– डॉ. राकेश दुबे
दीनदयाल जी की दृष्टि में भारतीय शिक्षा विषय पर विचार करते हुए कुछ प्रश्न स्वभावत: मन में उठते हैं जैसे किसी भी समाज की शिक्षा व्यवस्था अच्छी है या बुरी। इसकी कसौटी क्या है? शिक्षा को अच्छी या बुरी के रूप में जानने का प्रयत्न भी उचित है क्या? शिक्षा का लक्ष्य क्या होना चाहिए? क्या स्वतन्त्र भारत की शिक्षा व्यवस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रही है? शिक्षा कितनी वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए? शिक्षा में विषयानुराग कितना उचित या अनुचित है? ये अनेक प्रश्न हैं जिसका उत्तर हमारे शिक्षा निर्धारकों को खोजना है। भारत की स्वतंत्रता एक ऐसी सीमा रेखा है जो हमें आत्मालोचन के लिए ज्यादा प्रेरित करती है। आजादी के साथ जो शिक्षातंत्र हमें प्राप्त हुआ, वह मुख्यतः अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त शिक्षातंत्र था, लेकिन इस तंत्र में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा शांति निकेतन जैसे विश्वविद्यालय थे । आर्य समाज की गुरुकुल शिक्षा के अभिकेन्द्र भी थे तथा डी.ए.वी. शिक्षा संस्थाओं का वलय भी। थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रयोग भी थे और अनेक साधु प्रयत्नों के लघु एवं दीर्घ उपक्रम भी। इस विरासत के साथ स्वतंत्र भारत ने गत दशकों में अनेक प्रयोग किए। आज भी शिक्षा की दृष्टि से जहाँ हम पहुँचे हैं, हम सन्तुष्ट नहीं हैं। हमें लगता है कि शिक्षा-व्यवस्था हमारी आने वाली पीढ़ी को वैसा नहीं बना पा रही है, जैसा हम बनाना चाहते हैं।
भारतीय शिक्षा के सम्बन्ध में पं. दीनदयाल जी के विचार उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रचितन’ एवं पांचजन्य में उनके कुछ लेखों एवं आर्गेनाइजर में प्रकाशित उनके लेखों के अध्ययन से यह परिलक्षित होता है कि दीनदयाल जी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था के समर्थक थे जो समयानुकूल होने के साथ देशानुकूल भी हो। उनके अनुसार व्यष्टि और समष्टि को जोड़ने वाला प्रथम सूत्र है- ‘शिक्षा’। वे शिक्षा को समाज की जननी मानते हैं। उनके अनुसार नए घटकों को पुराने घटकों से अपने सम्बन्ध भान रहे तथा वे अपने पुराने घटकों की जीवन की अनुभूति को मानकर और समझकर आगे चले तो उस समूह को समाज नाम प्राप्त होता है। अर्थात एक के बाद एक मानव जब दूसरों को, जो प्राय: उसके बाद जन्मे हो, विभिन्न क्षेत्रों के अपने सम्पूर्ण अनुभव को अथवा उसके सारभूत अंश को विभिन्न उपायों द्वारा प्रदान या संसर्गित करता है तो इस प्रक्रिया में एक निरंतर गतिमान मानव समूह की सृष्टि होती है जिसे समाज कहते हैं। यदि शिक्षा न हो तो मानव समाज का जन्म ही न हो।
समाज में शिक्षा के स्थान की प्राथमिकता एवं गरिमा का बोध कराते हुए दीनदयाल जी कहते हैं – हमारे शास्त्रकारों के अनुसार यह ऋषि ऋण है जिसे चुकाना प्रत्येक का कर्तव्य है। जब हम भावी सन्तति की शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तो हमारी उनके प्रति उपकार भावना नहीं रहती अपितु हमें जो कुछ धरोहर अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई है उसे आगे की पीढ़ी को सौंपकर उनके ऋण से उऋण होने की मनीषा रहती है। जॉन बुकन ने इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा है- “हम भूत के ऋण से उऋण हो सकते हैं यदि भविष्य को हम अपना ऋणी बनाएं।” दीनदयाल जी मानते हैं कि शिक्षा हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है समाज द्वारा इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। शिक्षा का विक्रय समाज के लिए घातक होगा। अत: शिक्षा सुनिश्चित और नि: शुल्क होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में वह लिखते हैं कि बच्चे को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। जन्म से मानव पशुवत पैदा होता है। शिक्षा व संस्कार से वह समाज का अभिन्न घटक बनता है। जो काम समाज के अपने हित में हो उसके लिए शुल्क लिया जाए यह तो उल्टी बात है। कल्पना करें कि भविष्य में शिक्षा शुल्क का बहिष्कार करके अथवा उसे देने में असमर्थ होने के करण बच्चे पढ़ना बन्द कर दें तो क्या समाज इस स्थिति को सहन कर पायेगा। पेड़ लगाने और सीचने से पेड़ के फलने पर हमें फल मिलेंगे ही। शिक्षा भी इसी प्रकार विनियोजित है। व्यक्ति शिक्षित होकर समाज के लिए काम करेगा ही; किन्तु जो व्यवस्था बचपन से ही हमें व्यक्तिवादी बनाती हो उससे समाज की अवहेलना करने वाले निकले तो आश्चर्य ही क्या? भारत में 1947 से पहले राज्यों में कहीं भी शिक्षा के लिए शुल्क नहीं लिया जाता था। उच्चतम श्रेणी तक शिक्षा निःशुल्क थी। गुरुकुलों में तो भोजन व रहने की व्यवस्था भी आश्रम में ही होती थी। केवल भिक्षा मांगने के लिए ब्रह्मचारी समाज में जाता था। कोई भी गृहस्थ ब्रह्मचारी को खाली हाथ नहीं लौटाता था अर्थात समाज द्वारा शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी।
वर्तमान की बदली हुई परिस्थिति में जब हमनें लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की है, इस सामाजिक दायित्व को वहन करने का दायित्व ‘राज्य’ का है। अपनी पुस्तक ‘सिद्धांत और नीति’ में दीनदयाल जी लिखते हैं कि “प्रजा को शिक्षा की उपेक्षा न करने देना, शिक्षा सम्बन्धी कार्यों में उसकी सहायता करना, प्रत्येक स्थान पर विद्वान गुरुओं का प्राचुर्य रखना, देश-काल निमित्तों को शिक्षा के अनुकूल रखना, स्थान-स्थान पर शिक्षाश्रमों की व्यवस्था करना, सर्वत: उनके उत्साह को बढाए रखना राज्य के परम्परागत कर्तव्य हैं।” राज्य को शिक्षा के प्रति उत्तरदायी मानते हुए भी उपाध्याय जी शिक्षा के सरकारीकरण के विरुद्ध हैं। वे कहते हैं- बेशक एक कल्याणकारी राज्य में बच्चों की शिक्षा की मूल जिम्मेदारी सरकार की ही होती है, लेकिन हमें शिक्षा के सरकारीकरण से बचना चाहिए। वे शैक्षिक स्वायत्तता का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार – “शिक्षा का समय राज्य द्वारा होने के उपरांत भी सरकारीकरण नहीं होना चाहिए। प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षा संस्थाओं का प्रबंध करने के लिए शिक्षकों तथा शिक्षाविदों के स्वायत्त निकाय होने चाहिए। सरकार के विभाग के रूप में उनका चलना ठीक नहीं। सरकारी और गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं का भेद समाप्त कर देना चाहिए। सभी क्षेत्रों के शिक्षकों के वेतन क्रम व अन्य सुविधाएं ऐसी हो जिससे योग्य व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में आने में संकोच न करें। शिक्षा संस्थाओं को मैनेजरों अथवा प्रबन्ध समिति की निजी सम्पत्ति बनने देना उचित नहीं।”
“स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर निजी सम्पत्ति बनाने की प्रवृत्ति की ओर से भी सावधान रहना आवश्यक है। अतःस्वायत्तता का अर्थ शिक्षा की दुकानदारी न होकर संविधानत: सुपरिभाषित स्वायत्त राष्ट्रीय निकाय के अन्तर्गत शिक्षा व्यवस्था का होना है।” यहीं वस्तुत: दीनदयाल जी का अभिप्रेत था। इसी प्रकार वे शिक्षा के दोहरे ढाँचे, जिसमें ‘पब्लिक स्कूल’ व सरकारी अथवा निजी स्कूल की व्यवस्था होती है, के भी विरुद्ध हैं। वे पब्लिक स्कूलों को ‘राष्ट्रीयतानाशक’ प्रभाव छोड़ने वाले विद्यालय के रूप में वर्णित करते हुए कहते हैं- “शिक्षा समाज में भेद निर्माण करने वाली न होकर एकात्मभाव निर्माण करने वाली हो, भारत के ‘पब्लिक स्कूल’ इस उद्देश्य के प्रतिकूल हैं। आवश्यकता है, सभी शिक्षण संस्थाओं का स्तर ऊंचा उठाया जाए।”
उनके विचार में समाज व राज्य संस्था के द्वारा जहाँ शिक्षा का योग्य नियमन होना चाहिए, वहीं शिक्षातत्व पर बाहरी साम्राज्यवादी ताकतें हमारे समाज को अस्वस्थ न करें, इसका ध्यान रखना भी जरूरी है। इस दृष्टि से वे भारत में ऐसी संस्थाओं को खतरनाक मानते हैं। भारत में बहुत सी शिक्षा संस्थाएं ईसाई मिशनों के द्वारा चलाई जा रही है। बहुधा ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा चलाई गयी शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षा क्षेत्र में उनके प्रयत्नों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की जाती है। इतना ही नहीं आज के अनेक पढे-लिखे व्यक्ति तथा देशभक्त कहे जाने वाले भारतीय संस्कृति के प्रेमी भी अपने बच्चों को शिक्षा के लिए इन ईसाई स्कूलों में भेजते हैं। किसी भी बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप एवं प्रभाव नहीं सहन कर सकते। आर्थिक क्षेत्र में भी बाहरी सहायता व पूंजी भय का कारण बन जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में विदेशियों को अधिकार देना कहाँ तक उचित है? अपरिपक्व मस्तिष्क पर विदेशी शक्तियों को प्रभाव डालने की अनुमति देना जैसे जड़ को काटने की स्वतन्त्रता देना ही है। दीनदयाल जी मानते हैं कि शिक्षा केवल शालेय उपक्रम मात्र नहीं है वरन एक सम्पूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है। शालेय शिक्षा उसका महत्वपूर्ण भाग होते हुए भी केवल शालेय शिक्षा से समाज सर्वांग रूप से सुरक्षित नहीं हो सकता। अतः वे एक शिक्षकत्रयी का वर्णन करते है। उनकी मान्यता है कि शिक्षा के व्यापक अर्थों में समाज का प्रत्येक घटक ही शिक्षक है। अतः प्रथम शिक्षक है- समाज, द्वितीय शालेय अध्यापक एवं तृतीय है- व्यक्ति स्वयं। इस शिक्षकत्रयी को भारतीय शास्त्रकारों नें निम्न वाक्यों में प्रतिबिंबित किया है –
1. माता प्रथमा गुरु:
2 आचार्य देवो भव:
3 आत्मदीपो भव:
उन तीनों शिक्षकों के शिक्षा देने के अलग अलग माध्यम है, प्रथम-संस्कार, द्वितीय-अध्यापन व तृतीय-स्वाध्याय।
माता प्रथमा गुरू (संस्कार)
संस्कार ही शिक्षा का प्रथम माध्यम है जो व्यक्ति समाज द्वारा ग्रहण करता है। संस्कार की दृष्टि से समाज का प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक है। व्यक्ति सबसे पहले जिस सामाजिक घटक के सम्पर्क में आता है वह माता है। अत: कहा गया कि माता प्रथमा गुरुः। फिर व्यक्ति समाज के अन्य घटकों के सम्पर्क में आता है। एक सामाजिक परिवेश रहता है जिसका नवजात एवं विकसित हो रहे बालक पर अनजाने में ही प्रभाव होता रहता है। इसी प्रभाव को उपाध्याय जी संस्कार कहते हैं। माता-पिता, परिजन = पुरजन-गुरुजन, अग्रपाठी, सहपाठी, समाज के नेता और अधिष्ठाता। ये सभी विभिन्न प्रकार के संस्कार निरन्तर डालते रहते हैं। अत: समाज का प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक है। उसका यह सामाजिक दायित्व है कि वह अपने व्यवहार से सत्संस्कारी परिवेश का समाज निर्माण करे। इस दायित्व बोध से शून्य होकर समाज यदि केवल शालेय शिक्षा व शिक्षक पर ही आश्रित होगा तो उसकी प्रगति नितान्त संदिग्ध मानी जायेगी। शिक्षा में सर्वजन सहभागिता आवश्यक है। यह केवल कुछ विशेषज्ञों मात्र का विषय नहीं है। उसे शैक्षिक लोकतंत्र की भी संज्ञा दी जा सकती है।
आचार्य देवो भव (अध्यापन)
शिक्षालयों की व्यवस्था कर औपचारिक अध्यापन के माध्यम से शिक्षा देना एक सर्वमान्य शैक्षिक तरीका है। अक्षर ज्ञान व कुछ पाठ्यक्रम के माध्यम से हम व्यक्ति को शिक्षित करते हैं। यह औपचारिक शिक्षा निर्जीव कर्मकाण्ड न बन जाय, अत: आवश्यक है कि शिक्षा के व्यापक अर्थों को समझने वाले व्यक्ति अध्यापक बनें तथा समाज शिक्षक को सर्वाधिक सम्मानित पद के रूप में स्वीकार करे। शिक्षक की वर्तमान स्थिति व अपने सुझावों को प्रतिपादित करने वाला एक वर्णनात्मक लेख दीनदयाल जी ने ‘आर्गेनाइजर’ में 17 सितम्बर 1962 को लिखा। उसमें उपाध्याय जी ने अपने स्नेही शालेय अध्यापक से अध्यापक बनने की अपनी इच्छा जताई तो उनके उन शुभेच्छु अध्यापक ने जो कुछ कहा उसका वर्णन करते हुए उपाध्याय जी लिखते हैं कि “वह चुप हो गये, उनके चेहरे पर ठंडी उदासी छा गयी, फिर उन्होंने पर्याप्त कड़वाहट के साथ कहा- कृपा कर तुम कुछ भी कर लो। चाहे तुम मोची बन जाओ, चाहे सड़क के किनारे बैठ कर और कर जूते गाँठने का काम करो लेकिन इस गंदले मास्टरजी के काम को मत अपनाओ। अध्यापक बनने से तुम्हारी इस लोक व परलोक, दोनों लोकों के जीवन की समस्त सम्भावनाएं निश्चित रूप से समाप्त हो जायेंगी।” अपने शुभेच्छु पूर्वाध्यापक की बात न मानते हुए उपाध्याय ने टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में प्रवेश लिया तथा वहाँ के अनुभव को अपने लेख में इस प्रकार वर्णित करते हैं – “यथासमय मैंने प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्रवेश लिया। मैने वहाँ देखा कि शिक्षक का यह उदात्त कार्य आज आदर्शवादी व सेवाभावी लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है। केवल वह लोग जो अन्यत्र स्थान पाने में असमर्थ रह जाते हैं अध्यापक बन जाते हैं। आई.सी.एस. से लेकर नायब तहसीलदार तक की विभिन्न परीक्षाओं में ये प्रशिक्षणार्थी बैठते थे, लेकिन इनमें जो अनुत्तीर्ण हो जाते, वे ही अध्यापक बनने की सोचते थे। जॉनसन ने कहा है- शेष सब धन्धों से बचे हुए अधम जनों का धन्धा राजनीति है। वस्तुत: भारत में अध्यापन कुण्ठाग्रस्त लोगों के लिए बचा हुआ धन्धा है। इस प्रकार से यह आत्महत्या का पूर्व सोपान है।” जिस शिक्षक के हमारी प्राचीन समाज व्यवस्था ने ‘आचार्य देवो भव’ कहा, उसके आभामण्डल का यह अपखण्डन बहुत ही चिन्ताजनक है। यदि हमें अपने समाज को सही अर्थों में सुशिक्षित करना है तो अध्यापक की गरिमा को पुनः स्थापित करना होगा।
आत्मदीपो भव (स्वाध्याय)
समाज की शिक्षक अवस्था तथा औपचारिक अध्यापन व्यवस्था के बाद व्यक्ति स्वयं ही अपना शिक्षक होता है। स्वाध्याय मनुष्य का स्वयं अध्यापन है। पठन, मनन और चिन्तन के सहारे मनुष्य ज्ञान को आत्मसात करता है। बिना स्वाध्याय के न तो प्राप्त ज्ञान टिकता है न ही बढ़ता है। स्वाध्याय के बिना ज्ञान को जीवन का अंग बनाकर तेजस्वी बनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अत: ‘स्वाध्यायन्मा प्रमद:’ (स्वाध्याय में आलस्य मत करो), यह कुलपति का स्नातक को दीक्षान्त के अवसर पर आदेश रहता है। पुस्तकालय आदि की व्यवस्था स्वाध्याय के लिए आवश्यक है। उपाध्याय जी समाज में शिक्षामय वातावरण के लिए घर व नगर में पुस्तकालयों की स्थापना तथा पठन-पाठन का वातावरण बनाने पर विशेष बल देते हैं। इसके बिना शालेय शिक्षा का भी वांछित टिकाव एवं विकास संभव नहीं है। शालेय शिक्षा अकेली ही मनुष्य का निर्माण नहीं करती। संस्कार और अध्यापन का बहुत सा ऐसा क्षेत्र है जो शालेय क्षेत्र के बाहर है। यदि इन दोनो क्षेत्रों में विरोध रहा तो विद्यार्थी के जीवन में एक अंतर्द्वन्द्व उपस्थित हो जाता है। एक समन्वित, एकीकृत, सर्वांगपूर्ण अखण्ड व्यक्तित्व का विकास होने के स्थान पर उसकी प्रकृति में विभक्त निष्ठाओं का समावेश हो जाता है। समाज और उसके बीच एक खाई पड़ जाती है। आज केवल औपचारिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, तथा वांछित परिणामों को न प्राप्त कर सकने की कुंठा के कारण शिक्षा पद्धति की निन्दा तथा परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का वातावरण बन रहा है। उपाध्याय जी इसे समाज की अस्वस्थ अवस्था का परिचायक मानते हैं। औपचारिक शिक्षा तो संस्कार एवं स्वाध्याय के बीच की कड़ी है। शिक्षा की सर्वांगपूर्णता की प्रथम शर्त है- ‘संस्कारक्षम समाज’ अर्थात प्रत्येक व्यक्ति में शिक्षा के प्रति उत्तरदायित्व की भावना आवश्यक है। परिवार, हाट-बाजार, खेत-खलिहान ये सब शिक्षालय के ही रूप है। समाज में यह चेतना उत्पन्न करना सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक आन्दोलनों संगठनों व नेताओं का कार्य है। इस कार्य को किए बिना केवल सरकारी माध्यम से शिक्षा की सर्वांगपूर्ण व्यवस्था की कल्पना करना सर्वथा अव्यवहार्य है। समन्वित शिक्षकत्रयी ही समाज में सर्वांगपूर्ण शिक्षा नीति की प्रत्याभूति है। इसी क्रम में उपाध्याय जी शिक्षा के लिए स्वभाषा की अपरिहार्यता को भी आवश्यक बताते हैं।
उपाध्याय जी के सम्पूर्ण वैचारिक प्रतिपादन में शिक्षा व संस्कार व्यवस्था का सर्वाधिक महत्व है। वे समाज के चतुर्विध पुरुषार्थों की प्राप्ति की मूलभूत आधारशिला शिक्षा को ही मानते हैं। उस सन्दर्भ में किसी बाद व व्यवस्था विशेष के आग्रह को उपाध्याय जी असंगत मानते हैं। शिक्षा से प्राप्त सामर्थ्य समाज को सदैव सही रास्ता खोज लेने के लिए सक्षम बनाता है। अत: राजनीतिक व आर्थिक कारणों से योजनाकार जब शिक्षा की अवहेलना करते हैं तब उपाध्याय जी इसे अनुचित करार देते हैं। पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा मद में व्यय की कटौती की आलोचना करते हुए उपाध्याय जी ने कहा था कि “चौथी पंचवर्षीय योजना की सबसे कमजोर कड़ी है, ‘शिक्षा’ इस मद में 1965-66 में 180.13 करोड़ रुपये की जगह अब केवल 98.38 करोड़ रूपये का प्रावधान है। शिक्षा का क्रम तो अबाध रूप से चलना चाहिए। उसे यदि बीच में तोड़ दिया गया या कमजोर कर दिया गया तो आगे जोड़ना बहुत कठिन हो जायेगा।“
इस प्रकार उपाध्याय जी अपने देश-काल के अनुरूप भारतीय शिक्षा के वैदिक आदर्श को स्थापित करने के पक्षधर दिखाई देते हैं। सब दिशाओं से मिले शुभ ज्ञान, यह हमारे दर्शन का दिशाबोधक सिद्धान्त है। लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि हमारे देश व समाज के हित में हम क्या ग्रहण करें। यह हमारा अधिकार ही नहीं अपितु वांछनीय भी है।
(लेखक मीरा कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, सरदुलेवाला, सर्दुलगढ़, जिला-मानसा पंजाब में प्रधानाचार्य है।)
सन्दर्भ ग्रंथ-
1: दीनदयाल उपाध्याय: राष्ट्रचिन्तन
2: एकात्म दर्शन: राष्ट्रजीवन के अनुकूल अरचना
3: भारतीय जनसंघ: सिद्धान्त और नीति
4: पॉलिटिकल डायरी (हिन्दी)” स्वभाषा – सुभाषा
5: विचार- वीथी: मिशनरी और शिक्षा संस्थाएं: पाञ्चजन्य
6: Deendayal Upadhyaya, Teachers Day, Some Thoughts, Organiser, 17 September 1962.
7: दीनदयाल उपाध्याय, चतुर्थ योजना: उद्देश्य और संभावनाएं; पांचजन्य, 08 अप्रैल 1966
8: डॉ. महेश चन्द्र शर्मा – दोन दयाल उपाध्याय कर्तृत्व एवं विचार