– डॉ० कुलदीप मेहंदीरत्ता
“साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का ही काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊंचा है, वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है। हमारे सद्भावों का संचार करता है। हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए ”। साहित्य के प्रति इतनी विधायी दृष्टि रखने वाले महान साहित्यकार प्रेमचन्द आगे लिखते हैं कि “साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाय। ‘कला के लिए कला’ के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलम्बित हो, ईर्षा और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा – ये सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ है, इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती”।
दैवीय, सकारात्मक, और विधायी दृष्टि रखने वाले महान मानवीय उपन्यासकार तथा कहानीकार प्रेमचंद का जन्म प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के निकट लमही नाम के गाँव में हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी का ज्ञान प्राप्त किया। जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया लेकिन यह विवाह असफल हो गया, तत्पश्चात सन 1905 में एक बाल-विधवा शिवरानी देवी से उनका पुनर्विवाह हुआ। 1906 से 1936 के भारत के ‘सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक’ दस्तावेज प्रेमचन्द हैं। उनके लेखन पर तत्कालीन समाजसुधार आन्दोलनों, असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। क्रांतिकारी विचारों के वाहक प्रेमचन्द का पहला कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ 1908 में प्रकाशित हुआ। देशभक्ति, स्वराज, सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की भावना से पूरित इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसे प्रतिबंधित कर दिया और इसके लेखक नवाब राय को चेतावनी मिली कि भविष्य में इस प्रकार का लेखन न किया जाये। उनके लेखन में तत्कालीन सामाजिक समस्याओं जैसे बाल-विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा अनमेल विवाह, कृषक-उत्पीड़न, छूआछूत, पराधीनता, लगान, जाति भेद, स्त्री-पुरुष समानता, आदि का आधुनिक चित्रण मिलता है। उनके साहित्य की मुख्य विशेषता आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को माना जाता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के ध्वजवाहक प्रेमचन्द : प्रेमचन्द अपने राष्ट्र में बढ़ते पाश्चत्य प्रभाव से दुखी थे । अमृतराय द्वारा संकलित प्रेमचंद के लेख ‘हिन्दू सभ्यता और लोकहित’ में दिए उनके विचार में ‘भौतिकता पश्चिमी सभ्यता की आत्मा है। अपनी ज़रूरतों को बढ़ाना और सुख-सुविधाओं के लिए आविष्कार इत्यादि करना, पश्चिमी सभ्यता की विशेषताएँ हैं’। लेकिन यह विचार भारत की संतोष आधारित आध्यात्मिक जीवन शैली के विपरीत था। प्रेमचन्द ‘विरोध के लिए विरोध’ नही करते थे। उन्होंने स्वीकारा कि ‘शिक्षा, शारीरिक रोगों का उपचार, अनाथों की सहायता इत्यादि कामों को पश्चिमी सभ्यता ने ज़ोर पहुँचाया है’ लेकिन पिछलग्गुओं की तरह अंग्रेजी सभ्यता के प्रभुत्वकारी और अवास्तविक स्वरूप को स्वीकारने को तैयार नहीं थे। इसलिए इसी लेख में आगे लिखते हैं कि ‘मगर जब यह कहा जाता है कि ईसाई धर्म के अवतरित होने से पहले यह सारी बातें… दूसरे मज़हब में गायब थीं… तो ज़रूरी हो जाता है कि इस ग़लत ख़्याल को उचित और प्रामाणिक… युक्तियों से काटा जाय’।
इसी सन्दर्भ में डॉ प्रीति त्रिपाठी अपने शोध लेख में लिखती हैं कि “इसी के मद्देनज़र अपने ‘पुराना ज़माना: नया ज़माना’ शीर्षक लेख में प्रेमचन्द पुराने और नये ज़माने की सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करते हुये कहते हैं कि—“पुराने ज़माने में सभ्यता का अर्थ आत्मा की सभ्यता और आचार की सभ्यता होता था। वर्तमान युग में सभ्यता का अर्थ है—स्वार्थ और आडम्बर। …सभ्यता से उनका अभिप्राय नैतिक, आध्यात्मिक एवं हार्दिक था। …बड़े-बड़े राजा-महाराजा संन्यासियों को देखकर आदरपूर्वक खड़े हो जाते थे, … हृदय से उनकी चारित्रिक शुद्धता और आध्यात्मिकता को सिर झुकाते थे”।
राष्ट्रभाषा हिंदी के उत्थान के प्रति समर्पित प्रेमचंद : उर्दू और फारसी के अच्छे ज्ञाता होने के बावजूद राष्ट्रभाषा हिंदी के उत्थान के प्रति प्रेमचंद घोर आग्रही थे। साकेत सूर्येश लिखते हैं कि “मसलन कैसे प्रेमचंद उर्दू-हिंदी के साथ साथ, हिंदी एवं आंचलिक भाषाओं के निकट संबंधों के पक्षधर थे, वहीं भारत में हिंदी को एक पूर्ण राष्ट्रभाषा का स्वरूप देने के लिए कटिबद्ध थे। भाषा के संदर्भ में अपने कांग्रेस से मतभेदों को लेकर प्रेमचंद सदा मुखर रहे, और नेताओं की राष्ट्रभाषा के प्रति प्रतिबद्धता की कमी को लेकर बोलते रहे”। हिंदी की महत्ता और स्वीकार्यता को स्थापित करने वाले प्रेमचंद 27 अक्टूबर 1934 को प्रेमचंद मुंबई में राष्ट्रभाषा समिति की बैठक में कहते हैं- “जो हमारा अंगरेज़ साहब करता है, वही हमारा हिंदुस्तानी साहब करता है। अंग्रेज़ियत ने उसे हिप्नोटाइज कर दिया है। …जब कभी अंगरेज़ साहबों से उसे कोई ठोकर मिलती है, तो वह दौड़ा हुआ जनता के पास फ़रियाद करने जाता है- उसी जनता के पास, जिसे वह काला आदमी और अपना भोग्य समझता है”। प्रेमचंद पूरी तबियत से उस समय के नेताओं की खबर लेते हैं, इसी कड़ी में साकेत ने प्रेमचन्द को उद्धृत किया है “…ठोकरों पर ठोकरें मिलती हैं, तब यह क्लास देशभक्त बन जाता है और जनता का वक़ील और नेता बन कर, उसका ज़ोर लेकर अंगरेज़ साहब से मुक़ाबला करना चाहता। तब उसे ऐसी भाषा की कमी महसूस होती है, जिसके द्वारा वह जनता तक पहुँच सके। कांग्रेस को जो थोड़ा बहुत यश मिला, वह जनता को उसी भाषा में अपील करने से मिला। क्या यह दुःख की बात नहीं कि वे, जो भारतीय जनता की वक़ालत के दावेदार हैं, वह भाषा न बोल सकें और न समझ सकें, जो पचीस करोड़ की भाषा है?”
(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)
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