– शिरोमणि दुबे
विद्वानों की मान्यता है कि करने योग्य लिखा जाए, उससे अधिक अच्छा है कि लिखने योग्य किया जाए। काशीनाथ त्रिवेदी इस कसौटी पर खरे उतरे तथा ‘निमाड़’ के गाँधी के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। अपने लिए तो पशु-पक्षी भी जीते हैं परन्तु जीवन की सार्थकता औरों के लिए जीने में निहित होती है। यही सहृदयता, संवेदनशीलता, करुणा का मूल स्रोत है। कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने जैसे विश्व मानव को शिक्षा दी है-
जो समेटते हो सब सपना है।
जो लुटा रहे सब अपना है।।
उज्ज्वल-उदात्त मन तथा उन्नत आत्मा की चमक जीवन को अनमोल बना देती है। मन-मस्त फकीरी धारी है, अब एक ही धुन जय-जय भारत। मन की फकीरी मानव जीवन को बदल देती है तथा भारतमाता की जय की सरगम जब जिन्दगी के साथ बजने लगती है, तब व्यक्तित्व हिमालय जैसा ऊँचा हो जाता है। सादगी-सेवा-सौम्यता जैसे दैवीय गुणों के कारण काशीनाथ त्रिवेदी साहित्यिक क्षेत्र के ध्रुव तारा बन गए, जिनकी चमक आज तक मैली नहीं हो पाई है।
कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जिन्हें सीमाओं में बाँधना संभव नहीं होता। कुछ ऐसे महामानव होते हैं, जिनकी जिन्दगी का एक-एक पन्ना, एक-एक अध्याय इतना प्रेरक होता है कि आने वाली पीढ़ियों को उससे सीख मिलती है। मध्यप्रदेश के धार जिले के पावन भूमि ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपने विचारों, कर्मों और समाजसेवा से सम्पूर्ण देश को प्रभावित किया। एक ऐसे ही युगदृष्टा समाजसेवी, चिन्तक और राष्ट्रनिष्ठ व्यक्तित्व थे काशीनाथ त्रिवेदी। उनका जीवन सतत संघर्ष, सेवा और सृजन की अनुपम गाथा है। वो एक ऐसे सेनानी साहित्यकार थे, जिन्हें अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया परन्तु अहमन्यता से बहुत दूर उनकी साहित्य साधना तथा देशसेवा का सफर प्राणों की अंतिम सीमा तक और साँसों के अंतिम छोर तक न कभी रुका, न कभी ठहरा।
काशीनाथ त्रिवेदी के पिता बड़वानी रियासत में सरकारी नौकरी में कार्यरत थे। वे विद्यार्थी जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। उन्होंने 1928 में क्रिश्चियन महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद गए। अंग्रेजों द्वारा देशभर में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रदर्शन करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में ठूँस दिया गया। इस आंदोलन में उन्होंने 2 अक्टूबर 1942 को अपने 67 अन्य कैदियों के साथ महात्मा गांधी के जन्मदिन पर मण्डलेश्वर की जिला जेल तोड़कर घण्टाघर चौक पर तिरंगा फहराया था। परिणामस्वरूप दो वर्ष से अधिक नागपुर सेण्ट्रल जेल में निरुद्ध रहे। 1947 में भारत विभाजन के बाद फैले साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में काशीनाथ त्रिवेदी ने अपनी जान की परवाह नहीं की। उन्हीं के प्रयत्नों से बड़वानी को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलसने से बचाया जा सका। स्वतंत्रता के बाद काशीनाथ जी ने जनसंघ के विचारों से प्रेरित होकर राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया और संगठन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन राष्ट्रभक्ति, त्याग, समर्पण का प्रतीक रहा है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के विषय में ‘हुतात्मा चन्द्रशेखर आजाद’ ग्रन्थ की ये पंक्तियाँ बहुत प्रेरणा देती हैं-
प्रेरणा शहीदों से अगर हम नहीं लेंगे,
तो स्वतंत्रता ढलती हुई साँझ हो जायेगी।
पूजा वीरों की यदि हम नहीं करेंगे,
तो सच मानो वसुन्धरा बाँझ हो जायेगी।।
एक वरिष्ठ गांधीवादी तथा स्वतंत्रता सेनानी श्री त्रिवेदी ने एक शिक्षक के रूप में अपनी यात्रा प्रारंभ की। 1925 में गांधी जी के सम्पर्क में आने के बाद ‘नवजीवन’ पत्रिका के सहसम्पादक के रूप में वे साबरमती आश्रम से जुड़ गए। 1935 में वर्धा पहुँचकर हिन्दी के शिक्षक, महिला आश्रम के सचिव तथा प्रधानाचार्य के पद पर कार्य किया। यह सब करते हुए उन्होने लोकतंत्र और उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए उग्र आंदोलन भी किया। बाद में वे मध्यप्रदेश के शिक्षामंत्री बने। 70 वर्षों तक गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों के लिए समर्पित ‘निमाड़ के गांधी’ काशीनाथ त्रिवेदी ने गांधीवादी और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की एक पूरी पीढ़ी को मार्गदर्शन और प्रेरणा दी। उन्होने मध्यप्रदेश के धार जिले के तबलाई गाँव में ‘ग्रामभारती आश्रम’ स्थापित किया। इस आश्रम के द्वारा ग्रामोन्मुख, आत्मनिर्भर भारत के विकास का मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होने गुजराती से हिन्दी भाषा में 125 से अधिक पुस्तकों का अनुवाद करके गांधीवादी दर्शन, सर्वोदय, बालशिक्षा तथा ग्रामविकास से सम्बन्धित हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। त्रिवेदी जी ने ही अपनी धर्मपत्नी कलावती को भी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था।
काशीनाथ त्रिवेदी का बचपन सादगी और संघर्ष से भरा रहा। वे बचपन से ही मेधावी, जिज्ञासु तथा समाज के प्रति संवेदनशील थे। छात्र जीवन में ही वे सामाजिक समस्याओं तथा असमानताओं से परिचित हो गए थे। उन्होने अनुभव किया कि केवल शिक्षा और जागरुकता ही समाज को अज्ञानता, रूढ़िवाद और अन्याय से मुक्ति दिला सकती है। शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाने के लिए अनेक नवाचार किए। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षण संस्थानों की स्थापना, निर्धन विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति तथा व्यावहारिक शिक्षा को बढ़ावा देना उनके प्रमुख प्रयासों में शामिल था। वे इस बात में विश्वास रखते थे कि शिक्षा केवल पाठ्यक्रम तक सीमित न रहे, बल्कि समाज को सशक्त बनाने का माध्यम बने। 1995 में उन्हें जमनालाल बजाज ‘पुरस्कार’ से विभूषित किया गया। गांधीदर्शन के प्रसारक प्रसिद्ध चिन्तक काशीनाथ त्रिवेदी 26 जून 1996 को पंचतत्व में विलीन हो गए।
आज भी काशीनाथ त्रिवेदी को सामाजिक सुधार और नवजागरण के पुरोधा के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध प्रभावी कार्य किए। उन्होने सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए विभिन्न जनजागरण अभियानों का नेतृत्व किया था। वे महिला सशक्किरण के पक्षधर थे। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और स्वावलम्बन के लिए विशेष योजनाएं बनाईं। मध्यप्रदेश के शिक्षामंत्री के रूप में श्री काशीनाथ त्रिवेदी जी का कार्यकाल न केवल प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए स्वर्ण युग साबित हुआ, बल्कि उनके दूरदर्शी नेतृत्व ने शिक्षा क्षेत्र में स्थायी परिवर्तन भी किए। वे एक समाजसेवी, चिन्तक और कर्मठ कार्यकर्ता थे। उनका उद्देश्य शिक्षा को पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित करना नहीं था, बल्कि उसे समाज परिवर्तन का वाहक बनाना था। उन्होने शिक्षा को समाज और संस्कृति से जोड़ने का कार्य किया और उसे रोजगारपरक बनाने का प्रयास किया।
काशीनाथ त्रिवेदी ने पॉलीटेक्निक कॉलेजों, तकनीकी संस्थानों तथा व्यावसायिक शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना को प्रोत्साहित किया ताकि युवा केवल सरकारी नौकरियों पर निर्भर न रहे। ‘गाँव-गाँव में स्कूल’ की अवधारणा को मूर्तरूप देने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने शिक्षकों के नियमित प्रशिक्षण और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए नई नीतियां लागू कीं। वे मानते थे कि जब तक शिक्षक सशक्त और प्रेरित नहीं होगा तब तक शिक्षा व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में जिन शैक्षिक सुधारों का उल्लेख किया गया है वास्तव में श्री त्रिवेदी ने अपने शिक्षामंत्री के कार्यकाल में उन्ही सुधारों की पहल की थी। उनके कार्यकाल में बाल केन्द्रित, आनन्ददायी तथा अनुभव आधारित शिक्षा प्रणाली को प्राथमिकता दी गई। भयमुक्त वातावरण में स्थानीय भाषा तथा मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान सुनिश्चित किया गया, जिससे शिक्षा अधिक प्रभावी व सृजनात्मक बन सकी। इस प्रकार त्रिवेदी जी के नेतृत्व में मध्यप्रदेश की शिक्षा प्रणाली प्रगतिशील बनी, जो आज भी शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।
(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रांत के प्रांत सचिव है।)
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