– नम्रता दत्त
शिशु अवस्था संस्कार ग्रहण करने की सर्वश्रेष्ठ अवस्था है क्यों और कैसे? – इसका बहुत कुछ चिन्तन गत सोपानों में किया गया। इसी श्रृंखला में – शिशु की अनौपचारिक/औपचारिक शिक्षा में एक मुख्य भूमिका मातृभाषा की भी है। क्योंकि शिशु का समग्र विकास उसी भाषा में सम्भव है जिसको वह गर्भावस्था से सुनता है क्योंकि वह जैसा सुनता है वैसा ही बोलता है। गर्भ के चौथे मास में ही शिशु की श्रवणेन्द्रिय (कान) विकसित हो जाती है। माता के कानों द्वारा वह भाषा सुनता है। वह जो भाषा सुनता है वह उसके चित्त में संग्रहित हो जाती है और बोलने की क्षमता विकसित होने पर वही रिकार्डिंग की हुई भाषा को वह धीरे धीरे एक से तीन वर्ष की आयु में पहले एक-एक शब्द बोलकर अपनी वाणी की यात्रा प्रारम्भ करता है, बाद में छोटे-छोटे वाक्य बोलने लगता है। गर्भ में सुने गए उन्हीं शब्दों/भाषा को जब वह पुनः परिवार के सदस्यों के द्वारा सुनता है तो उसे बोलने में सरलता होती है।
भाषा केवल अपने भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम ही नहीं अपितु यह एक भावयुक्त संस्कार है। गर्भ में शिशु मात्र शब्दों को ही नहीं सुनता बल्कि उसके भावों को ग्रहण करता है। इसलिए प्राचीन काल में जब वह गर्भ में होता था, तब भी माता उससे बात करती थी। जन्म के पश्चात् लोरी (सुलाने के लिए गीत गाना), प्रभाती (जगाने के लिए गीत गाना) सुनाने की परम्परा थी। ये लोरियां और प्रभाती भी भावपूर्ण तथा संस्कृति पर आधारित होती थीं। संस्कार सीखाने की इस कला के महत्व को न समझने के कारण माता पिता शिशु को आधी अधूरी शिक्षा (सीखना) और संस्कृति को समझाने का कारक बनते हैं।
लोरी गाना तो माता को आता ही नहीं। आजकल तो अलेक्सा लोरी सुनाती है और माता कहती है कि अलेक्सा बेबी को बेस पसन्द है – (टी.वी. पर विज्ञापन सुना होगा)। क्योंकि आज दुर्भाग्य की बात यह है कि अपने को so called highly educated कहलाने वाले न केवल अपनी मातृभूमि को छोङकर metro cities में आकर बस गए हैं, वे अपनी मातृभाषा को भी त्याग आए हैं। तभी तो भगवान की आरती अथवा दुर्गा स्तोत्र आदि करने के लिए वे यू-ट्युब का सहारा लेते हैं। यह उन्नति का नहीं अपितु विचारणीय विषय है। ऐसे माता पिता अपनी संस्कृति की विरासत अपनी संतान को दे नहीं पाते। उदाहरण के लिए यदि हम बच्चे को बताना चाहते हैं कि –
“रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाएं पर वचन न जाई।”
और हम बताएं कि Raghukul ritual has always gone, Life gone but promise does not go. तो भावपूर्ण होगा?
“शिक्षा का संस्कृति से नाता, जय जननी, जय भारत माता।”
अपनी संस्कृति को जानना, समझना और उस पर गौरव का अनुभव कर उसे अपनाना ही तो संस्कार है और यही आयु संस्कार धारण करने की नींव है। और भाषा ही इसका मुख्य माध्यम है। किसी भी राष्ट्र की आत्मा/प्राण उसकी संस्कृति ही तो है और उसे अपनी मातृभाषा में ही जाना जा सकता है। जननी से तात्पर्य यहां माता एवं मातृभाषा से ही है।
महात्मा गांधी जी के अनुसार – मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है जितना कि बच्चे के विकास के लिए माता का दूध। माता के गर्भ और दूध से ही मातृभाषा मिलती है। मानसिक विकास के आधार पर ही बौद्धिक विकास निर्धारित होता है और शैशवास्था में चित्त प्रधान होता है। बुद्धि का विकास 6 वर्ष की अवस्था में होता है। अतः मातृभाषा की जय से ही, भारत माता अथवा किसी भी राष्ट्र की जय होगी।
विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि है सीखना अर्थात् शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के विकास का ही दूसरा नाम है। इन शक्तियों के विकास के द्वारा ही मनुष्य का सर्वांगींण विकास (All round development) होता है। शिक्षा जब तक जीवन के मूल्य, आदर्शों एवं मान्यताओं का परिचय नहीं देती है तब तक वह शिक्षा नहीं कही जा सकती और यह केवल और केवल मातृभाषा से ही सम्भव है।
सृष्टि के अन्य प्राणियों की भांति ही मनुष्य भी एक प्राणी ही कहलाता है। शेर, कौआ, चिङिया आदि प्राणियों को भाषा सीखानी नहीं पङती। वे स्वयं ही बोलने लगते हैं क्योंकि यह वाणीतंत्र उन्हें DNA में मिलता है जो स्वतः और सहजता (automatic and easily) से कार्य करता है। ऐसे ही शिशु को भी यह आनुवांशिक ही प्राप्त होता है। तभी तो बच्चे की आवाज में माता पिता की आवाज जैसा स्वर सुनाई देता है। इसीलिए मातृभाषा को सीखना सहज होता है और इसे सीखाने के लिए परिवार में इसका वातावरण बनाना परिवार का दायित्व है। मातृभाषा सीखने के बाद बच्चे को कोई भी भाषा का ज्ञान (समझ कर बोलना) सरलता से हो पाता है। शिशु मनोविज्ञान के अनुसार तीन वर्ष के शिशु के पास कम से कम दो हजार शब्द संख्या का कोष अपनी मातृभाषा का होना चाहिए। इसके लिए वातावरण के अनुसार अधिक से अधिक शब्दों का उच्चारण मूर्त्त वस्तुओं को दिखाते हुए (Showing pictures or things) शिशु के सामने करना चाहिए। इससे वह मात्र सुनकर ही उन्हें अर्थ सहित समझने में सक्षम होगा। उसे जबरदस्ती रटाने की आवश्यकता नहीं होगी।
भाषा के शुद्ध उच्चारण के लिए छोटे छोटे गीत, कहानी, लोरी, प्रभाती और श्लोक आदि को सुनने की व्यवस्था घर में होनी चाहिए। जैसे शिशु सहजता से मातृभाषा सीख लेता है वैसे ही मातृभाषा का स्वामी होने के बाद वह अन्य भाषा को भी सहजता से समझ कर सीख सकता है।
मातृभाषा को भी शुद्ध उच्चारण के साथ सीखाना चाहिए। आजकल भाषा को विकृत रूप से बोलने का चलन सा हो गया है, जैसे – चाचा को चाचू, मामा को मामू, दीदी को दी आदि। ऐसा करना भाषा का अपमान करना है। ऐसा प्रचलन सभी भाषाओं में चल रहा है।
पार्क में घूमते हुए ध्यान में आता है कि बूढी अनपढ दादी भी पोते से कहती हैं – कम हेयर (come here) नहीं तो डॉगी (dogy) काट लेगा। सिस्टर को सिस कहना और मैडम को मैम कहना तो आम सी बात हो गई है। यह भाषा कौन सी भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बन रही है – इस पर भी विचार करना होगा, वरना भाषा की परिभाषा ही बदल जाएगी।
श्री लज्जाराम तोमरजी के अनुसार – “मातृभाषा संस्कार का माध्यम होती है। इसके अध्ययन एवं प्रयोग से शिष्टाचार, वाणी का संस्कार, चरित्र निर्माण, भावना का परिष्कार, नैतिक बल एवं भारतीय संस्कृति का ज्ञान होता है।”
भाषा ही किसी व्यक्तित्व का दर्पण है और इस व्यक्तित्व रुपी दर्पण को गढने का यही उपयुक्त समय है। नहीं तो “का वर्षा, जब कृषि सुखाने”। आयु बीतने के बाद प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं अथवा अधिक मेहनत करनी पड़ती है। ऐसे बच्चे बङे होकर किसी भी भाषा विशेष के स्वामी (master of language) नहीं बनते या यूं कहें कि उनका व्यक्तित्व प्रभावी नहीं होता।
इस प्रयास का प्रारम्भिक केन्द्र घर ही है। अतः माता पिता को अपनी जिम्मेवारी को शिशु एवं देश हित में सोच समझकर कुशलता से निभाना चाहिए क्योंकि आज का बालक ही कल का नागरिक अर्थात् देश की धरोहर एवं उसका भविष्य है।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)
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