हैं- “प्रेमचन्द्र ने अपने साहित्य-दर्शन की व्याख्या में यह स्वीकार किया था कि साहित्य सिद्धांत के रूप में ‘कला कला के लिए’ ही सर्वोपरि है, लेकिन पराधीनता के काल में मैं इस ऊंचे आदर्श पर चलना देशहित में न होकर ‘कला जीवन के लिए’ के सिद्धांत को अपनाना ही श्रेयस्कर है। प्रेमचन्द्र ने इसी सिद्धांत को अपनाया और इसे ‘कला राष्ट्र के लिए’ के रूप में रूपायित किया कर इसे राष्ट्रीय-दर्शन बना दिया। यह एक क्रिया ही थी कि प्रेमचन्द्र जहाँ तक और कला के सर्वोच्च सिद्धांत को अस्वीकार कर रहे थे, वहाँ वे दूसरी ओर उसी पराधीनता काल में कहानी-कला के उच्च कोर के सिद्धांत निर्मित कर रहे थे। ये कहानी-सिद्धांत (साहित्य-सिद्धांत) स्वाधीनता-प्राप्ति तक हो हिन्दी कहानी के सर्वस्वीकृत सिद्धांत बने रहे और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीसवीं शताब्दी के अन्त तक भी इन्हें प्रत्यक्ष रूप से चुनौती नहीं दी जा सकी। प्रेमचन्द ने कहानीशास्त्र में कथा-तत्त्व एवं कन्या की संरचना, घटना के स्थान पर चरित्रों की महत्ता, प्रत्यक्ष अनुभव, मनोविज्ञान कथा पात्र-परिवेश व सम्मिलन, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, उपयोगितावाद एवं मंगल भावना, सत्य-शिव-सुन्दर के नये प्रतिमान्, पीड़ित दमित-शोषित की पक्षधरता आध्यात्मिक सामंजस्य और बोधगम्य भाषा आदि को स्थान देकर ऐसे कहानी-शास्त्र का निर्माण किया जो पराधीन भारत का ही नहीं स्वाधीन भारत की हिन्दी कहानी का भी बहुचर्चित, लोकप्रिय और प्राय: सर्वसी-कृति सिद्धांत बना दिया। स्वतंत्रता के बाद आज तक हिन्दी कहानी के अनेक रूप बदले, परन्तु कोई भी प्रेमचन्द जैसी कहानीशास्त्र नहीं दे पाया। यहाँ तक कि मार्क्सवादियों ने भी हिन्दी कहानी को मार्क्सवादी दर्शन देने का प्रयत्न किया, लेकिन वे भी प्रेमचन्द्र का विकल्प नहीं दे पाये और उनमें इतना साहस ही हुआ कि वे प्रेमचन्द्र के कहानी-दर्शन को चुनौती दे सकें।” निश्चय ही प्रेमचन्द ने जो हिन्दी कथा साहित्य में सिद्धांत निर्मित किये हैं उसका कोई विकल्प अभी तक हिन्दी साहित्य जगत् में नहीं दिखता। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के इतिहासकार जब हिंदी उपन्यास और कहानी की निकास यात्रा का कालक्रम-विभाजन करते हैं तो उनको प्रेमचन्द के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं मिलता। तभी वे प्रेमचन्द को केन्द्र में रखकर दोनों विधाओं का उद्भव व विकास को प्रदर्शित करते है।
इस प्रकार, उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रेमचन्द्र का साहित्य-दर्शन भारतीय लोकमानस व समाज का दर्शन है। क्योंकि प्रेमचन्द्र अपनी साहित्य-चेतना में वाल्मीकि, व्यास कबीर, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, दयानन्द सरस्वती, महावीर प्रसाद द्विवेदी, महात्मा गाँधी आदि के साथ अपने समय को जी रहे थे, इसलिए भी उनका साहित्य-दर्शन सम्पूर्ण भारत के जनमानस का दर्शन ही हो सकता था। इसके साथ ही प्रेमचन्द्र का समग्र साहित्यिक चिन्तन युगीन समाज में व्याप्त गरीबी, गैरबराबरी और गुलामी (जो काफी हद तक अभी है) के इर्द-गिर्द घूमता हुआ दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में प्रेमचन्द्र मानवता के प्रबल पक्षधर थे। और इसके विपक्ष में उठने वाली सभी तरह की आवाजों एवं क्रियाकलापों का खुलकर विरोध करते वे थकते नहीं थे।
(लेखक डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म. प्र० के हिंदी विभाग में शोध अध्येता है।)
संदर्भ
2. ‘प्रेम- द्वादशी’ कहानी संग्रह (1926), भूमिका से, ‘प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य’, खण्ड-2 पृष्ठ 349 पर संकलित ।
2. प्रेम विश्वकोश, खण्ड-1 पृष्ठ 37 3. प्रेमचन्द्र नयी दृष्टि: नये निष्कर्ष, कमलकिशोर गोयनका
4. प्रेमचन्द्र नवी दृष्टि: नये निष्कर्ष, कमल किशोर जोयनका पृष्ठ सं. 34
और पढ़ें : महान साहित्यकार प्रेमचन्द का साहित्य दर्शन भाग – 1
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