– डॉ. मोहन भागवत
शिक्षा के माध्यम से समाज की अगली पीढ़ी के जीवन निर्माण में धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है। धर्म के बिना शिक्षा अधूरी है। धर्म का अर्थ कर्त्तव्य भी है। आज की पीढ़ी को धर्म का अर्थ समझाना है तो संविधान के चार अंशों (उद्देशिका, मूल कर्तव्य, मूल अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व) में वर्णित मूल्यों के संदर्भ में उनको बताना सरल होगा।
‘धर्म, राष्ट्र और राष्ट्रधर्म’
(राजकोट (गुजरात) गुरुकुल में उद्बोधन का सम्पादित अंश – 28 जनवरी 2021)
‘राष्ट्रधर्म’- धर्म का अर्थ एक होता है अपना स्वभाव धर्म है, जैसे आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म बहना है। हमारी मैट्रिक कक्षा में एक पुस्तक थी – जनरल प्रोपर्टीस ऑफ़ मैटर (फिजिक्स)। मैं मराठी भाषा में पढ़ा हूँ। मराठी में उसका नाम था – सामान्य वस्तु धर्म। धर्म का अर्थ है स्वभाव। दूसरा, धर्म का अर्थ हुआ कर्त्तव्य। राजा के प्रति प्रजा का धर्म क्या है? पिता के प्रति पुत्र का धर्म क्या है? भगवान राम ने पुत्र-धर्म का पालन करके एक आदर्श खड़ा किया, ये भी धर्म है। तीसरा, धर्म का अर्थ है – जो सबको जोड़ता है, बिखरने नहीं देता और उन्नत करता है यानि ऊपर उठाता है। इसको कहते हैं – धारणा। संस्कृत में कहा जाता है – ‘धारणात् धर्म इत्याहुः’ अर्थात जो धारणा करता है वह धर्म है। जो तोड़ता है वह धर्म नहीं है, जो जोड़ता है वह धर्म है, जो नीचे गिराता है वह अधर्म है और जो ऊपर उठाता है वह धर्म है।
चौथी बात है – अभ्युदय यानि इस जीवन का भौतिक सुख और निश्रेयस यानि पारलौकिक सुख – आध्यात्मिक सुख, इन दोनों की प्राप्ति जिससे होती है वह धर्म है। अब इन चारों को हम जोड़ दें तो मैं ऐसे कहूँगा कि इस लोक में और परलोक में सब सुखी हों, इसलिए सबको जोड़ने वाला, सबको उन्नत करने वाला और यह होने के लिए सबके अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उनके कर्त्तव्य को निर्धारित करने वाला जो तत्व है उसको धर्म कहते हैं। अब धर्म को सारी दुनिया में समय-समय पर देने का काम भारत का है क्योंकि धर्म तो एक भावना है, एक तत्व है, अमूर्त है, वह आचरण से धर्म है यानि क्या, कोई ना कोई व्यक्ति धर्म का आचरण करता है तो धर्म दिखता है। ‘आचारार्ध प्रबोधधर्मा’ तो धर्म का आचरण करने वाला देश भारत है। वह अपने आचरण से पूरी दुनिया को धर्म देगा, यह उसका प्रयोजन है। इसके लिए भारत के राष्ट्र की निर्मिति हुई है।
यह धर्म-कल्पना भारत में ही है। धर्म नाम का शब्द केवल भारतीय भाषाओं में है और अन्य देशों की किसी भाषा में इस अर्थ का शब्द नहीं है। अन्य सब देश इसे रिलीजन कहते हैं, लेकिन वह बहुत छोटा है इसलिए ये धर्म देने का प्रयोजन भारत का है। अतः भारत को उसके योग्य बनाना, भारत के लोगों को, भारत की सत्ता को, भारत की सेना को इसके लिए योग्य बनाना है। इसे हम राष्ट्रधर्म कहते हैं। राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य, राष्ट्र को अपना मानकर सेवा करने का अपना स्वभाव और संपूर्ण राष्ट्र को जोड़ते हुए उसको ऊपर उठाना ताकि राष्ट्र के सब लोग भौतिक जीवन में भी और आध्यात्मिक जीवन में भी सुखी हो और यह धर्म पूरी दुनिया में भारतीयों के द्वारा मिले, ऐसा देश खड़ा करना यह राष्ट्रधर्म है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बताते हैं।
पहली बात राष्ट्र को जानना, क्योंकि राष्ट्र शब्द के बारे में भ्रम है। राष्ट्र का भाषांतर करते हैं नेशन। अपनी भाषा में राष्ट्र है, भारतीय भाषा में ही राष्ट्र है, क्योंकि अपनी अलग कल्पना है। अन्य देशों में नेशन यानि सत्ता यानि राष्ट्र, सत्ता समाप्त तो राष्ट्र समाप्त। हमारे यहां राष्ट्र यानि अपनी संस्कृति, वह कभी समाप्त नहीं होती; अपना राष्ट्र यानि क्या क्या है वह सब जानते हैं। अपनी भूमि है, वह भारत भूमि कितनी है – आज नक्शे में जिसे भारत कहते हैं उतना ही भारत नहीं है। “उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्”, समुद्र और हिमाद्रि। आज हिमालय थोड़ा सा बताते हैं, तिब्बत जिसके परे है। लेकिन वास्तव में हिंदूकुश भारत के वायव्य में है, वहां से लेकर तो पूर्व में आराकार तक, पूरी अखंड पर्वतमाला है। हिमालय के अलग-अलग अंग हैं – हिंदूकुश, कराकोरम, शिवालिक, ये सारे उसके अंग हैं। हिमालय से समुद्रपर्यंत तक भारतवर्ष है। आज इस भारतवर्ष को भारत नहीं तो किसी को अफगानिस्तान कहते हैं और किसी को बांग्लादेश कहते हैं। वास्तव में तो यह भारत है।
भारत के पूर्वज, भारत की संस्कृति, भारत की प्रकृति यानि निसर्ग – हिमालय, सह्याद्रि, अरावली है। भारत की नदियां कौन-कौन सी हैं, कहां से निकलती हैं, कहां मिलती हैं; यह सारी जानकारी देश के प्रति भक्ति जागृत करती है। देश का इतिहास, उसमें कौन कौन महापुरुष हुए, उनका चरित्र क्या है, यह सारी जानकारी अच्छी तरह से प्राप्त करना। दूसरा, राष्ट्र की सेवा करनी है तो त्याग और संयमपूर्वक जीने की आदत चाहिए। स्वार्थ और स्वैराचार से सेवा नहीं होती। अपने आध्यात्मिक मूल्य उसी जीवन को हमें सिखाते हैं, उनका अभ्यास करना और जीवन में लक्ष्य रखना कि मैं अपने जीवन को ‘स्वस्थ, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ बनाऊंगा और उस जीवन का उपयोग सबका जीवन ‘स्वस्थ, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ बनाने में करूंगा। ऐसा करने में कष्ट होता है तो कष्ट करने की भी आदत चाहिए। कई आदतें इस आयु में हम ग्रहण कर सकते हैं तो अपनी तैयारी राष्ट्र सेवा के लिए हो सकती है।
राष्ट्र सेवा की तैयारी बहुत लोगों ने ऐसे ही की है। उनका जीवन पढ़ते हैं तो पता चलता है कि लोकमान्य तिलक, वल्लभभाई पटेल ने कैसे इसकी तैयारी की। गांधी जी ने अपने जीवन में एक-एक प्रयोग करके अपने आप को कैसे बताया। संघ के संस्थापक डॉ० हेडगेवार, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप ऐसे सब लोगों ने राष्ट्र सेवा की तैयारी की, अपने देश के महापुरुषों ने जीवन में इसकी तैयारी करके काम किया। उन्होंने जैसी तैयारी की वैसी ही हमको करनी पड़ेगी। भाषा बदलती है, पाठ्यक्रम बदलता है लेकिन जो मूल बातें है वे बातें वैसी ही रहेंगी, उन चरित्रों को पढ़ना, उनसे प्रेरणा लेना और अपने आपको वैसा बनाने का प्रयास करना। हमेशा अच्छा सोचना, खराब नहीं सोचना। मैं अच्छा बनूंगा, मैं खराब नहीं बनूंगा। अच्छा क्या है, और खराब क्या है, इसकी पहचान के लिए गुरुकुल का पाठ्यक्रम है, उससे पता चलता है कि सही क्या है और गलत क्या है; वे सारी बातें आपको यहाँ सिखाई जाती है, वे ठीक से सीखना।
शिक्षा में धर्म का स्थान
(हिंदी विवेक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार का अंश – 9 अक्तूबर 2020)
प्रश्न – बदलाव के लिए नए-नए प्रयोग चल रहे हैं, इसमें शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण स्थान रहेगा। शिक्षा में धर्म का स्थान क्या होना चाहिए। आपकी इसके बारे में राय क्या है?
उत्तर – धर्म का स्थान सर्वत्र है। अधर्म तो कहीं नहीं होना चाहिए। अगर मैं कहूँ कि शिक्षा में धर्म होना चाहिए तो लोग खूब चिल्लाएंगे। लेकिन मैं अगर कहूँगा कि अधर्म नहीं होना चाहिए तो नहीं चिल्लाएगें। धर्म यानि संप्रदाय पूजा, Civic Discipline, Civic Responsibility यह धर्म है। भारत के प्रत्येक बच्चे को अपने संविधान के ये चार चैप्टर बताना चाहिए। शेष डिटेल्स Constitution Law पढ़ने वालों के लिए है। एकदम प्राइमरी में मत पढ़ाओ उनकी समझ में नहीं आएगा लेकिन जो फोर्मेट स्टेज में है उनकी समझ में आएगा उसमें उनको संविधान की प्रस्तावना, संविधान में नागरिक कर्तव्य, संविधान में नागरिक अधिकार और अपने संविधान के मार्गदर्शक तत्व, यह सब क्या हैं? कैसे हैं? ये पढ़ाना चाहिए, क्योंकि वह धर्म है। हम लोग साथ चलें, विविध लोग एकत्र रहें और भारत की उन्नति हो, उसी समय भारत की उन्नति से विश्व को कष्ट ना हो, यह मन में रखकर उस संविधान की रचना की है और करने वाले सब हमारे लोग थे। उनके सामने क्या आदर्श थे – संविधान में जो चित्र उन्होंने क्रम से दिए हैं, उन चित्रों में वह व्यक्त होता है। एक-एक शब्द के लिए चर्चा हुई है वह अगर हम देखते हैं तो उनका मन ध्यान में आता है। आज के फॉर्मेट में यह हमारा सनातन धर्म ही व्यक्त हो रहा है, उसको सिखाओ। पढ़ना पैसे के लिए नहीं है लेकिन पढ़ना आपको भूखा रखेगा ऐसा भी नहीं है। आप पढ़ोगे तो आप अपना जीवन ठीक चला सकोगे, इतना आत्मविश्वास तो देना चाहिए लेकिन केवल आपका जीवन ठीक चले इसके लिए शिक्षा नहीं है। सबका जीवन आप ठीक चलाएं इसलिए आपको शिक्षित होना है, यह दृष्टि वहां मिले। घर के संस्कार भी ऐसे हों, विद्यालय का पाठ्यक्रम, शिक्षकों के आचरण का उदाहरण और समाज का वातावरण, यह चारों बातें ऐसी होनी चाहिए।
आप जो प्रश्न कर रहे हैं वह केवल शिक्षा नीति के बारे में कह रहे हैं। लेकिन शिक्षा तो इन चारों में होती है, चारों का विचार करना पड़ेगा। और तभी हमारी शिक्षा से मैं दुनिया के संघर्ष में खड़ा होकर अपना, अपने परिवार का जीवन चला सकता हूँ। इतनी कला और इतना विश्वास देने वाली शिक्षा हो। दूसरी बात- इस दुनिया से मैंने लिया है, इस दुनिया को मैं दुगना वापस करूँगा, इसके लिए मुझे जीना है। तीसरी बात- यह जीवन जीते समय जो शिक्षा मुझे मिली है उसके आधार पर सब अनुभवों में से मैं कुछ जीवन के लिए सीख लूँगा। जीवन के उतार-चढ़ावों में से जाते समय में जीवन के आनंद को ग्रहण करूँगा, सकारात्मक दृष्टिकोण से ऐसा स्वभाव होना चाहिए। यह शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए। अभी जो शिक्षा नीति बनी है उसने कुछ कदम इस ओर डाले हैं वह अच्छी बात है, लेकिन उसको पूर्ण नहीं मानना चाहिए। दूसरी बात पूर्ण नीति सरकार जब बनाएगी तो भी इसका अमल केवल शिक्षा याने व्यवस्था नहीं करती, घर और समाज भी करता है। कुल मिलाकर इस वातावरण को बनाने की आवश्यकता है।
(भारतीय शिक्षा दृष्टि – डॉ. मोहन भागवत, पुस्तक से साभार)
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